पृष्ठ

रविवार, दिसंबर 29, 2019

देशबन्धु के साठ साल-14 - ललित सुरजन

Dr Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  चौदहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-14
- ललित सुरजन
Lalit Surjan

"हमारा मकसद था कि हमारे पाठक हँसें, दुनिया पर, आत्मुग्ध नेताओं पर, पाखंड पर, मूर्खताओं पर और सबसे बढ़कर अपने आप पर। लेकिन वे पाठक कौन हैं जो विकसित विनोद भाव के धनी हैं। ये वे लोग हैं जो एक तरह से सभ्य आचरण करते हैं, जो  सहनशक्ति के धनी हैं और जिनमें चुटकी भर करुणा का भाव है।'' 

ये पंक्तियां सुविख्यात व्यंग्य चित्रकार के. शंकर पिल्लई ने ''शंकर्स वीकली'' के अंतिम अंक के संपादकीय में लिखी थीं। शंकर ने 1948 में, बहुचर्चित व अपार लोकप्रिय पत्रिका की स्थापना की थी और आपातकाल लागू होने के दो माह बाद 31 अगस्त 1975 को बंद कर दी थी। इसी संपादकीय में उन्होंने चिंता प्रकट की थी कि भारत के लोगों की विनोदवृत्ति क्षीण होते जा रही है। हम अपने पर हँसना भूल गए हैं।

देशबन्धु के दीपावली विशेषांक के आगे जब मैं पत्र के होली पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट की चर्चा करने की सोच रहा था, तब अचानक ही शंकर का यह प्रसंग याद आ गया। हमारे राष्ट्रीय जीवन में सहनशीलता जिस तरह निरंतर घटती जा रही है, उसमें भी भारत में राजनैतिक कार्टून की परंपरा स्थापित करने वाले शंकर का ध्यान आता  तो स्वाभाविक होता; लेकिन अभी हमारी बात अपने अखबार तक सीमित है। दीपावली विशेषांक की रचनाओं में जहां विचार वैभव और साहित्यिक आभा के दर्शन होते, वहीं होली के अवसर पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट में शिष्ट हास्य, चुलबुलापन, रंगों की छटा और सरसता का समावेश देखने मिलता। सामान्य दैनिक अंक की तुलना में इसमें चार-छह पृष्ठ अतिरिक्त होते, लेकिन प्रकाशित सामग्री होली के रंगों को कुछ और गाढ़ी कर देती। इस दिन की तैयारी भी हम हफ्ता-दस दिन पहले से करने लगते थे। राजू दा, रम्मू भैया, सत्येंद्र और अन्य साथी दिमागी घोड़े दौड़ाने लगते कि ऐसा क्या किया जाए जिससे अंक अधिक से अधिक पठनीय हो सके। प्रभाकर चौबे भी इस टीम का अभिन्न अंग होते थे। 

पाठकों को जानकर सुखद आश्चर्य हो सकता है कि देशबन्धु के होली विशेषांक में एक व्यंग्य रचना संस्थापक-संपादक मायाराम सुरजन पर निशाना साधते हुए लिखी जाती। इसे शुरूआती सालों में अमूमन रम्मू श्रीवास्तव लिखा करते थे। पत्र के पाठकों के साथ स्वयं बाबूजी इस फीचर का मजा लेते थे और लेखक को बधाई भी देते थे। यह देशबन्धु में जनतांत्रिक परंपरा का ही एक उदाहरण था, जिसकी कल्पना किसी अन्य मीडिया प्रतिष्ठान में तब भी नहीं की जाती थी। इसके अलावा होली के दिन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बहुत सोच-समझ कर सच्ची प्रतीत होने वाली झूठी खबरें भी छपती थीं। हम समाचार में कहीं भी ''होली समाचार'' जैसा संकेत नहीं देते थे। बस, एक बॉक्स अलग से छपता था कि आज के अखबार में झूठी खबरें भी हैं। जो समझ जाएं वे हंस, और जो न समझ पाएं वे कौव्वे। वह अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण समय था। वातावरण में शंका-कुशंका की गुंजाइश आज के मुकाबले कहीं कम थी तो हमारी यह अराजक पत्रकारिता चल जाती थी।  उसकी साधारणत: कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया समाज में नहीं होती थी।  

होली के विशेष परिशिष्ट में पाठकों को सबसे अधिक इंतजार रहता था उपाधियों का। देश-प्रदेश की गणमान्य व चर्चित हस्तियों को उनके ज्ञात-कमज्ञात गुण-दोषों के आधार पर चुन-चुनकर उपाधियां दी जाती थीं। ये उपाधियां अशआरों की शक्ल में होती थीं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय और प्रकाश पंडित द्वारा संपादित उर्दू शायरी के संकलन संपादकीय डेस्क पर रखे जाते। ग़ालिब, मीर, सौदा, जौक, फ़िराक, कतील शिफाई, नून नीम-राशिद और न जाने कितने समर्थ शायरों की गजलों में से शेर ढूंढे जाते। रम्मू भैया और प्रभाकर स्वयं समर्थ व्यंग्यकार थे तो उनकी स्वरचित पंक्तियां भी यथास्थान फिट की जातीं। इन उपाधियों की कई-कई दिनों तक बाजार में चर्चा होती। बारहां लोग शिकायत तक करते कि भाई, आपने हमको उपाधि क्यों नहीं दी।  रायपुर-जबलपुर के सामाजिक जीवन का यह एक पुरलुत्फ पहलू था। लेकिन अफसोस, एक समय आया, जब हमने इस ढंग से होली मनाना छोड़ दिया। जिनके मनोविनोद के लिए लिख रहे हैं, वे ही अगर न समझ पाएं तो क्या फायदा! जिस तरह शंकर ने एक दिन शंकर्स वीकली बंद कर दिया, उसी तरह हमने भी होली परिशिष्ट की परिपाटी स्थगित कर दी।

होली, दीवाली, गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस पर विशेषांक अथवा परिशिष्ट का प्रकाशन वार्षिक उद्यम था तो हर रविवार साप्ताहिक अंक का संयोजन ऐसा उपक्रम था जिसमें रचनात्मक प्रतिभा का समादर होता और हमें दैनंदिन काम से हटकर मानसिक संतोष मिलता। दरअसल, अनेक हिंदी अखबारों में संपादक के बाद साहित्य संपादक का नाम ही वरीयता क्रम में प्रमुख होता था। नवभारत में शिवनारायण द्विवेदी का नाम बाकायदा साहित्य संपादक के रूप में छपता था। संघ के मुखपत्र युगधर्म की प्रतिष्ठा बड़ी हद तक साहित्य संपादक  रामकुमार भ्रमर के कारण थी। हमारे यहां तो लगभग हर संपादक अपने अधिकार में साहित्यकार था, सो नाम किसी का नहीं छपता था और अंक संयोजन भी किसी एक की जिम्मेदारी नहीं थी। देशबन्धु के रविवासरीय अंक का नामकरण काफी बाद में हमने अवकाश अंक कर दिया था। एक अखबार ने इस शीर्षक की नकल भी की, लेकिन कुछ माह बाद वे पुराने ढर्रे पर लौट गए।

साप्ताहिक अंक, रविवासरीय अंक या अवकाश अंक में हमारी कोशिश होती थी कि नई प्रतिभाओं को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए। इस अंक में नवाचार की भी बहुत गुंजाइश थी, जिसका इस्तेमाल करने में कोई कमी नहीं की। इस बात का जिक्र मैंने लेखमाला की शुरुआती किश्तों में किया है। 1980 के आसपास रायपुर की कुछ युवा प्रतिभाओं ने एक पहल की, जो इसी साप्ताहिक अंक से लागू हुई। जयंत देशमुख, अरुण काठोटे और उनके साथी कलाकारों ने कविता पोस्टर बनाने की बात सोची। कोई एक अच्छी कविता ली, उसे रंगों और रेखाओं के संयोजन के साथ खुशख़त में लिखा और वह ''कविता चौराहे पर'' शीर्षक के स्थायी स्तंभ के रूप में अवकाश अंक के पहले पन्ने पर प्रकाशित होने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चला। इन नौजवान कल्पनाशील संस्कृतिकर्मियों ने उस पोस्टर को रायपुर के जयस्तंभ चौक जैसे प्रमुख स्थानों पर प्रदर्शित करने की पहल भी की। यह साहित्य को जनता के पास ले जाने की एक उम्दा कोशिश थी, जिसे हमने भरपूर सहयोग दिया। एक और उल्लेखनीय प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा।  प्रो. खलीकुर्ररहमान ''लेट अस लर्न'' शीर्षक से अंग्रेजी भाषा पर और ''एक शेर'' शीर्षक से उर्दू साहित्य पर लिखते थे। ये दोनों कॉलम एक साथ अवकाश अंक में छपते थे।

देशबन्धु के साहित्य परिशिष्ट के माध्यम से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के अनेक नए रचनाकारों की प्रारंभिक पहचान कायम हुई, उनमें से कई की आज देश के जाने-माने लेखकों में गणना होती है। मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती है जब कोई लेखक अपने साक्षात्कार आदि में जिक्र करता है कि उसकी पहली रचना देशबन्धु में छपी थी। इस सिलसिले में आकाशवाणी, रायपुर के एक केंद्र निदेशक स्व. हेमेंद्रनाथ की स्मृति अनायास मानस पटल पर दस्तक देती है। हेमेंद्रजी सजग साहित्य रसिक थे। वे देशबन्धु में किसी नए लेखक की रचना पढ़ते तो फोन कर उसका पता-ठिकाना मुझसे मांगते और अगले दिन याने सोमवार को उस लेखक को आकाशवाणी से रचना पाठ का आमंत्रण पत्र चला जाता। कहना होगा- गुन न हिरानो, गुन गाहक हिरानो है। हीरे तो आज भी मौजूद हैं, उन्हें तराशने वाले गुम हो गए हैं।
-----------------------------------------
#देशबंधु में 17 अक्तूबर 2019 को प्रकाशित
-------------------------------------------
प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें