(डॉ.हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर से प्रकाशित पत्रिका ‘ईसुरी’ से मेरा यह लेख साभार)
- डॉ.शरद सिंह
स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।
देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रसदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।
एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है। घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।
बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रें से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रें से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।
किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत,प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं। लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस गं्रथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
कर्नल टॉड के बाद कुछ और गं्रथ आए जिनमें भारतीय लोकथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में जनजातीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक ग्रंथों में विभिन्न क्षेत्रें एवं समाजों में प्रचलित लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया।
व्रत कथाओं को प्रायः धार्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत पढ़ी, सुनी जानेवाली कथाएं मान लिया जाता है जबकि व्रत कथाओं का एक और रूप होता हैं जो कि लोक विश्वास अथवा लोक आस्था के रूप में लोक मानस में व्याप्त रहता है और इसी रूप में ग्रहण किया जाता है। जैसे भैया-दूज की व्रत कथा । काल्पनिक ‘दोज महारानी’ की आस्थायुक्त यह कथा ईश्वरीय चमत्कारों तथा धार्मिक आग्रह से परे भाई की रक्षा को ले कर बहन की चिन्ता का लौकिक स्वरूप है। इसमें स्त्री का वह रूप उभर कर सामने आता है जिसे पारिवारिक एवं सामाजिक ताने-बाने में ‘बहन’ का संबोधन दिया गया है।
मुख्य रूप से लोक व्रत कथाएं श्रोताओं के सम्मुख कही (बंाची)जाती हैं। इनमें सभी स्त्री पात्रें का विशेष महत्व रहता है। इस तथ्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि लोक व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री ही रहती है। इसके दो कारण माने जा सकते हैं। पहला कारण यह कि समाज को धर्म के माध्यम से लोक हित से जोड़ने वाली स्त्री ही होती है, वह मां के रूप में भावी पीढ़ी को साहस का पाठ पढ़ाती है , संकट से जूझने की क्षमता प्रदान करती है और उसकी तमाम शक्ति को समाज हित में लगाने की शिक्षा देती है। इस प्रकार वह भावी पीढ़ी को लोक हित का अर्थ समझाती है ,सिखाती है और उसमें आस्था उत्पन्न करती है। दूसरा कारण यह कि जिस ग्रामीण लोक से इन कथाओं को स्थापन मिलता है उसमें स्त्री की अपनी अलग सत्ता होती है। भले ही प्रायः वह आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर हो किन्तु पुरुष की स्त्री पर निर्भरता भी निर्विवाद रहती है। मसलन, यदि स्त्री घर की चौखट के भीतर रखी जाती है, विशेष रूप से वह स्त्री जो अर्थोपार्जन से जुड़ी न हो कर खांटी घरेलू स्त्री होती है तो पुरुष भी रसोईघर की चौखट लांघ कर उसमें प्रवेष नहीं करते हैं। अन्न जुटाने का दायित्व पुरुष का रहता है तो अन्न पका कर खिलाने का दायित्व स्त्री का।
व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री के रहने के ये दोनों कारण बुंदेली व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का विशिष्ट रूप सामने रखते हैं। इनमें स्त्री धैर्य , साहस और कर्म का प्रतिरूप बन कर एक ऐसी छवि प्रस्तुत करती है जिसके अभाव में समाज का सतत बने रहना कठिन है।
यहां प्रमुख नौ बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का आंकलन किया जा रहा है। यथा- भैया दूज की व्रत कथा, दसामाता की व्रत कथा, गनगौर की व्रत कथा, आसमाई की व्रत कथा, ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा, गाजबीज की व्रत कथा, करवाचौथ की व्रत कथा, वटसावित्री की व्रत कथा एवं तुलसी नवमी की व्रत कथा।
भैया दूज की व्रत कथा- फागुन के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की द्वितिया को भैया दूज मनाया जाता है। इस अवसर पर भाई बहन के परस्पर प्रेम पर आधारित व्रत कथा बांची जाती है। ‘सात बैनन को बीर’ नामक व्रत कथा में सात बहनों के इकलौते भाई के प्रति बड़ी बहन का अपने भाई के प्रति अगाध प्रेम और चिन्ता का विवरण है। बड़ी बहन इस कथा में भाई पर सात प्रकार के प्राण घातक संकट आते हैं जैसे भोजन में संाप का विष मिल जाना, सेही के कांटों से व्यवधान उत्पन्न होना, नदी मे बाढ़ आ जाना , कांटों भरे रास्ते पर से गुजरना , द्वार का गिरना, मंडप का गिरना तथा डंसने के लिए नागिन का आ जाना। बड़ी बहन इन सभी संकटों से अपने भाई की हर संभव रक्षा करती है। सहायता के लिए वह एक और स्त्री शक्ति का आह्वान करती है जिसे ‘दोज महारानी’ का नाम दिया गया है। कथा के अंत में भी इसी स्त्री शक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह ठीक उसी प्रकार सब का कल्याण करे जिस प्रकार सात बहनों के भाई की रक्षा करने में बड़ी बहन को सहायता देने का कल्यााणकारी कार्य किया-‘ पनमेसरी दोज महारानी जैसी इनकी राखी , सो सबकी राखियो’। यही कथा दीपावली के बाद मनाए जाने वाले भैया दूज में भी कही सुनी जाती है।
भैया दूज की इस कथा में स्त्री का एक रूप बहन का है जो अपने भाई के लिए सर्वस्व लुटाने को तत्पर दिखाई पड़ती है। यह स्त्री का वह रूप है जो पारिवारिक संबंधों की महत्ता को सर्वोपरि मानती है और हर सम्भव प्रयास से इन्हें बनाए रखना चाहती है। यह भारतीय स्त्री का परिवार के प्रति, अपनों के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है। इस कथा में स्त्री का दूसरा रूप दोज महारानी का है जो दूसरों की भावनाओं तथा पारिवारिक मूल्यों के प्रति अति सम्वेदनशील है और उस स्त्री के प्रति उदारमना है जो अपने पारिवारिक संबंधों की रक्षा करने के लिए तत्पर है। दोज महारानी और बड़ी बहन के परस्पर पूरक अथवा सहायक स्वरूप से वह धारणा मिथ्या दिखाई पड़ती है जिसमें स्त्री को स़्त्री का प्रतिद्वन्द्वी माना जाता है। इसमें एक स्त्री दूसरी स्त्री की सहायता करती है। यह स्त्री का वास्तविक एवं लोक हितकारी रूप है।
दसामाता की व्रत कथा- चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को दसामाता का व्रत रखा जाता है। इसे पिपरदसा व्रत भी कहते हैं क्योंकि इस अवसर पर पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है और उसी समय व्रत कथा बंाची जाती है। दसामाता की व्रत कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्र के अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्र व्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की बहू को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चौपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। चौपड़ खेलने के दौरान उस पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की। पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित ‘वीरांगना स्त्री’ नहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी ‘नियोग’द्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में ‘नियोग’ के बदले ‘पीपरदेव ’एवं ’दसामाता’ के चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खेा चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि बंुदेली स़्त्री विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप ‘दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो।
गनगौर की व्रत कथा- चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को गनगौर व्रत रखा जाता है। यह मुख्य रूप से विवाहिताओं का व्रत-त्यौहार है। इस व्रत में शिव पार्वती की पूजा की जाती है तथा गनगौर की व्रत कथा का वाचन किया जाता है। इस कथा में पार्वती द्वारा स्त्रियों को अखंड सौभाग्यवती बनाने का वर्णन है। कथा के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को शिव ओर पार्वती भ्रमण के लिए निकले। पृथ्वी पर निवास करने वाली स्त्रियों को जैसे ही इस बात की सूचना मिली वे पार्वती की पूजा की तैयारी करने लगीं। निर्धन स्त्रियों के पास पूजा करने की सामग्री कम होने के कारण वे जल्दी से तैसार हो कर पूजा करने लगीं। पार्वती ने उनकी पूजा से प्रसन्न हो कर उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का सम्पूर्ण वरदान दे डाला। तब तक धनी वर्ग की स्त्रियों ने सोने -चांदी की थाल में बहुमूल्य सामग्री सजा कर पूजा प्रारम्भ कर दी। पार्वती उनकी पूजा से भी प्रसन्न हो गईं और उन्हें अपनी उंगली में चीरा लगा कर रक्त के छींटों के द्वारा अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान दिया।
यह कथा स्त्रीशक्ति द्वारा समाज की सभी वर्गों की स्त्रियों के सुख की कामना करने का आदर्श सामने रखती है। इस कथा में स्त्री का वह समर्पित, उदारमना रूप वर्णित है जो सदा पुरुष के प्रति सहयोग भाव रखता है तथा पति के रूप में सहगामी पुरुष की सभी संकटों से (मृत्यु से भी) रक्षा की कामना करता है। भले ही पुरुष (पति) का व्यवहार उसके प्रति अमानवीय अथवा असंतुलित ही क्यों न हो।
आसमाई की व्रत कथा - आषाढ़ माह के तीसरे रविवार को आसमाई का व्रत रखा जाता है। इस व्रत मे लकड़ी के पटे पर चंदन से भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई की आकृतियां बनाई जाती हैं। इस अवसर पर जो व्रत कथा कही जाती है उसमें एक ऐसे जुआरी राजा का उल्लेख हैं जो आसमाई के सहारे अपने जीवन की दिशा बदलता है। राजा को जुए में अपना राज-पाट खेाना पड़ा और वह देश छोड़ कर जाने को विवश हुआ। जब वह वन मार्ग से जा रहा था तो उसे रास्ते में चार स्त्रियां दिखाई दीं। उसी समय राजा के पंाव में कंाटा चुभ गया जिसे निकालने के लिए वह झुका । चारो स्त्रियों ने समझा कि वह उन चारों मे से किसी को प्रणाम कर रहा है। उन्होने राजा से पूछा कि वह किसे प्रणाम कर रहा है। निराशा के सागर में गोते लगा रहा राजा बोल उठा कि वह आसमाई (आशा) के सहारे जी रहा है और आसमाई को ही प्रणाम कर रहा है। वे चारो औरतें वस्तुतः भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई थीं। आसमाई राजा की बात सुन कर प्रसन्न हो गई ओैर उसने विजय दिलाने वाली कौड़ियां राजा को दीं। उन कौड़ियों की सहायता से राजा ने एक बार फिर जुआ खेला और अपना राज-पाट वापस प्राप्त कर लिया।
इस कथा में स्त्री के दैवीय रूपों को सामने रखा गया है। यदि इन्हीं रूपों को लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आशावादी स्त्री पुरुष के जीवन को सही दिशा दे सकती है। वह पुरुष के अवगुण को गुणों में परिवर्तित कर सकती है। यही आसमाई का मूल चरित्र है।
ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को हरछठ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत पुत्र की मंगलकामना के लिए रखा जाता है। इस अवसर पर छः कथाएं कहीं जाती हैं, जिनमें मालन की व्रत कथा प्रमुख है। कथा के अनुसार एक ग्वालिन अपने नवजात पुत्र को पलाश की छाया में लिटा कर दूध-दही बेचने चली जाया करती थी। एक दिन जब वह पुत्र को छोड़ कर गई उसी समय एक किसान अपने हल -बैल सहित उधर से निकला। बैलों के विचलित हो जाने से हल की नोंक पुत्र के पेट में घुस गया। किसान ने उसके पेट को कांस (एक प्रकार की लम्बी घास) से सिल दिया। जब ग्वालन लैाटी तो वह अपने पुत्र की दशा देख कर रोने लगी। उसे लगा कि यह उसके द्वारा दूध में मिलावट करने का कुपरिणाम है। वह रोती हुई गांव की स्त्रियों के पास गई और उन्हें सच्चाई बता कर उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगी । गांव की स्त्रियांे ने उसे क्षमा करते हुए उसके पुत्र को आशीष दिया जिससे उसका पुत्र स्वस्थ हो गया।
इस कथा में मात्त्व के दो रूपों को उनकी अच्छाइयो और बुराइयों के साथ प्रस्तुत किया गया है। यदि स्त्री नवजात शिशु के प्रति लापरवाही बरते तो उसे अपने शिशु से वंचित भी होना पड़ सकता है किन्तु दूसरे रूप में वही स्त्री अपने शिशु की जीवन रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है। इस कथा में एक अखरने वाला तथ्य भी है कि शिशु के लालन-पालन एवं जीवन रक्षा का सम्पूर्ण दायित्व स्त्री का ही माना गया है। वहीं पिता रूपी पुरुष का दायित्व निभाने वाले के रूप में उल्लेख नहीं है।
गाजबीज की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि को गाजबीज का व्रत रखा जाता है। जिसमें गाजबीज की व्र्र्रत कथा कही जाती है। इस कथा के अनुसार एक राजा था जो शिकार खेलने जाने वाला था । उसने अपनी रानी से कहा कि रास्ते के लिए रोटियां सेंक कर रख दो। रानी आलसी स्वभाव की थी । उसने स्वयं रोटियां बनाने के बदले दासी को रोटियां बनाने का आदेश दिया । दासी ने रोटियां बना कर राजा को दे दीं। राजा शिकार खेलने निकल पड़ा। जंगल पहुंचने पर घनघेार वर्षा होने लगी। राजा को सिर ढ़कने के लिए वही पोटली हाथ लगी जिसमें रोटियां बंधी थीं। अचानक राजा के ऊपर गाज गिरी। किन्तु सिर पर रखी रोटियों के कारण वह बच गया। वापस महल आने पर राजा ने रानी से पूछा कि तुम्हारी बनाई रोटियों में तुम्हारा कौन सा पुण्य था जिसने गाज गिरने पर मेरी जान बचाई। रानी उत्तर न दे सकी क्योंकि रोटियां तो दासी ने बनाई थी। इस पर राजा ने वही प्रश्न दासी से किया। दासी ने राजा से कहा कि ‘मुझे अपने पुण्य के बारे में तो नहीं पता किन्तु मुझे जो एक किलो चना अन्न के रूप में दिया जाता है उससे अपने लिए रोटियां बनाती हूं। उन रोटियों में से एक रोटी या तो कन्या को या गाय को देती हूं।’
दासी की बात सुन कर राजा समझ गया कि अपने सीमित साधन के बावजूद दासी कन्या और पशुओ के प्रति दयाभाव रखती है। यही उसका पुण्य है जिसने उसके हाथों बनाई हुई रोटियों के माध्यम से राजा के प्राणों की रक्षा की। राजा दासी पर प्रसन्न हुआ और उसे अपनी रानी बना लिया तथा रानी को दासी बना दिया।
भारतीय समाज के वर्तमान परिवेश में कन्या भ्रूण की हत्या किए जाने के परिणामस्वरूप स्त्रियों और पुरुषों के अनुपात में चिन्ताजनक असंतुलन आता जा रहा है। ऐसी स्थिति में गाजबीज की यह व्रत कथा स्त्री के उस स्वरूप को स्थापित करने में सक्षम है जो अपनी दृढ़ता के द्वारा कन्याभ्रूण की रक्षा कर सकती हैं। वह स्त्री जाति पर छा रहे संकट को दूर कर सकती है। यदि वह दृढ़ हो जाए तो परिवार, समाज में पुत्री को जन्म लेने दिया जाएगा, बोझ नहीं समझा जाएगा तथा स्त्री-पुरुष का आनुपातिक संतुलन बना रहेगा। यह कथा स्त्री से उसकी दृढ़ता का आग्रह करती है साथ ही दृढ़ न रहने अथवा स्थिति को अनदेखा करने पर होने वाली हानि की ओर भी संकेत करती है।
करवा चौथ की व्रत कथा - कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत विवाहिताओं के लिए निर्धारित है। इस अवसर पर करवा चौथ की व्रत कथा बंाची जाती है। एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी। बेटी विवाहिता थी और उन दिनों अपने मायके में थी। करवा चौथ के दिन अपने पति की दीर्घायु के लिए उसने व्रत रखा। भाइयों से अपनी बहन का इस प्रकार भूखे रहना देखा नहीं गया और उन्हेंने अपनी बहन को नकली चन्द्रमा दिखा कर व्रत समाप्त करा दिया। बहन ने अभी भोजन आरम्भ ही किया था कि तीसरे कौर में ही ससुराल में उसके पति के बहुत बीमार होने का संदेश आ गया। बेटी उसी क्षण ससुराल के लिए निकल पड़ी। ससुराल पहुच कर उसने साल भर पति की सेवा की और अगले करवा चौथ पर चौथ माता से पिछला व्रत खंडित होने की क्षमा मांगी एवं निर्जला व्रत रखा। इस पर प्रसन्न हो कर चौथ माता ने उसके पति को पूर्ण स्वस्थ कर दिया।
करवा चौथ का व्रत बुन्देलखण्ड सहित लगभग देश की सभी हिन्दू विवाहिताओं द्वारा रखा जाता है। यह कथा अपने पति के लिए स्त्री के त्याग -बलिदान का विचित्र आदर्श सामने रखती है। क्या पत्नी के भूखे-प्यासे रहने से पति दीर्घायु स्वस्थ हो सकता है ? यह कथा विवाहिता के मन में यह अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा अज्ञानवश व्रत के खंडित होने से पति के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं। अतः मूल रूप से यह व्रत कथा स्त्री को अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेड़ियों में जकड़ने को प्रेरित करती है। यदि इस कथा में पति के अहित का भय न दिखाया गया होता तो यह कथा आस्था तथा समर्पण तक सीमित रहती और तब स्त्री के संवेदनशील स्वभाव के निकट रहती।
वटसावित्री की व्रत कथा - वटसावित्री का व्रत जेठ मास की अमावस्या को रखा जाता है। इस अवसर पर बंाची जाने वाली कथा बहुप्रचलित सावित्री-सत्यवान की कथा है। इस कथा में सावित्री के पति सत्यवान की मृत्यु हो जाती है तब सावित्री अपने पति की आत्मा के साथ-साथ यमदूत के पीछे चलती हुई यमराज के पास जा पहुचती है। वह यमराज से अपने पति को पुनर्जीवित करने की विनती करती है किन्तु यमराज ऐसा करने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। इस पर सावित्री उनसे सौ संतानों को जन्म देने का वर मांगती है। यमराज उसे वर दे देते हैं। तब सावित्री उनसे कहती है कि जब तक आप मेरे पति सत्यवान को पुनर्जीवित नहीं करेंगे तब तक आपका वरदान फलीभूत नहीं हो सकेगा क्योंकि मैं किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करूंगी। अतः यमराज को सत्यवान को जीवनदान देना पड़ता है। इस प्रकार सावित्री यमराज के घर से भी अपने मृत पति को को जीवित करा लाती है।
इस कथा को पति के प्रति पत्नी के समर्पण के रूप में लिया जाता है किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। यह है स्त्री की दृढ़ इच्छाशक्ति। स्त्री जब कोई काम करने की ठान लेती है तो वह उसे पूरा कर के ही रहती है, भले ही उसे किसी भी सीमा तक जोखिम उठाना पड़े। सावित्री को इस बात का भय नहीं था कि पति के साथ रहने की ज़िद करने पर यमराज उसे भी मार सकते थे। अपितु उसके भीतर इस बात का विश्वास था िकवह सत्यवान को पुनर्जीवित करा कर रहेगी। यह प्रिय के प्रति प्रेम के साथ-साथ स्त्री की अदम्य इच्छाशक्ति और साहस की कथा है।
तुलसी नवमी की व्रत कथा - यह व्रत कार्तिक शुक्ल की नवमी तिथि को रखा जाता है। इस अवसर पर जो कथा बांची जाती है वह इस प्रकार है कि- एक निःसंतान बुढ़िया प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा-अर्चना किया करती थी। एक दिन पूजा के दौरान उसके अंगूठे में एक फफोला हो गया। वह फफोला नौ माह तक रहा। ठीक नौ माह बाद उस फफोले से एक मेंढक ने जन्म लिया। बालक को पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई। वह अपने पुत्र के रूप में उस मेंढक का लालन-पालन करने लगी। कुछ समय बाद उस राज्य की राजकुमारी का स्वयंवर रचा गया। मेंढक भी उस स्वयंवर में पहुंच गया। स्वयंवर प्रारम्भ होने पर राजकुमारी ने वहंा उपस्थित राजकुमारों को छोड़ कर उस मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारों में खलबली मच गई। उन्होंने राजा से कहा कि राजकुमारी घबराहट के कारण ऐसा कर बैठी होगी अतः एक बार फिर राजकुमारी से माला डलवाई जाए। राजकुमारी को उन राजकुमारों में कोई भला नहीं लग रहा था अतः उसने पुनः मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारी का निर्णय सभी को स्वीकार करना पड़ा। राजकुमारी अपने मेंढक पति के साथ बुढ़िया के घर आ गई। राजकुमारी को बहू के रूप में पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई किन्तु उसे इस बात का दुख भी था कि उसका पुत्र मेंढक था, मनुष्य नहीं। राजकुमारी ने बुढ़िया को ढाढस बंधाया और मेंढक के साथ रहने लगी। राजकुमारी ने पाया कि वह मेंढक रात्रि को मेंढक की खोल उतार कर सुंदर युवक में बदल जाता है और सुबह होते ही पुनः मेंढक बन जाता है। एक रात राजकुमारी ने अवसर पा कर मेंढक की खोल जला दी। अब युवक सदा के लिए मनुष्य के रूप में रह गया। बुढ़िया को जब इस बात का पता चला तो वह भी युवक को अपने पुत्र के रूप में पा कर अत्यंत प्रसन्न हुई। राजा को पता चला तो वह भी खुश हो गया और उसने अपने दामाद को अपना राज-पाट सौंप दिया।
यह कथा स्त्री के आस्था, ममत्व और अधिकार की कथा है। इसमें बुढ़िया के रूप में स्त्री की आस्था और ममत्व का वर्णन है। स्त्री जिसके प्रति आस्था रखती है, उससे कोई शिक़ायत नहीं करती है। बुढ़िया को तुलसी के प्रति आस्था थी तो उसने पुत्र के रूप में मेंढक मिलने पर भी तुलसी से शिक़ायत नहीं की। स्त्री ममत्व की पर्याय इसीलिए मानी गई है कि भले ही उसकी संतान बदसूरत, दुर्गुणों से युक्त हो फिर भी उसे अत्यंत प्रिय होती है। जैसी कि कहावत भी है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। बुढ़िया इसी सघन मातृत्व का उदाहरण है। स्त्री के अधिकारों एवं उसकी स्वतंत्रता राजकुमारी द्वारा मेंढक को पति के रूप में चुने जाने से स्पष्ट है। वह सामाजिक स्वरूप कितना उत्कृष्ट है जिसमें स्त्री को अपना जीवनसाथी चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। यदि कोई स्त्री अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनती है तो वह अन्य लोगों की दृष्टि में भले ही अनुपयुक्त हो किन्तु उस स्त्री के लिए सर्वोपयुक्त सिद्ध होता है तथा आगे चल कर समाज भी इसे मानने को विवश होता है। इस प्रकार यह कहानी स्त्री स्वातंत्र्य का संुदर उदाहरण सामने रखती है।
तथ्य - भारतीय समाज में स्त्री का स्थान शेष दुनिया की भांति दोयम दर्जे का तो है ही किन्तु पारिवारिक संबंधों के आधार पर वह तृतीय और चतुर्थ स्थान पर भी खड़ी दिखाई देती है। अधिकांश धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं और परम्पराएं स्त्रियों के कारण जीवित हैं। स्त्री अपने पति की लम्बी आयु के लिए ‘करवां चौथ’ का व्रत रखती है, पुत्र के लिए ‘छठ’ की श्रमसाध्य पूजा करती है और स्त्री के ये दोनों रूप महिमामंडित हो कर सामने आते हैं। परिवार में स्त्री अपने दायित्व का पालन करती हुई परिवार के सभी सदस्यों के भेजन कर लेने के बाद भोजन करती है जिसमें कई बार उसे आधापेट भोजन करके रह जाना पड़ता है। यदि घर में अनाज के दो दाने हैं तो वे घर के पुरुष के हिस्से में जाते हैं, स्त्री के नहीं।
उपर्युक्त बुन्देली व्रत कथाओं में स्त्री की सहज प्रकृति को वर्णित किया गया है। इन कथाओं में उसके सम्पूर्ण गुण ही नहीं अवगुण है क्योंकि स्त्री मनुष्य है और मनुष्य में गुण तथा अवगुण दोनों होते हैं। पुरुषवादी समाज में स्त्री से उनके उन गुणों की अपेक्षा की जाती है जिसमें वह पुरुष के प्रति समर्पित, स्वविवेक को भूल कर आज्ञा माननेवाली, स्वनिर्णय क्षमता रहित तथा पूर्णतया पुरुष पर निर्भर रहे। जबकि उदाहरण के लिए चुनी गई इन नौ व्रत कथाओं में स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम, समर्पण तथा निष्ठा तो है किन्तु साथ ही यह स्त्री इच्छित पति चुन सकती है, यमराज अर्थात् सबसे निष्ठुर व्यक्ति से भी लड़ कर जीत सकती है, उसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की क्षमता है, वह स्त्रीजाति के अस्तित्व के प्रति सजग है। अर्थात् इन कथाओं की स्त्री एक पूर्ण मनुष्य की भांति पूर्ण स्त्री है। मात्र करवाचौथ की व्रत कथा एक ऐसी व्रत कथा है जिसमें स्त्री का वह दलित रूप वर्णित किया गया है जो अपने पति रूपी पुरुष के लिए आत्मपीड़न का रास्ता चुनने का आदर्श प्रस्तुत करती है। प्रेम और सहजीवी होने के नाते पति की सेवा का आदर्श ग्राह्य हो सकता है किन्तु भूखे-प्यासे रहने वाला व्रत भाइयों के बहन के प्रति प्रेम के कारण टूट जाने से पति को हानि पहुंचने वाला तर्क मानसिक दबाव बनाने वाली एवं पाखण्डयुक्त कथा है। आश्चर्य तो तब होता है जब इस प्रकार की कथा को पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी भावविभोर हो कर सुनती हैं तथा अपने स्वास्थ्य की अवहेलना कर के भूखी-प्यासी रह कर करवाचौथ का व्रत करती हैं, महज यह जताने को कि वे अपने पति की दीर्घायु की कामना कर रही हैं। जो स्त्रियां इस व्रत को नहीं करती हैं क्या वे अपने पति की दीर्घायु की कामना नहीं करती हैं?
मैत्रेयी पुष्पा की यह बात समीचीन लगती है कि ‘देश जब आजाद हुआ तो वह पूरी तरह आजाद नहीं थी, क्योंकि उससे स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। हांलाकि स्वतंत्रता आंदोलनों के दौरान पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जैसी मुहिमें भी चलीं, लेकिन जिस तरह के नतीजे आने चाहिए थे, वे नहीं आए। इसका नतीजा तो हम अब तक जारी पर्दा प्रथा, दहेज हत्या और इक्का-दुक्का सती हत्या के रूप में देख ही रहे हैं। इन संदर्भों में देखा जाए तो स्त्रियों को कई स्तरों पर आजाद होने की जरूरत है।’(चर्चा हमारा,पृष्ठ 75)
बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री के अधिकारिणी एवं दलित दोनों रूपों का मिलना भारत के सामाजिक विकास में स्त्री की भूमिका के सतत् क्षरण का परिणाम कहा जा सकता है। इसे परखने के लिए निम्नांकित बिन्दुओं का अवलोकन किया जाना चाहिए-
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ वैदिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों का समाज में बहुत आदर था। परिवार में भी स्त्रियों को उचित स्थान दिया जाता था। स्त्रियों के विचारों का भी सम्मान किया जाता था। वे सभी सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में अपने पति के साथ सम्मिलित होती थीं। विदुषी स्त्रियां पुरुषों के साथ शास्त्रर्थ करती थीं तथा उन्हें समाज में श्रेष्ठ समझा जाता था। विदुषी स्त्रियां अविवाहित रहती हुई अध्ययन तथा अध्यापन कार्य करने को स्वतंत्र रहती थीं।
ऽ संयुक्तनिकाय के अनुसार-‘ अवगुण भरे पुत्र की अपेक्षा गुणवती पुत्री आधिक श्रेष्ठ है।’
ऽ किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भांति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।
ऽ वैदिक युग में स्त्रियों को धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित होने का अधिकार था। ऋग्वेद में देवताओं से जो प्रार्थना की गई हैं वे पति-पत्नी दोनों की ओर से हैं। पति की अनुपस्थिति में पत्नी अकेली धार्मिक कृत्य करती थी। ऋग्वेद के अनुसार पत्नी को यज्ञ करने और अग्नि में आहुतियां देने का अधिकार था। पति-पत्नी दोनों गार्हपत्य अग्नि की रखवाली करते थे। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था। वे वैदिक ग्रंथों का पठन-पाठन कर सकती थीं।
ऽ ब्राह्मण ग्रंथों के काल में स्त्रियों के धार्मिक अधिकारों में अन्तर आ गया। इस काल में धार्मिक क्रियाओं में जटिलता आ गई थी अतः धार्मिक क्रियाओं पर पुरुषों का वर्चस्व बढ़ गया। फिर भी कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना पति नहीं कर सकता था। पत्नी की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। धीरे-धीरे पत्नियों के स्थान पर पुरोहितों के द्वारा धार्मिक कार्य किए जाने लगे। पत्नी का कुछ धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित होना अनिवार्य नहीं समझा जाने लगा। फिर भी कुछ यज्ञ ऐसे थे जो पत्नी की उपस्थिति के बिना नहीं कराए जा सकते थे जैसे -अश्वमेध, वाजपेय तथा राजसूय यज्ञों में पत्नी का सम्मिलित होना अनिवार्य था। शतपथ ब्राह्मण से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों को वैदिक ग्रंथ पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार था। यज्ञ करने के पूर्व उनका उपनयन संस्कार किया जाता था। तैत्तरीय ब्राह्मण में भी एक धार्मिक क्रिया का उल्लेख है जिसको करने के बाद स्त्री वैदिक ग्रंथों का पाठ और यज्ञ कर सकती थी।
ऽ सूत्रकाल में भी स्त्रियों को धार्मिक कृत्य करने का अधिकार थे। पत्नी को अकेले ही सीता यज्ञ, रुद्र बलि, और रुद्रयाग करने का अधिकार था। यह प्रथा सातवाहन काल तक प्रचलित रही। सातकर्णी प्रथम की पत्नी नागनिका ने अनेक वैदिक यज्ञ किए थे। स्त्रियों को वैदिक मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार नहीं रहा। सूत्रकाल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया था। उन्हें प्रातःकालीन तथा संध्याकालीन आहुतियां देने और संध्या करने का अधिकार था। रामायण में सीता के संध्या करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रियों का उपनयन संस्कार नहीं होना चाहिए। धार्मिक कार्य करने स्त्रियों के अधिकारों में तेजी से कमी आ गई।
ऽ गुप्त काल में स्त्रियों को धार्मिक क्रियाएं करने के अवसर एक बार फिर गए किन्तु इन कार्यों का स्वरूप पहले से भिन्न था। स्त्रियों के लिए उपवास, व्रत, दान, पूजा, तीर्थयात्रा आदि का विधान किया गया। इनमें वैदिक मंत्रों के उच्चारण की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । इन्हीं उपवास, व्रत पूजा आदि ऐसी कथाओं का समावेश किया गया जो मात्र स्त्रियों को पति एवं परिवार की सेवा की शिक्षा देती थीं। इन्हीं कथाओं का प्रचलन लोक व्रत कथाओं के रूप में वाचिक उपयोग होता रहा जो वर्तमान में वाचिक एवं मुद्रित रूप में प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड में पढ़ी, सुनी जाने वाली लोक व्रत कथाओं का भी यही स्वरूप है।
वस्तुतः इन व्रत कथाओं में से उन तथ्यों को चुन लिया जाता है जो सामाज की बहुप्रचलित धारणाओं के अनुरूप हैं और उन तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है जिनमें स्त्री अपने अधिकारों से युक्त आत्मनिर्भर मनुष्य के रूप में है। अतः दोषी ये कथाएं नहीं, न ही ये पुरातनपंथी है, यदि कहीं गड़बड़ है तो वह सामाजिक सोच हैं। इसीलिए उस कथा का अनुकरण तो किया जाता है जिसमें चांद को चलनी से देख कर ही अन्न-जल ग्रहण करते हैं (उसी चांद को देख कर जिस पर मनुष्य बस्तियां बसाने की तैयारी कर रहा है और प्लाटिंग कर चुका है)। वहीं उस कथा का अनुकरण नहीं किया जाता है, सिर्फ़ बंाचा जाता है, जिसमें स्त्री को पति के रूप में मेंढक को चुनने और अपनाने का अधिकार है। आमतौर पर यह अधिकार उन्हें सचमुच दिया नहीं जाता है।
-------------------
संदर्भ:
1. ऋग्वेद, सं श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा 1960 ।
2. अथर्ववेद, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, 1960 ।
3. आदि पुराण, जिनसेन कृत, सं. पन्नालाल, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रंथ माला, संस्कृत ग्रंथ संख्या-8, वाराणसी, 1963 ।
4. ऐतरेय ब्राह्मण, आनंद आश्रम, संस्कृत सिरीज, पूना, 1956 ।
5. रामायण, वाल्मीकि, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत् 2017 ।
6. महाभारत, भंडारकर, ओरियन्टल रिसर्च इंसटीट्यूट, पूना 1927-66
7. पिछले पन्ने की औरतें, उपन्यास - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2005, 2007, 2009 ।
8. पत्तों में क़ैद औरतें, स्त्री विमर्श - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010।
9. प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास - डॉ. शरद सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, संस्करण-2008।
10. भारत के आदिवासी क्षेत्रें की लोककथाएं - डॉ. शरद सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली, ंसंस्करण-2009 ।
11. चर्चा हमारा, स्त्री विमर्श- मैत्रेयी पुष्पा, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010 ।
12. दशामाता व्रत कथा, लक्ष्मी प्रकाशन, बल्ली मारान, दिल्ली, संस्करण-2001 ।
13. चतुर्मास व्रत कथा, धार्मिक पुस्तक भंडार रानी महल, झांसी ।
14. नगरीय एवं ग्रामीण अंचलों के वाचिक स्रोत।
सचमुच, स्त्रियों को नई सोच की ज़रूरत है।
जवाब देंहटाएं