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बुधवार, दिसंबर 25, 2019

देशबन्धु के साठ साल-12- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बारहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-12
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
हमने सीखा था कि एक फोटो एक हजार शब्दों के बराबर होता है। इस सीख का दूसरा पहलू था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं। उन दिनों टीवी नहीं था। सोशल मीडिया भी नहीं था। तस्वीर की फोटोशॉपिंग कर झूठ को सच या सच को झूठ सिद्ध करने की गुंजाइश नहीं थी। महानगरों से प्रकाशित पत्रों में बेहतरीन फोटो छापने की होड़ होती थी। एक अच्छे फोटो से समाचार में निखार आता, पेज की सजावट में वृद्धि होती और पाठक को भी चाक्षुष आनंद मिलता। अखबार पर उसका भरोसा भी बढ़ता। लेकिन रायपुर-जबलपुर जैसे आंचलिक केंद्रों से प्रकाशित अखबारों के सामने व्यवहारिक अड़चन थी। अच्छी से अच्छी तस्वीर खींचकर ले आएं लेकिन उसे छापें कैसे? अखबारी भाषा में जिसे ''ब्लॉक" कहते थे, उसे बनाने की सुविधा इन स्थानों पर नहीं थी। ब्लॉक याने सीसे में ढालकर लकड़ी पर मढ़ी गई फोटो की प्रतिकृति। उन दिनों हम जैसे सभी अखबार महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पासपोर्ट आकार के फोटो के ब्लॉक बाहर से बनवाकर अपने कंपोजिंग कक्ष की आलमारी में तरतीबवार जमा कर रख लेते थे। किसी व्यक्ति से संबंधित समाचार के साथ फोटो देना आवश्यक समझा तो उसका ब्लॉक निकालकर पेज में सजा दिया। छपाई के बाद ब्लॉक वापिस आलमारी में।

इस प्रक्रिया में कभी-कभार मनोरंजक स्थिति उत्पन्न हो जाती। एक बार विनोबा भावे से संबंधित समाचार देना था तो उनकी जगह रायपुर के प्रतिष्ठित शिक्षक आचार्य सुधीर कुमार बोस का फोटो लग गया। जब रॉबर्ट कैनेडी की हत्या हुई तो जॉन एफ. कैनेडी का फोटो लगाया और अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए शीर्षक दिया- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी, जिसके भाई रॉबर्ट कैनेडी की भी हत्या कर दी गई। एक बार तो हद हो गई। वरिष्ठ राजनेता और राज्य के तत्कालीन शिक्षामंत्री शंकरदयाल शर्मा के स्थान पर हकीम वीरूमल आर्यप्रेमी की तस्वीर का ब्लाक लग गया। 60-70 के दौरान हकीम वीरूमल और एक डॉक्टर आजाद के आधा-आधा पेज के विज्ञापन उनके छत्तीसगढ़-प्रवास के दिनों में छपा करते थे। गलत फोटो इसलिए लग गया क्योंकि डॉ. शर्मा और हकीमजी दोनों के ब्लॉक कई बार छपने के कारण घिस गए थे और सिर्फ टोपी और गोलमटोल चेहरे का साम्य देखकर अनुमान से ब्लॉक चुन लिया गया। आज नवीनतम तकनीकी के प्रयोग के बाद भी अखबारों में गलतियां किसी न किसी रूप में होती ही हैं। ऐसी चूकों के चलते जगहंसाई होती है। अपने आप पर गुस्सा आता है। उन पर पाठकों व संबंधित पक्षों से माफी मांगने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता।

आमतौर पर पाठक या तो अखबार के संपादक को उसका नाम प्रतिदिन छपने के कारण जानते हैं या फिर प्रकाशन स्थल सहित अनेकानेक केंद्रों में नियुक्त संवाददाताओं को उनके सामाजिक संपर्कों के कारण। संपादकीय कक्ष में दिन या रात पाली में कई-कई घंटे बैठकर अखबार की पृष्ठ सज्जा व उसे अंतिम रूप देने वाले डेस्क संपादक अमूमन पृष्ठभूमि में ही रहे आते हैं। सलीम-जावेद के पहले संवाद लेखकों को कौन जानता था? इनकी भूमिका पर बाद में लिखूंगा, लेकिन संवाददाताओं के कारण यदि कभी पाठकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है तो कभी विचित्र स्थिति भी पेश आ जाती है। उदाहरण के लिए यह सच्चा किस्सा सुन लीजिए। यह सन् 65-66 की बात होगी। पंडरिया (कबीरधाम ज़िला) के संवाददाता एक दिन गुस्से में भरकर प्रेस आए। दरयाफ्त किया- उनके भेजे समाचार कई दिन से नहीं छप रहे हैं। क्या बात है? प्रांतीय डेस्क के प्रभारी ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया- आप रोज-रोज थानेदार के खिलाफ समाचार क्यों भेजते हैं? एक-दो बार छाप दिया, लेकिन हर दिन तो ऐसा नहीं कर सकते। इस पर उनका उत्तर खासा दिलचस्प था। थानेदार रोज मेरे घर के सामने से निकलता है। मुझे देखकर भी नमस्ते नहीं करता। ऐेसे में गांव में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? मैंने संवाददाता महोदय को समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंतत: कुछ दिनों बाद हमें उनके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नियुक्त करना पड़ा।

दरअसल, भारतीय समाज अखबारनवीसों को विशिष्ट श्रेणी का नागरिक मानकर चलता है। और भला ऐसा क्यों न हो? गांधी, नेहरू, तिलक, सुभाष, राजाजी सबने तो स्वाधीनता संग्राम में अखबार निकालकर अपनी कलम के जौहर दिखलाए थे। उनका असर आज तक चला आ रहा है। कोई व्यक्ति अपने किसी काम के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजता है तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर के अलावा उसकी प्रति ''समस्त अखबारों को" भेजी जाती है। पत्रकारों के पास नागरिक अपने दुख-दर्द सुनाने आते हैं, उनसे अक्सर भयभीत रहते हैं और अखबार वाले क्या नहीं कर सकते के मिथक में भी विश्वास रखते हैं। ऐसे में एक ग्रामीण संवाददाता यदि थानेदार को नमस्कार करने के बजाय उससे पहल करने की अपेक्षा करे तो इसमें उसका क्या दोष है? एक और सच्चा किस्सा सुन लीजिए। रायपुर का एमजी रोड एक समय ''वन वे" था। किसी हड़बड़ी में मैं गलत दिशा में गाड़ी ले गया। ट्रैफिक सिपाही ने रोका। चालान काटने के लिए नाम, पिता का नाम पूछा। पता देशबन्धु सुनते ही वह रुक गया। वही अखबार जिसके राजनारायण मिश्र मालिक हैं! हां भाई, वही मेरे बॉस हैं। ठीक है। जाओ। आगे से ध्यान रखना।

हम पत्रकारों को इससे एकदम विपरीत स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। दफ्तर में मेरा कक्ष काफी छोटा है। एक दिन धड़धड़ाते हुए सात-आठ लोग कमरे में घुस आए। आप ही संपादक हैं? हां। आज आपने मेरे बारे में कैसे छाप दिया कि मैं शहर का कुख्यात गुंडा हूं, कहते हुए पेपर पटक दिया। मैंने देखा- बीते दिन किसी पुलिस कार्रवाई के सिलसिले में नाम के साथ विशेषण छपा था। मैंने पूछा- इसमें गलत क्या लिखा है? तुम अपने साथियों को लेकर धमक पड़े हो तो यह क्या है? मैं तुम्हें देख लूंगा। ठीक है, उसके लिए प्रतीक्षा क्यों? मैं तो यहीं अकेला निहत्था बैठा हूं। जो चाहो कर लो। उसका दिमाग थोड़ा ठंडा हुआ। मेरी बेटी स्कूल में पढ़ती है।उसे सहेलियों ने आज उल्टी-सीधी सुनाई। अगर बेटी के बारे में इतना सोचते हो तो ऐसे काम ही क्यों करते हो? मैं उस लड़के के पिता को जानता था। उन्होंने सुनील दत्त की फिल्म 'साधना" से प्रेरणा ले विवाह किया था। मैंने उसके पिता की याद दिलाई तो उसका स्वर एकदम नरम हो गया। अपनी बेअदबी के लिए माफी मांगकर वह और उसके साथी चले गए। मुझे मन ही मन डर तो लगा था, लेकिन बाबूजी ने बरसों पहले जबलपुर में इसी तरह दो बार दादा लोगों को शांत किया था। वे प्रसंग मेरे ध्यान में थे।

इन संस्मरणों में खास कुछ भी नहीं है। ये पत्रकारों की सामान्य दिनचर्या के हिस्से हैं। किसी भी अन्य व्यवसाय में और किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे खट्टे-मीठे अनुभव आते होंगे। हम कभी-कभार हवा के घोड़े पर सवार होते हैं तो अक्सर हमें जमीन पर ही चलना होता है। एक समय मैंने नोटिस किया कि पत्रकार गण किसी कार्यक्रम में गए तो उचित सत्कार न होने के कारण बहिष्कार करके लौट आए। मैंने देशबन्धु में अपने साथियों को हिदायत दी कि यदि आप किसी आयोजन को व्यापक जनहित में मानकर रिपोर्टिंग करने जा रहे हैं तो काम पूरा करके लौटिए। सुविधाओं की चिंता मत कीजिए। अगर पूरे समय खड़े रहकर कवरेज करना है तो वह भी कीजिए। आखिरकार हम पाठकों के प्रति उत्तरदायी हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के संस्मरणों से मैंने दो बातें जानी थीं। एक- व्हाइट हाउस की पत्रकार वार्ता में अधिकृत संवाददाता ही सामने बैठते हैं। संयोग से यदि प्रधान संपादक भी आ जाए तो वह पीछे खड़ा होगा। दो- जब पत्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो अखबार उनका अनुमानित यात्रा व्यय राष्ट्रपति भवन को भेज देता है। मुफ्त की सैर नहीं होती। यह शायद एक कारण है कि अमेरिका में आज भी पत्रकार राष्ट्रपति का विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।
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#देशबंधु में 26 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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