कहानी
तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनी, रूपाली?
- डॅा.(सुश्री) शरद सिंह
‘‘तुमने आज का अख़बार पढ़ा?’’ सुलभा ने हांफते हुए मुझसे पूछा।
वह अपने दाएं हाथ से अख़बार लहराती दौड़ी चली आ रही थी। आवेग के कारण उसके शब्द लड़खड़ा रहे थे।
‘‘शांत हो जाओ! रिलेक्स! बैठ जाओ। पानी लाती हूं तुम्हारे लिए।’’ कहती हुई मैंने उसे हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए सोफे पर बिठाया। वह बैठी भी तो इस मुद्रा में मानो सोफे में स्प्रिंग लगी हो और वह अभी उछल पड़ेगी। मैंने मेज पर रखे जग से गिलास में पानी ढाला और गिलास उसे पकड़ा दिया।
वह गट्गट् कर के एक सांस में पूरा गिलास खाली कर गई। अपने दुपट्टे के छोर से अपना मुंह पोंछते हुए अख़बार मेरी आंखों के आगे लहरा दिया। मेरा ध्यान गया कि अभी तक अख़बार उसके दाएं हाथ की उंगलियों में ही फंसा हुआ था।
‘‘तुमने पढ़ा?’’ सुलभा ने एक बार फिर मुझसे प्रश्न किया।
‘‘हां, पढ़ा। विश्वास करना कठिन है।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, यार देखो, जलन होती थी उससे कि उसे कितना अच्छा गुड लुकिंग, हैंडसम पति मिला है। श्रेयांश के पापा से लाख गुना चार्मिंग।’’ सुलभा ने अपना दिल खोल दिया।
‘‘क्या कह रही हो!’’ मैंने टोंका।
‘‘अब तुमसे क्या छिपाना? मैंने तो उससे एक बार मज़ाक में कह भी दिया था कि यदि हसबैंड की एक्सचेंज आॅफर की कोई स्कीम होती तो मैं तुम्हारे हस्बैंड से अपना वाला एक्सचेंज कर लेती। और जानती हो उसने तब क्या जवाब दिया था?’’ सुलभा ने मुझे पूछा।
‘‘उसने फटकार लगाई होगी तुम्हें।’’ मैंने फीकी-सी हंसी हंसते हुए कहा।
‘‘नहीं उसने कहा था- मैं भी!’’ सुलभा ने बताया। उसकी बात सुन कर मैं चौंक गई।
‘‘चल क्या रहा था उसके साथ? तुम्हारी बात तो समझ में आती है कि तुम कुछ भी कह डालती हो लेकिन वो क्यों राजी थी अपना हस्बैंड बदलने को? क्या उस समय से ही कुछ गलत चल रहा था?’’ मैंने कहा।
‘‘हां यार, ये तो मैंने सोचा ही नहीं। क्योंकि उस समय भी बात आई-गई हो गई थी। ऐसा कुछ होने वाला था भी नहीं। वह तो बस यूं ही कह दिया था मैंने। हंा, इससे मैं इंनकार नहीं करूंगी कि उसके हस्बैंड पर मुझे उस समय से ही क्रश था जब मैंने सगाई के समय उसे पहली बार देखा था। उस समय तो श्रेयांश भी नहीं हुआ था और श्रेयांश के पापा भी उतने फैटी नहीं थे जितने कि अब हो गए हैं। मैं तो कहती हूं कि सुबह उठ कर एक्सरसाईज़ किया करें, जिम जाएं, मगर वे हैं कि मेरी एक नहीं सुनते। जबकि उसके हस्बैंड को देखो अभी भी स्मार्ट है, डैशिंग है।’’ सुलभा आदतन बहकती हुई बोली।
‘‘ऐसी स्मार्टनेस भी किस काम की सुल्लू, जो किसी की जान ले ले। मुझे तो इतनी घृणा हो रही है उससे, कि अगर अभी वह मेरे सामने आ जाए तो मैं मार-मार के उसकी चमड़ी उधेड़ दूं। आखिर कोई कैसे इतना नृशंस हो सकता है?’’ मैं अपने घृणा के भावों को छिपा नहीं पा रही थी। वैसे छिपाना भी नहीं चाहती थी। मैं इतनी महान या साधु प्रवृत्ति की नहीं हूं कि पाप से घृणा करूं और पापी से नहीं। मुझे दोनों से बराबर की घृणा होती है।
‘‘हां, आज तो मुझे भी उसके हस्बैंड से घृणा हो रही है। बल्कि मेरी तांे यह सोच कर रूह कांप रही है कि मेरा एक डिमोन, एक नरपिशाच पर क्रश था। मुझे तो यह सोच कर भी झुरझुरी हो रही है कि यदि वो मेरा हस्बैंड होता तो....।’’ सुलभा की आगे की बात उसकी हलक में अटक कर रह गई।
किसी भी औरत के लिए यह भयानक दुःस्वप्न हो सकता है कि उसका पति एक नृशंस हत्यारा निकले।
‘‘यार कोई किसी पर इतना शक़ कैसे कर सकता है?’’ सुलभा बोली। उसका स्वर अभी भी स्थिर नहीं हुआ था।
‘‘शक़ की कोई सीमा नहीं होती है सुल्लू! वह तो अमरबेल की तरह होती है। जिस रिश्ते पर चढ़ी, उसका सारा रस चूस कर उसे मार डालती है। क्या तुम्हें डेसडिमोना याद नहीं है? काॅलेज में तो तुम ओथेलो और इयागो पर कितना गुस्सा करती थीं। मानो वे दोनों शेक्सपीयर के नाटक के पात्र न हो, बल्कि जीते-जागते वास्तविक व्यक्ति हो। वह भी तो पत्नी के चरित्र पर संदेह की ही कहानी थी। क्या हुआ था अंत उस कहानी का, याद है न?’’ मैंने सुलभा से पूछा।
‘‘हां याद है! मगर तब मैं सोचती थी कि यह योरोप में ही संभव है, हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं हो सकता है।’’ सुलभा ने निराशा भरे स्वर में कहा। फिर विचित्र ढंग से मेरी ओर देखती हुई पूछ बैठी,‘‘यदि किसी दिन श्रेयांस के पापा को मुझे पर शक़ हो गया तो?’’
‘‘क्या बकवास कर रही हो! अव्वल तो श्रेयांस के पापा ऐसे हैं नहीं और फिर सुल्लू, हर मर्द एक जैसा नहीं होता है। वो तो कितनी केयर करते हैं तुम्हारी! उल्टे तुम्हीं कभी-कभी उन्हें डांट दिया करती हो। और फिर तुम्हारा किसी और से तो अफेयर भी नहीं है, तो फिर डर क्यों रही हो?’’ मैंने सुलभा को प्यार से समझाया।
‘‘फिर भी! शक़ होने के लिए किसी से अफेयर होना जरूरी तो नहीं है!’’ सुलभा ने बड़े मार्के की बात बोली।
‘‘सही कहती हो, सुल्लू! यदि कभी तुम्हारी ज़िन्दगी में ऐसा समय आए तो तुम अपने हस्बैंड से दो-टूक बात करना। यदि फिर भी उसे तुम पर विश्वास न हो तो तत्काल उसे छोड़ देना। यदि उसने भी समय रहते निर्णय लिया होता तो उस दरिंदे को यह मौका नहीं मिलता।’’ मैंने सुलभा को समझाया।
‘‘क्या ये सब कुछ इतना आसान होगा?’’ सुलभा के स्वर में हिचक थी।
‘‘या तो आसान बनाओ या फिर दरिंदे के हत्थे चढ़ जाओ!’’ मैंने सुलभा से कहा।
‘‘नहीं! यह कैसे माना जा सकता है कि हर कोई इस हद तक जा सकता है?’’ सुलभा डर भी रही थी और मानने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी।
‘‘यह भी कैसे मान लिया जाए कि कोई इस हद तक नहीं जाएगा? ऐसे एक्सपेरीमेंट से क्या लाभ जिसका रिजल्ट अपनी जान दे कर पता चले।’’ मैंने सुलभा से कहा।
संशय और घबराहट सुलभा के चेहरे से टपक रही थी। वह स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रही थी। यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, क्योंकि आज अख़बार में जिसकी ख़बर छपी है वह हमारी सगी सहेली थी। हम काॅलेज में साथ-साथ घूमा करती थीं। हमारी तिकड़ी मशहूर थी। फिर समय के साथ जीवन में परिवर्तन आते गए। सुलभा का विवाह हों गया। मुझे एकाकी जीवन मिला और वह यानी रूपाली को तनिक देर से लेकिन सुलभा के शब्दों में ‘‘गुड लुकिंग और डेशिंग’’ हस्बैंड मिला। मैं और सुलभा इसी शहर में रहती रहीं, लेकिन रूपाली का हस्बैंड एक मुंबई में एक मल्टी नेशनल कंपनी में सीईओ था। अतः उसे मुंबई में बसना पड़ा। शादी के बाद वह यहां एक-दो बार ही आई। जब आई भी तो इतने कम समय के लिए कि रिश्तेदारों में ही घूमते हुए उसका समय निकल गया, हम दोनों से संक्षिप्त भेंट हुई। हां, शुरू-शुरू में फोन पर हमारी बात होती रही, फिर वह भी धीरे-धीरे कम हो गई। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। हर कोई अपनी जिन्दगी में रम जाता है। हमें क्या पता था कि उसकी ज़िन्दगी जो ऊपर से शांत और ‘कूल’ दिखाई पड़ रही है, उसके भीतर ज्वालामुखी का लावा धधक रहा है। उस लावे के छींटों से रूपाली हर दिन तिल-तिल कर जल रही थी, पर ‘उफ!’ भी नहीं कर रही थी। ऐसा क्यों किया रूपाली ने? हम दोनों में से किसी से भी साझा करती अपने दर्द को, हम कोई न कोई रास्ता निकाल लेते। उसे यूं अकेली नहीं छोड़ते।
‘‘क्या सोच रही हो?’’ सुलभा ने मुझे टोंका।
‘‘कुछ नहीं! बस, संस्कृत की एक कहानी याद आ गई जो कभी ‘कथासरित्सागर’ में पढ़ी थी। तुम कह रही हो न कि हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं हो सकता था। तो सुनो, तुम्हें वह कहानी सुनाती हूं। मुक्तकेशी की कहानी है यह।’’ मैंले सुलभा से कहा।
‘‘हां, यार! सुना ही दो, कुछ ध्यान तो बंटे। बार-बार उसका चेहरा आंखों के आगे आ जाता है। घबराहट होने लगती है।’’ सुलभा अपने शरीर को ढीला छोड़ती हुई सोफे पर अधलेटी हो गई।
‘‘सुनो, पुराने समय की बात है काशी में एक सुंदर युवती थी जिसका नाम था मुक्तकेशी। वह सुंदर ही नहीं अपितु सुशील और आज्ञाकारी भी थी। उसके घने लंबे बाल अत्यंत सुंदर थे जिन्हें वह सादा खोल कर रखती थी, इसीलिए उसका नाम मुक्तकेशी पड़ गया था। उसके बचपन का नामकरण वाला नाम सभी भूल चुके थे। वह मुक्तकेशी ही कहलाती थी। उसके पिता ने सोचा कि अपनी पुत्री के लिए ऐसा वर चुनूं जो देखने में तो अच्छा हो ही साथ में सीधा हो और मेरी बेटी का पूरा ध्यान रखे। हर पिता यही आकांक्षा रखता है। पिता ने कौशांबी नरेश की राजसभा में काम करने वाले वज्रसार को अपनी बेटी मुक्तकेशी के लिए वर के रूप में चुना। मुक्तकेशी को जब पता चला तो वह भी अपने भावी जीवन के सुखद स्वप्न बुनने लगी। दोनों की कुंडलियां मिलवाई गईं। गुणों का मिलान सटीक बैठा। शुभमुहूर्त पर व्रज़सार और मुक्तकेशी का विवाह हो गया। मुक्तकेशी अपने पति के घर कौशांबी आ गई। यूं तो वह अपने पति के मित्रों के सामने नहीं निकलती थी किन्तु एकाध बार ऐसा अवसर आया कि उसे सामने आना पड़ा। कुछ मित्र ऐसे थे जो मुक्तकेशी को देखते ही वज्रसार के प्रति ईष्र्या से भर उठे। उन्हें लगा कि वज्रसार को इतनी सुंदर पत्नी नहीं मिलनी चाहिए थी।
वज्रसार के तथाकथित मित्र उसे उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाने लगे। उनका कहना था किे यदि पत्नी सुंदर हो सके उसे कभी कहीं अकेली नहीं जाने देना चाहिए। कोई भी उसकी सुंदरता की प्रशंसा कर के उसे मूर्ख बना सकता है। कभी वे ये कहते कि कुछ सुंदर स्त्रियां बहुत चतुर होती हैं। ऊपर से भोली होने का नाटक करती है जबकि भीतर से वे छल-कपट और कामवासना से भरी होती हैं। यानी कुल मिला कर वज्रसार के मित्र उसके मन में मुक्तकेशी के विरुद्ध संदेह के बीज रोपते रहते थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन कोई न कोई बीज अंकुरित अवश्य होगा और वज्रसार एक मूर्ख की भांति अपने ही हाथों अपनी गृहस्थी को आग लगा देगा।
वज्रसार धीरे-धीरे शंकालु होता जा रहा था। वह मुक्तकेशी को कहीं अकेली नहीं जाने देता था। मुक्तकेशी अपने पति के इस व्यवहार से यही समझती थी कि उसका पति उसे बहुत प्रेम करता है इसलिए उसे पल भर को भी कहीं अकेली नहीं जाने देना चाहता है। वह अपनी इस सोच पर प्रसन्न होती और इतराने लगती।
कुछ समय बाद मुक्तकेशी के पिता और भाई किसी काम से कौशांबी आए। उन्होंने वज्रसार से कहा कि विवाह के बाद मुक्तकेशी अपने मायके नहीं आई है, वहां सभी उससे मिलने को आतुर हैं अतः कुछ दिन के लिए वह मुक्तकेशी को उन लोगों के साथ मायके जाने दे। वज्रसार अपने श्वसुर और साले को मना तो कर नहीं सकता था, अतः उसने उनसे यह कहा कि ‘‘मुक्तकेशी के बिना यहां काम नहीं चल सकेगा अतः वह स्वयं मुक्तकेशी के साथ चलेगा। इससे लौटने पर किसी को पहुंचाने नहीं आना पड़ेगा, वह मुक्तकेशी को अपने साथ वापस ले आएगा।’’ मुक्तकेशी के पिता और भाई को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी? वे तो यह सोच कर खुश हो गए कि उन्हें अपने दामाद की सेवा करने का अवसर मिलेगा।
वज्रसार कुछ दिन अपनी ससुराल में रहा। फिर उसकी छुट्टियां समाप्त हो गईं और उसके लौटने का समय आ गया। उसने मुक्तकेशी को साथ वापस चलने को कहा। लेकिन मुक्तकेशी की मां ने अनुनय-विनय किया कि उनकी बेटी को कुछ दिन और अपने मायके में रहने दे। विवश हो कर वज्रसार को अकेले वापस लौटना पड़ा। उसके लौटते ही उसके मित्रों को मानो अच्छा मौका मिल गया। वे रात-दिन यही कान भरने लगे कि ‘‘विवाह के बाद तो पत्नी को अपने पति का घर प्रिय होता है, मगर तुम्हारी पत्नी ने अपने मायके में रुकने का हठ किया। इसका सीधा अर्थ है कि वहां उसका कोई पुराना प्रेमी है जिसके साथ वह प्रेमालाप करना चाहती है, तभी तो वह तुम्हारे साथ नहीं आई।’’
यह सुन कर वज्रसार से नहीं रहा गया और वह चार दिन में ही अपनी ससुराल जा पहुंचा। उसे इस तरह अचानक आया देख कर सभी यह सोच कर प्रसन्न हो उठे कि मुक्तकेशी को कितना प्रेम करने वाला पति मिला है जो चार दिन भी अकेले नहीं रह सका। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुक्तकेशी को वज्रसार के साथ विदा कर दिया।
वज्रसार जब मुक्तकेशी को ले कर लौट रहा था तो उसने बीच घने जंगल में बैलगाड़ी रोकी और मुक्तकेशी को उसके केशों से पकड़कर घसीटता हुआ एक पेड़ के पास ले गया। उसने मुक्तकेशी का उत्तरीय खींचा और उसी से उसे पेड़ से बांध दिया। फिर क्रोध में भर कर उसके कपड़े फाड़ते हुए पूछने लगा कि -‘‘बता तूने अपने किस पुराने प्रेमी के साथ प्रेमालाप किया? इसीलिए तू रुकी थी न अपने मायके? माता-पिता तो बहाना मात्र थे, है न?’’
अपने पति के इस अप्रत्याशित व्यवहार से स्तब्ध मुक्तकेशी को कोई उत्तर नहीं सूझा। वह तो समझ ही नहीं पा रही थी कि उससे इतना प्रेम करने वाले पति को यह अचानक क्या हुआ?
‘‘क्यों पुराने प्रेमी से प्रेमालाप करते समय लाज नहीं आई और अब बताने में लाज आ रही है? मैं सब समझता हूं तेरी चतुराई!’’ वज्रसार पर तो मानों उन्माद सवार था।
‘‘ये आप क्या कह रहे हैं? आपसे ये सब किसने कहा?’’ मुक्तकेशी ने अपनी स्तब्धता से बाहर आते हुए वज्रसार से पूछा।
‘‘किसी को कहने की क्या आवश्यकता? मैं और मेरे सारे मित्र जानते हैं कि तू अपने मायके में क्यों रुकी थी।’’ वज्रसार मुक्तकेशी के पुनः कपड़े फाड़ते हुए बोला, ‘‘मेरे मित्र ठीक कहते हैं कि तेरी जैसी रूपवती पत्नी के होने से तो अच्छा है कि कोई पत्नी ही न रहे। आज मैं तुझे जीवित नहीं छोडूंगा।
वज्रसार ने मुक्तकेशी पर झपटते हुए उसके पूरे कपड़े तार-तार कर दिए। किन्तु तभी मुक्तकेशी को नग्नावस्था में देख कर उसके मन में कामभवना जाग उठी। वज्रसार ने सोचा कि जब इसे मारना ही है तो पहले तनिक आनन्द उठा लिया जाए फिर मारा जाए। मुक्तकेशी पति की भावना ताड़ गई। उसने वज्रसार से कहा कि ‘‘ठीक है यदि तुम मुझे मारना चाहते हो तो मार दो, लेकिन मरने से पहले मैं तुम्हारे साथ उन्मुक्त भाव से सहवास करना चाहती हूं।’’
यह सुन कर वज्रसार और वासनामय हो उठा। उसने तत्काल मुक्तकेशी के बंधन को खोल दिया। मुक्तकेशी ने भी अवसर पाते ही अपने उसी उत्तरीय से जिससे उसे पेड़ में बांधा गया था, वज्रसार को उसी पेड़ से बांध दिया। फिर वह गर्जना करती हुई बोली-‘‘अरे मूर्ख पुरुष! तेरा नाम वज्रसार नहीं बल्कि वज्रमूर्ख होना चाहिए था। तूने अपने कपटी मित्रों की बातों में आ कर मुझे चरित्रहीन मान लिया, कम से कम एक बार तो ढंग से जांच-पड़ताल कर लेता। मुझसे खुल कर पूछ लेता। तू तो संदेह में अंधा हो गया और तुझे अपनी पत्नी की सच्चरित्रता ही दिखना बंद हो गई।’’
मुक्तकेशी की बात सुन कर वज्रसार को मानो होश आ गया कि वह कितनी बड़ी गलती कर बैठा है। वह मुक्तकेशी से क्षमा मांगने लगा।
‘‘मुझसे बहुत बड़ी त्रुटि हो गई मुक्तकेशी! मुझे क्षमा कर दो और एक और अवसर दे दो! अब मैं पुनः कभी तुम पर शंका नहीं करूंगा।’’ वज्रसार गिड़गिड़ाने लगा।
‘‘नहीं वज्रसार! तुम मुझे अपनी पत्नी बनने योग्य नहीं मान रहे थे, सच तो ये है कि तुम मेरे पति रहने योग्य नहीं हो। जो व्यक्ति दूसरों की बातों में आ कर अपनी पत्नी की हत्या करने पर उतारू हो जाए, उस पति को दूसरा क्या आधा अवसर भी नहीं दिया जा सकता है। सो, मैं आज से न तो तुम्हारी पत्नी हूं और न तुम मेरे पति।’’ इतना कह कर मुक्तकेशी वहां से वापस अपने मायके लौट गई।
मायके में मुक्तकेशी ने जब पूरा हाल कह सुनाया तो उसके माता-पिता और भाई-बहनों ने भी उसके निर्णय को स्वागत किया। मुक्तकेशी ने शेष जीवन एक ब्रह्मचारिणी के रूप में व्यतीत करने का निश्चय किया। वहीं दूसरी ओर वज्रसार जब लौट कर अपने मित्रों के पास पहुंचा तो सबने उसकी बहुत खिल्ली उड़ाई कि वह कैसे मूर्ख बन गया। इस घटना का प्रभाव यह हुआ कि वज्रसार का दूसरा विवाह भी नहीं हो सका। जिसे भी उस घटना को पता चलता वह अपनी बेटी के साथ वज्रसार का विवाह करने से मना कर देता। वज्रसार का शेष जीवन पश्चाताप में व्यतीत हुआ।
‘‘तो ये थी कहानी मुक्तकेशी की, सुल्लू!’’ कहानी समाप्त करते हुए मैंने सुलभा से कहा।
कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद सुलभा बोली,‘‘रूपाली को भी मुक्तकेशी बनना चाहिए था। कभी तो शुरुआत हुई होगी संदेह भरी कटुता की। उसे चुपचाप नहीं सहना चाहिए था।’’
‘‘हां, सुल्लू! आज सुबह जब से मैंने यह रोंगटे खड़े कर देने वाली ख़बर पढ़ी है कि उसके पति ने उसे मार कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर यहां-वहां कूड़ादान में फेंक दिया था, मुझे जितना गुस्सा उस हैवान पर आ रहा है उतना ही रूपाली की सहनशक्ति पर भी गुस्सा आ रहा है। ऐसी भी सहनशक्ति किस काम की जो जानलेवा साबित हो? यदि शीशे में दरार पड़ जाए तो वह एक न एक दिन टूट कर किसी न किसी को चुभता ही है। ऐसे शीशे को समय रहते ही अपने से दूर कर देना चाहिए।’’ मैंने सुलभा से कहा।
सुलभा कुछ नहीं बोली। इससे आगे मेरे पास भी कुछ नहीं था कहने, सुनने को। बस, एक समाचार का एक शीर्षक बुरी तरह चुभ रहा था कि रूपाली को उसके शंकालु पति ने नृशंतापूर्वक मार डाला। वह शीर्षक खंज़र बन का हम दोनों के दिलों में भी उतर चुका था। लहू की रिसती अदृश्य बूंदों के साथ अनेक ‘काश!’ थे, जिनके होने का अब कोई अर्थ नहीं था। एक मुक्तकेशी साहस नहीं दिखा पाई थी और हैवान जीत गया था। यह सोच-सोच कर हम दोनों इतनी निःशब्द हो गईं कि सीलिंग फैन के ब्लेड्स के द्वारा हवा को काटने की आवाज़ भी किसी तूफान या अंधड़ की आवाज़ के समान लग रही थी। फिर भी हमारे मन के किसी कोने से एक प्रश्न आंतरिक चींख बन कर शोर कर रहा था कि ‘तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनीं, रूपाली? काश! तुम बन सकी होतीं!’
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