विवाह के नाम पर ओडीशा (उड़ीसा) से खरीद कर बुंदेलखंड लाई गई युवती .... क्या होगा उसका भविष्य? पढ़िए मेरी कहानी "मौना, अब तुम कहां जाओगी?"
यह प्रकाशित हुई है जबलपुर अर्थात संस्कारधानी से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका "साहित्य संस्कार" के महिला कथाकार अंक में। जिसके यशस्वी संपादक हैं श्री सुरेंद्र सिंह पंवार।
हार्दिक धन्यवाद Surendra Singh Pawar ji 🙏
यूं तो पूरा अंक पठनीय है किंतु यहां पढ़िए मेरी कहानी... 😊🙏🌷
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कहानी
मौना, अब तुम कहां जाओगी?
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
मौना अपने ससुराल पहुंची।
द्वार पर उसका किसी ने स्वागत नहीं किया। एक औरत से परिचय कराया गया। नाम बताया गया लक्ष्मी। मौना ने नाम रट लिया। आसान था। परिचित-सा। अलबत्ता, लक्ष्मी की एक भी बात मौना के पल्ले नहीं पड़ी। भाषायी समस्या थी। लक्ष्मी बुन्देली मिश्रित हिन्दी भाषी थी और मौना ओडिया भाषी।
मौना को पहली रात में ही अनुभव हो गया कि उसका ब्याह भले ही रामप्रसाद के साथ किया गया है लेकिन उसके जेठ दुर्गाप्रसाद का भी उस पर उतना ही अधिकार है। यह क्या हो रहा है उसके साथ? मौना हतप्रभ थी। किससे कहे अपना दुख? उस घर में नौकर के नाम पर वही थी और सेविका के नाम पर भी वही। लक्ष्मी एक भी काम को हाथ नहीं लगाती।
मौना के साथ जो कुछ होता जा रहा था उसे ठीक-ठीक समझ पाना उसके बूते के बाहर था। मौना के पिता शिबोम के साथ मोल-भाव करने के बाद सौदा तय हुआ दो हज़ार दो सौ पच्चीस रुपए और इस वादे में कि उसकी तीसरी बेटी के लिए भी ऐसा ही कोई ‘रिश्ता’ वे लोग ढूंढ देंगे। रामप्रसाद ने शिबोन के परिवार और आस-पास की झुग्गीवालों के सामने मौना की मांग में सिंदूर भरा। इस ‘रस्म’ के लिए मौना को लाल रंग की साड़ी दी गई थी पहनने के लिए ताकि वह ‘दुल्हन’ दिखे। शादी के बाद शिबोम और उसके परिचय वालों को देसी दारू और मछली के सस्ते पकौड़ों की दावत दी गई। शिबोम सीना फैलाए घूमता रहा और मौना ब्याह की प्रसन्नता को अपने दिल में समेटे अपरिचित ‘देश’ की ओर चल पड़ी, रेलगाड़ी में बैठ कर। वह अपने दूल्हे को देखती और मन ही मन खिल उठती। उसकी दोनों बड़ी बहनों के दूल्हे ऐसे नहीं थे। वे उम्र में बहुत बड़े थे बहनों से।
‘हमारे यहां दुल्हन का नाम बदल दिया जाता है। हम तुम्हें मौना कह कर बुलाया करेंगे।’ दुर्गाप्रसाद ने मौना को शादी से पहले ही जता दिया था। मौना समझ नहीं सकी थी। उसे हिन्दी नहीं आती थी, बुन्देली मिश्रित हिन्दी तो बिलकुल भी नहीं। शिबोन ने बेटी को दुर्गाप्रसाद की बात को अपनी भाषा में अनुवाद कर के बताया था।
क्या फ़र्क़ पड़ता है? मौना ने सोचा था। दो समय के भात से बढ़ कर नाम नहीं होता। वे कुछ भी पुकारें, कम से कम भात तो देंगे! न जाने कितने दिन और कितनी रातें मौना और उसके परिवार को पानी पी कर काटनी पड़ जाती हैं। जिस दिन मंा-बाप को काम नहीं मिलता, उसे काम नहीं मिलता, उसकी बहन को काम नहीं मिलता, उस दिन फांके के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता।
मौना के विवाह पर उसकी मंा रोई थी, फिर खुश हुई थी यह सोच कर कि चलो, एक और बेटी को इस नरक से छुटकारा मिलेगा....और परिवार को कुछ दिनों के लिए भरपेट अन्न।
मौना के मायके से ससुराल तक का रास्ता बहुत लम्बा था। एक रेल से दूसरी रेल और भीड़ का सैलाब। भीड़ तो मौना ने भी देख रखी थी किन्तु रेल पर चढ़ने का यह उसका पहला अवसर था।
ससुराल आकर शीघ्र ही मौना ने जान लिया कि वह ब्याह कर पत्नी बना कर नहीं अपितु नौकरानी और देहपिपासा शांत करने के साधन के रूप में लाई गई है। जिस पेट भर अन्न का सपना देखती वह यहां आई थी, उस अन्न में भी कटौती बढ़ती चली गई।
बूढ़ी सास भी मौना को ही कोसती।
नर्क-सा जीवन जीती मौना रोती, सिसकती और दुआ करती कि कम से कम एक बार तो उसके मां-बाप उससे मिलने आ जाएं। पर, कैसे आएंगे? क्या उन्हें पता है रास्ता? वे भी तो कभी रेल पर नहीं चढ़े?
एक दिन लक्ष्मी पर मानो वज्रपात हो गया। मौना को चक्कर आया। वह पानी का कलसा लिए हुए धड़ाम से गिरी। लक्ष्मी ने तो समझा कि मौना ‘टें बोल गई’, उसने चैन की सांस लेते हुए सोचा कि चलो, बला टली। किन्तु बला टली नहीं, सास ने मौना के शरीर को टटोला और प्रसन्न हो कर घोषणा की कि मौना पेट से है। सास की वाणी सुनते ही पथरा गई लक्ष्मी। कुछ देर बाद उसने स्वयं को सम्हाला और अपने आने वाले कल के बारे में सोचने लगी। अंततः उसने दुर्गाप्रसाद से दोटूक बात करने का निश्चय किया।
‘जनने तो दो उसे, बेच आऊंगा उसे भिंड, मुरैना में कहीं...बेफालतू चिन्ता मत कर!’ दुर्गाप्रसाद ने आश्वस्त किया।
‘और जो तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं कुए में कूद कर जान दे दूंगी।’ लक्ष्मी ने चेतावनी दी।
‘ऐसी नौबत नहीं आएगी! भरोसा रख मुझ पर।’ दुर्गाप्रसाद ने भरोसा दिलाया।
मौना को जब पता चला कि वह गर्भवती है तो वह सोच में पड़ गई कि अब उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? उसे और उसके बच्चे को अच्छे से रखेंगे ये लोग या उसके बच्चे को भी उसी की भांति नौकर बना कर रखा जाएगा? और जो बच्ची हुई तो? मौना घरवालों की बोली कुछ-कुछ समझने लगी थी। अब वह अपने कान खड़े रखती, एक चैकन्नी मां की तरह। एक अच्छी बात यह थी कि उसे अब भरपेट भोजन दिया जाने लगा था। इतना तो वह समझ गई थी कि उसके पेट में मौजूद गर्भ के कारण उसे भरपेट भोजन दिया जा रहा है। लेकिन प्रसव के बाद? इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं था।
यदि वह प्रसव के पहले ही इस घर से कहीं भाग जाए तो?
लेकिन कहंा? उसे तो ठीक से पता भी नहीं है कि वह है कहां? उसके अपने माता-पिता का घर किस शहर में, कितनी दूर और कहां हैं? वहां तक कैसे पहुंचेगी? रेल की लम्बी यात्रा के बाद एक बस में सवार हो कर वह इस गांव तक आई थी। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी और उस पर उसे अपनी बोली-भाषा के अलावा कुछ आता नहीं था। कैसे और कहां चली जाए वह? हिन्दी भी टूटी-फूटी समझ पाती है। इसी उधेड़बुन में मौना के दिन-रात कटते।
एक दिन मौना को दो अपरिचित आदमियों के सामने खड़ा किया गया। वे विचित्रा नेत्रों से उसे घूरते रहे। गर्भ धारण करने और भरपेट भोजन करने के कारण चेहरे पर आई लुनाई ने मौना के स्त्राीत्व में चार चांद लगा रखा था। सांवला चेहरा चमक उठा था। देह भर आई थी। कुछ देर वे दोनों मौना को घूरते रहे फिर मौना को दूसरे कमरे में भेज दिया गया। पता नहीं क्यों मौना का मन सशंकित हो उठा। ये लोग कौन हैं? लक्ष्मी से पूछे? या फिर सास से?
आखिर उसने साहस बटोर कर लक्ष्मी से पूछा।
‘जब वे दोनों तुझे ले जाएंगे खरीद कर तक खुद ही पता चल जाएगा....फिर ऐश करना...’ लक्ष्मी ने भद्दे ढंग से उत्तर दिया था। ‘खरीदना’ और ‘बेचना’ जैसे शब्दों के अर्थ मौना जानती थी। इतने अरसे में उसे हिन्दी के कई शब्द समझ में आने लगे थे।
‘और तेरा बच्चा यहां मेरे पास।’ कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए, अपनी गोद की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मी बोली।
मौना हतप्रभ रह गई। पहले माता-पिता, भाई-बहन छूटे और अब उसका बच्चा भी उससे छुड़ा लिया जाएगा?
नहीं! उसे यहां से भागना ही होगा, हर कीमत पर। मौना ने सोचा। कहां जाएगी? कहीं भी। उसकी कोख में अब उसका अपना बच्चा है। वह अपने बच्चे को नहीं छोड़ेगी। कभी नहीं।
जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगे, मौना की छटपटाहट बढ़ने लगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस नरक से कैसे भागे? अंततः उसने उस दाई का सहारा लेने का निश्चय किया जो उसका गर्भ जांचने दो-तीन बार आ चुकी थी। मौना ने पेट दर्द के बहाने दाई को बुलवाया और जांच के दौरान एकांत पाते ही दाई के पैर पकड़ लिए। मौना का भाग्य अच्छा था कि बूढ़ी दाई का मन पसीज गया। या फिर इससे बड़ा कारण यह था कि बूढ़ी दाई को गंाव में चल रहे इस धंघे का पता था। या फिर कोई और कारण था तो वह स्वयं ही जानती होगी।
बूढ़ी दाई ने ही तय किया कि जिस दिन गांव के मंदिर में भंडारा होगा उस दिन मौका मिलते ही वह मौना को बस पकड़वा देगी। बूढ़ी माई अपनी बात की पक्की निकली। भंडारे वाले दिन परिवार के सभी लोग मुफ़्त का भोजन करने मंदिर गए। बाहर से घर की सांकल लगा गए थे। मगर बूढ़ी दाई ने ऐन बस छूटने के समय सांकल खोली और मौना की मुट्ठी में बीस रुपए का नोट थमाते हुए उसे बस में घुसा दिया। बस चल पड़ी और मौना थर-थर कांपती रही।
कंडेक्टर आया।
‘कहां जाना है?’ उसने मौना से पूछा और पैसे के लिए अपना हाथ बढ़ाया।
‘सागर....’ मौना ने अटकते हुए कहा।
मौना ने घबरा कर बीस का नोट उसे थमा दिया।
‘खुल्ले देता हूं अभी!’ कहते हुए कंडक्टर और आगे बढ़ा। मौना को समझ में नहीं आया कि टिकट के पन्द्रह रुपए की थी या बीस की? बस से उतरने के पहले कंडेक्टर ने उसे पांच रुपए लौटा दिए थे। यह पांच रुपए ही उसकी कुल सम्पत्ति थे। उसने सहेज कर अपनी साड़ी के पल्लू में बंाध लिया।
सागर में बस अड्डे पर उसने ‘रेल’, ‘रेल’ कह कर पूछना शुरु किया। कुछ ने सिर झटक कर अनसुना कर दिया। कुछ ने बताया। फिर किसी तरह रास्ता पूछती-पूछती रेलवे-स्टेशन पहुंच गई। किस रेल में उसे चढ़ना है? कहां जाना है? उसे पता नहीं था। बहुत देर तक वह प्लेटफार्म पर डोलती रही। गला सूखने लगा तो पांनी की टंकी के पास पहुंच कर गला तर किया।
प्लेटफार्म पर लाइटें जल गई थीं। चहल-पहल बढ़ गई थी कि फिर एक रेल आई।
भीड़ का एक रेला उसमें से उतरा और दूसरा चढ़ने लगा। मौना भी धक्का-मुक्की करती हुई जा चढ़ी। उस समय उसके मन में बस दो ही इच्छाएं बलवती थीं कि एक तो इस भीड़ की धक्का-मुक्की में उसका गर्भ सुरक्षित रहे और दूसरी कि वह यहां से बहुत दूर चली जाए।
रेल के डब्बे के फर्श पर बैठते ही मौना की अंाखों में आंसू छलछला गए। बाबू कैसे होंगे? उसे याद करते होंगे? उसने अपने पिता के बारे में सोचा। मंा कैसी होगी? वह याद करती होगी? क्या अभी वे रुपए बचे होंगे जो उसके ब्याह में उसके मां-बाप को दिए गए थे? दोनों बड़ी बहनों के ब्याह में मिले रुपयों से मंा ने तीन माह घर चलाया था।
....और कला? क्या वह भी अब तक ब्याह दी गई होगी? मौना को अपनी तीसरी बड़ी बहन की याद आई। ‘ब्याह?’ इसी तरह का ब्याह? जैसा उसका खुद का हुआ? उस गंाव में....कौन जाने उस गंाव में मौना की झुग्गी-बस्ती की और लड़कियां भी रही हों? कौन जाने मौना की दोनों बड़ी बहनें भी उसी गंाव के किन्हीं घरों में.....धक् से रह गया मौना का दिल। मौना को पता नहीं था कि उस गांव में पांच औरतें और थीं मौना के ‘देश’ की। उन्हें भी मौना की तरह घर से बाहर निकलने की मनाही थी। उन्हें आपस में मिलने देने का तो प्रश्न ही नहीं था। वे एकाकी, आश्रित और लाचार अनुभव करती रहें, यही उनके पतिनुमा मालिकों के लिए बेहतर था। यूं भी कौन सोच सकता था कि बुन्देलखण्ड के पिछड़े हुए गंाव में ओडीसा से लड़कियां ब्याह कर लाई जाने लगीं हैं। क्यों कि वहां लड़कियां कम हैं, क्यों कि लाचार ओडिया लड़कियों के रूप में एक ऐसी नौकरानी मिल जाती है जो न काम छोड़ कर भाग सकती है और न अंाखें दिखा सकती है। सौदा लाभ ही लाभ का।
मौना देर तक रोती रही और उसके आस-पास बैठे लोग नाक-भौंह सिकोड़ कर उसे देखते रहे...लेकिन मौना ने तय कर लिया था कि वह अपने मां-बाप के घर पहुंच पाए या न पहुंच पाए लेकिन वह हरहाल में जिएगी और अपने बच्चे को भी जन्म देगी, पालेगी। कुछ भी हो वह ज़िन्दगी से हार नहीं मानेगी। यह उसके भीतर की मंा का साहस था जो अंगड़ाइयां लेने लगा था क्यों कि उसके भीतर की औरत भले ही हार मान लेती लेकिन उसके भीतर की मां कभी हार नहीं मानेगी।
उसे याद आने लगा वो गीत जो उसकी मंा अकसर गाया करती थी-
छो..छोको भूंजी लोक पतर तुड़ले लागसी भोक
छो..छोको भूंजी लोक ......
(अर्थात् हम लोग गरीब भुंजिया आदिवासी, पत्ता तोड़ते हुए भूख लगती है। )
उस समय उसे भूख नहीं लगी थी लेकिन उसे ध्यान आया कि कहीं उसके गर्भ का शिशु भूखा न हो? एक अबोध मां अपने सहज ज्ञान से अपने गर्भस्थ शिशु की आवश्यकताएं भांपने लगी। भले ही उसका घबराया मन उससे पूछ रहा था-‘मौना, अब तुम कहां जाओगी?’ किन्तु मौना के भीतर की मां ने उस प्रश्न को अनसुना करते हुए अपने गर्भस्थ शिशु की आवाज़ पहले सुनी और उसने दो रुपए का केला खरीदा और खा लिया।
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