Purane Kapade, Story of Dr. (Miss) Sharad Singh |
पुराने कपड़े
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
हमारी
गाड़ी का ड्राइवर भी मस्तमौला जीव था। वह हर बात के लिए तैयार रहता था। चलते रहना हो तो उसे कोई आपत्ति
नहीं थी और यदि ठहरना हो तो उसे कोई परेशानी नहीं थी।
खाने–पीने के मामले में भी वह सहमति से भरा हुआ था। कोई ना–नुकुर नहीं। कुल मिला कर यात्रा मज़े में चल रही थी कि हम एक ढाबे में जा
उतरे।
जाती
हुई ठंड की कुहरे भरी सुबह, वैसे सुबह क्या थी, यही कोई दस
बज रहे थे। उस हल्के कुहरे में गाड़ियों की आवाजाही से उड़ने वाली धूल की पर्त एक अजीब धुँधलका रच रही थी।
इस धुँधलके में सूरज की किरणें भी कमज़ोर और शीतखाई हुई
प्रतीत हो रही थीं।
भाई
साहब गाड़ी से उतरते ही लघुशंका के लिए एक ओर चले गए। भाभी अपनी शॉल सम्हालती हुई मोल्डेड कुर्सी पर जा
बैठीं। ड्राइवर ढाबे के तंदूरी–चूल्हे के मुहाने पर जा खड़ा हुआ। वह चूल्हे की आँच में अपने हाथ सेंकने लगा। उसे हाथ सेंकता
देख कर मेरी भी तीव्र इच्छा हुई कि मैं भी उसकी तरह
चूल्हे के मुहाने पर जा खड़ी होऊँ लेकिन मैं जानती थी कि यह भाई
साहब को कतई पसंद नहीं आएगा और मैं ऐसा कोई काम नहीं करना
चाहती थी जिससे इस सफ़र में तनाव
की स्थिति उत्पन्न हो। मैं भी सिहरती, ठिठुरती
ऊँगलियों
को आपस में रगड़ कर ग़रम करने का असफल
प्रयास करती हुई भाभी की बगल वाली कुर्सी पर जा बैठी। कुर्सी भी
अच्छी–खासी ठंडी थी।
'कुर्सी
बहुत ठंडी है।'
कुर्सी पर बैठते ही मेरे ठहात मुँह से निकला।
'बैठ जाओ, बैठने
से गरमा जाएगी।'
भाभी बोली।
'कुर्सी
तो गरमा जाएगी लेकिन मैं ठंडी हो जाऊँगी।' मैंने
फीकी हँसी हँसते हुए कहा। भाभी ने भी मेरी हँसी में
साथ देना चाहा लेकिन भाई साहब को अपनी ओर आते देख कर चुप
रह गई। भाई साहब भी चूल्हे की ओर बढ़ लिए। तब तक ढाबे पर
काम करने वाले लड़के ने चाय के
गिलास हमारे सामने वाली मेज पर रख दी। यद्यपि उस समय तक हम दोनों से किसी ने नहीं पूछा था कि हमें चाय
पीनी है या नहीं?
शायद बड़प्पन के रंग में रंगे हुए पुरुष
अपनी इच्छा को दूसरे की इच्छा साबित करके अपना अधिकार जताना
पसंद करते हैं। भाई साहब ने खुद ही मान लिया कि ठंड के कारण
हमें चाय पीने की इच्छा हो रही
होगी। कुछ भी मान लेना कितना आसान होता, बजाए
सच जानने के।
चाय
का गिलास अभी मैंने अपने होठों से लगाया ही था कि वातावरण 'काँय–काँय' की हृदय–भेदी
ध्वनि से भर गया। मैंने चौंक कर उस ओर
देखा जिधर से वह आवाज आई थी। एक छोटा, नन्हा–सा पिल्ला चूल्हे के बुझे हुए मुहाने से 'काँय–काँय' करता हुआ निकल रहा था। उस पिल्ले ने मुहाने से बाहर निकलने का
प्रयास किया और फिर लड़खड़ाता हुआ वापस मुहाने में घुस गया।
मुहाने के भीतर से भी उसकी दर्दनाक आवाज पंचम सुर में सुनाई
दे रही थी। एकबारगी ऐसा लगता था मानो चूल्हा ही रो रहा हो। पल
दो पल बाद वह पिल्ला पुनः बाहर आ गया। इतने में लगभग उसी का
हमउम्र पिल्ला भी किसी मेज के नीचे से निकल कर उसके पास जा
पहुँचा। अब वे दोनों पिल्ले हमारे कौतूहल का केंद्र बन गए।
रोने वाला पिल्ला दूसरे पिल्ले से सट जाना चाहता था जिससे हम
समझ गए कि वह ठंड लगने के कारण
रो रहा है। लेकिन दूसरा पिल्ला शरारती किस्म का था। वह उस रोने वाले पिल्ले की टाँग–पूँछ खींचने लगा तथा उसे और सताने लगा। घबरा कर वह रोने वाला पिल्ला वापस चूल्हे
के मुहाने में घुस गया। दूसरे पिल्ले ने चूल्हे के
भीतर घुस कर उसे बाहर निकालने का प्रयास किया लेकिन वह सफल न
हो सका। वह रोने वाला पिल्ला न तो मुहाने से बाहर आया और न
उसने रोना बंद किया।
अब
मुझे उसके रुदन–स्वर से झुँझलाहट होने लगी थी। हम वहाँ कुछ देर और ठहरने वाले थे। कारण कि भाई साहब ने
ढाबे वाले को आलू के पराठे बनाने का आदेश दे दिया था।
हमसे इस बार भी पूछा नहीं था।
मुझे खीझ होने लगी थी उनके इस बड़प्पन के थोथे प्रदर्शन से। अचानक मुझे लगा कि जब चूल्हे के एक मुहाने पर
लकड़ियाँ धधक रही हैं तो उसकी आँच और गरमाहट दूसरे
मुहाने पर भी पहुँच रही होगी फिर
वह पिल्ला रोए क्यों जा रहा है? वहाँ तो उसे ठंड नहीं लगनी चाहिए। बहरहाल, उस
पिल्ले के रोने का कारण जानना संभव नहीं था। वह चूल्हे की गुनगुनी राख में दब कर भी रो रहा
था। उसकी उस दशा को देख कर मेरे मन में अचानक एक प्रश्न
उठ खड़ा हुआ कि क्या दादी की गोरसी (अंगारे रखने का मिट्टी
का बरतन) की राख में दबे हुए अंगारे भी क्या कभी–कभार इसी तरह रोते होंगे? माना कि अंगारे
निर्जीव होते हैं लेकिन उनमें बसी हुई आग उनके जीवित होने का भ्रम उत्पन्न करती रहती है। ठीक दादी
की तरह।
हम
दादी को ही लेने तो जा रहे थे। दो दिन पहले ही छोटे भइया ने चिट्ठी लिख कर जता दिया था कि वे अब दादी को
अपने पास रखना नहीं चाहते हैं। ऐसे में एक मात्र
विकल्प यही था कि दादी भाई साहब
के पास आ कर रहने लगें। भाई साहब ये चाहते तो नहीं थे लेकिन दादी को लाना उनकी विवशता बन गई थी। क्या
दादी भी छोटे भइया के घर से विस्थापित होने के दुख
में इस पिल्ले की भाँति रोती होंगी? नहीं दादी इंसान हैं और इंसान अपने अधिकतर दुख चुपचाप पीता रहता है, वह खुल कर रो भी नहीं पाता है। मेरी आँखों के आगे दादी का झुर्रियों भरा चेहरा तैर
गया।
छोटे
भइया के घर पहुँच कर मेरी क्या भूमिका रहनी है, इसका
मुझे पता नहीं था? बस, भाई साहब ने कहा कि सुमन तुम्हें भी चलना है कानपुर और मैं उनके साथ हो ली। वैसे मुझे लग
रहा था कि मुझे अपने साथ ले कर चलने के पीछे भाई साहब
का उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मेरी उपस्थिति में छोटे भइया या
उनकी बीवी अधिक बहसबाज़ी नहीं करेंगे। कारण कि मैं उनकी सगी बहन
नहीं हूँ, दूर के रिश्ते
की बहन हूँ। रिश्तों के समीकरण भी कितने विचित्र होते हैं। स्वार्थ के लिए दूर के रिश्ते निकट में
बदल जाते हैं और निकट के रिश्ते दूर होते चले जाते हैं।
दादी इन दोनों भाइयों की सगी दादी है लेकिन दोनों बोझ मानते
हैं उन्हें और एक अनचाही, पुराने
कपड़ों की गठरी की तरह अपनी पीठ से उतार कर दूसरे
की पीठ पर लादने की फिराक में रहते हैं। क्या दादी ने अपनी जवानी में अपने बुढ़ापे के बारे में कभी
ऐसा सोचा
होगा? नहीं, कोई नहीं सोचता है। सोच भी कैसे सकता है कि
उनके अपने रक्त-संबंधी एक दिन उन्हें पुराने कपड़ों
की गठरी समझने लगेंगे।
पुराने
कपड़ों से छुटकारा पाना कितना सुखद होता है अगर उनके बदले स्टील का कोई सस्ता–सा बर्तन, प्लास्टिक
का सामान या ऐसा ही कोई फालतू सामान मिल जाए। जाने
कितने लोग अपने कान खड़े किए रहते
हैं बर्तन या सामान के बदले रद्दी कपड़े लेने वालों की आवाज की प्रतीक्षा में।
अब
तो वृद्धाश्रम का भी अच्छा–खासा चलन बढ़ गया है, एक दिन भाई साहब किसी से चर्चा कर रहे थे। शायद भाई साहब
के मन के किसी कोने में यह बात उमड़ती–घुमड़ती होगी कि दादी जैसी रद्दी कपड़ों की गठरी को वृद्धाश्रम में सौंप कर जीवन का
दायित्वहीन पल हासिल किया जा सकता है। मगर, भाई साहब का दुर्भाग्य कि सागर अभी इतना प्रगतिवान शहर नहीं बना है जहाँ वे
दादी को
वृद्धाश्रम के हवाले कर के चैन से रह
सकें। मोहल्ले,
पड़ोस, परिचित
सब के सब टोकेंगे। अच्छी–खासी भद्द उड़ेगी। अतः दादी को अपने साथ ही रखना होगा, हर हाल में। यह विवशता उनके हर हाव–भाव में
परिलक्षित हो रही थी। शायद यही कारण था कि वे बात–बात
में चिड़चिड़ा रहे थे। बार–बार असहज हो उठते थे। ऐसा माना जाता है कि घर की बहुएँ अपने घर में वृद्धाओं को पसंद नहीं
करती हैं। वे उन्हें स्वतंत्रता में बाधा मानती हैं।
क्या भाभी भी ऐसा मानती हैं?
'भाभी, अब
तो दादी आपके साथ ही रहेंगी। आपको परेशानी होगी न?' मैंने
भाभी से पूछ ही लिया।
'उनके
रहने से परेशानी कैसी, सुमन? घर
में कोई बड़ा–बूढ़ा रहे तो अच्छा ही लगता है।' भाभी ने उत्तर दिया।
'लेकिन
छोटी भाभी तो ऐसा नहीं मानती हैं, तभी तो वे दादी को अपने साथ नहीं रखना चाह रही है।' मैंने कहा।
'छोटी
को जो मानना हो माने, मैं तो ऐसा नहीं मानती हूँ।' भाभी बोलीं।
'और
भाई साहब?' मैंने पूछा।
'उनकी
वे जानें। वे चाहे दुत्कारें चाहे प्यार करें, उनका
सब चलेगा। जो मैं कुछ कहूँगी तो चार बातें होने
लगेंगी।' भाभी ने उसाँस
भरते हुए कहा।
'ओह, तो
ये बात है, भाभी के मन में दादी के लिए प्यार नहीं बल्कि चार बातों का डर है जो भाभी को मौन रखे
हुए है। वैसे उनकी बात अपनी जगह ठीक भी है, जब दादी के सगे पोते को उनकी ललक नहीं है तो पराए घर से आई पोतोहू कहाँ से
जगाएगी ललक।'
अपने
मन में उमड़ते–घुमड़ते विचारों से जूझते हुए मैंने कब पराठा खा लिया, मुझे
पता ही नहीं चला। पराठे के स्वाद का अहसास भी नहीं हुआ। बस, इसी
तरह आगे का रास्ता भी तय हो गया। ढाबे से कानपुर
तक के रास्ते के बीच जिस चीज ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह था, सड़क
के दोनों किनारों में लगे पेड़ और पेड़ों के साथ नहरनुमा जमीन में सहेजा गया पानी।
'ये
पेड़ तो हमेशा पानी में डूबे रहते हैं, इससे
इनकी जड़ों को नुकसान नहीं पहुँचता?' मैंने भाई साहब से पूछा।
'नहीं, इस पानी के कारण ही तो इन पेड़ों में आम की
अच्छी फसल आती है।' उत्तर
ड्राइवर ने दिया।
ड्राइवर
का उत्तर सुन कर मेरा ध्यान गया कि वे पेड़ आम के थे। पेड़ों के परे सड़क के दोनों ओर हरियाले खेत बिछे
हुए थे। सारा दृश्य अत्यंत सुरम्य था। मगर हम तीनों
के मन का उद्वेलन उस दृश्य को आत्मसात करने में आड़े आ रहा
था।
शाम
से कुछ पहले हमने कानपुर के औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेश किया। कारखानों के घनीभूत प्रदूषण ने हमारा ऐसा
स्वागत किया कि मुझे उबकाई आने लगी और भाभी को खाँसी
के ठसके लगने लगे। मैंने गाड़ी से बाहर झाँक कर देखा। सड़क पर
गुजरते लोगों या दूकान पर सामान
ख़रीदते–बेचते लोगों के लिए सबकुछ सामान्य था। पापी पेट कितनी आसानी से समझौता करवा देता है हर
परिस्थिति से,
यह मुझे दिखाई दे रहा था। आम आदमी में पर्यावरण के
प्रति चेतना की बात करना तो अपने देश में महज नारेबाजी
जैसा लगता है। हमारी संवेदनाएँ हमारे स्वार्थ के इर्दगिर्द
रहती है। हम अपने घर का कूड़ा–कचरा
दूसरे के घर के दरवाज़े पर फेंक कर अपनी सफ़ाई की आदत पर नाज कर लेते हैं। फिर कूड़ा फेंकते–फेंकते इंसानों को भी फेंकने लगते हैं, इस
चौखट से उस चौखट। छोटे भइया यही तो करने जा
रहे हैं। पहले भाई साहब एक बार यह कर चुके हैं।
छोटे
भइया के घर पहुँचते ही दादी ने मुझे अपने गले से लगा लिया। मेरा मन भर आया। उनकी कमज़ोर कलाइयों में
स्नेह की
अपरिमित ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी। इस
ऊर्जा को कैसे महसूस नहीं कर पाते हैं ये लोग? मुझे आश्चर्य हुआ। दादी ने भाई साहब और भाभी को भी अपने गले से लगाया। 'जुग–जुग
जीयो' का आशीर्वाद दिया। शायद, यह
मेरा भ्रम था कि मुझे उनका यह अंदाज फ़कीराना लगा – जो
दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला, फ़कीरों और बुजुर्गों में शायद कोई अंतर नहीं रह जाता है।
अंतर होता भी है, होगा
तो सिर्फ इतना कि फ़कीर अपनी चिंता छोड़ कर इस फ़ानी दुनिया के लिए दुआ करते हैं और बुजुर्ग अपनी
चिंता छोड़ कर अपने वंशजों के लिए दुआ करते हैं। दुआएँ
सिर्फ दुसरों के लिए, अपने लिए एक भी नहीं।
रात्रि
भोजन के बाद बैठक जमीं।
'दादी
के सारे कपड़े मैंने इस सूटकेस में रख दिए हैं और उनकी थाली, लोटा
वगैरह इस डलिया में है।' छोटी भाभी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा।
'थाली, लोटा
क्या करना है?
क्या दादी को खिलाने के लिए मेरे में घर में बरतन नहीं है?' भाई साहब ने भृकुटी तानते हुए व्यंग्य से कहा।
'आप
के पास तो सब कुछ है भाई साहब, बस, इसीलिए
तो दादी को आपके साथ भेज रहे हैं।' अबकी बार छोटे भइया ने मुँह खोला।
'हाँ–हाँ, क्यों नहीं, मेरे
घर तो रुपयों का पेड़ लगा हुआ है।' भाई साहब अपनी तल्खी छुपा नहीं पा रहे
थे।
'मेरे
लिए रुपये क्या करने हैं बेटा, मुझे तो बस, एक जून एक रोटी दे दिया करना तो भी मेरा काम चल जाएगा। अब
बचे ही कितने दिन हैं,' दादी
ने हस्तक्षेप करते हुए कहा। उनकी आवाज में कुछ ऐसा भाव था, मानो
उन्हें अपने जीवित रहने पर लज्जा आ रही हो। दादी
की निरीह स्थिति ने मुझे बौखलाहट से भर दिया।
'दादी
को मैं अपने साथ रख लूँ तो?' मैं बोल पड़ी।
दोनों भाई चौंके। भाभियाँ भी। दूसरे ही
पल उनके चेहरों पर आपत्ति के भाव तिर गए।
'कुछ
दिनों के लिए।'
मैंने तत्काल इतना और जोड़ दिया।
'देखेंगे।' भाई साहब बोले।
'दादी
मेरे साथ कभी नहीं रही हैं, उन्हें अच्छा लगेगा, और मुझे भी।' मैंने एक तर्क और सामने रख दिया।
'ठीक
है, अगर तुम यही चाहती हो तो...' भाई साहब ने अनमने स्वर में कहा लेकिन उनके उसी स्वर में कहीं बोझ हटने
की खुशी का भाव भी झलक रहा था। अब, इस समय उन्हें अपने पुरुषत्वपूर्ण बड़प्पन की भी कोई चिंता नहीं थी।
'सोच
लो सुमन, दादी को रखना आसान नहीं है। मैं ही जानती हूँ
कि कैसे मैंने सम्हाला है इन्हें।' छोटी भाभी को मेरा प्रस्ताव पसंद नहीं आया था। आता भी कैसे? वे तो अपनी पीठ का बोझ उतार कर भाई साहब और भाभी की पीठ पर लाद कर खुश होना
चाहती थीं। मेरे प्रस्ताव ने उनकी उस संभावित खुशी को
छीन लिया था। लेकिन मुझे न तो उनके दुख–सुख की चिंता थी और न भाई साहब की। मुझे चिंता थी तो सिर्फ दादी के अस्तित्व की। मैं उन्हें
पुराने, रद्दी कपड़ों
की गठरी की तरह उपेक्षित नहीं रहने देना चाह रही थी, चाहे
मुझे कोई भी कठिनाई क्यों न झेलनी पड़े।
दादी
को लेकर हम लोग सागर लौट आए। जैसी कि मुझे आशा थी, भाई साहब ने गाड़ी की दिशा पहले मेरे घर की ओर मोड़
दी। उन्होंने मुझे और दादी को सामान सहित उतारा और
फिर चैन की साँस लेते हुए अपने
घर चले गए। सहमी–सिकुड़ी दादी मेरे घर की बैठक में रखे सोफे के एक कोने में बैठ गईं।
'बोलो
दादी, क्या खाओगी?' मैंने
दादी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए
पूछा। मेरे पूछते ही मैंने महसूस किया कि दादी का हाथ काँपा और फिर उन्होंने अपने शरीर को ढीला छोड़
दिया। कई दिनों,
महीनों और शायद वर्षों की घुटन उनकी मुरझाई पलकों
के नीचे से बह निकली।
'अब आप कहीं नहीं जाओगी, दादी, हमेशा यहीं रहोगी, मेरे पास।' मैंने अपने मन का रहस्य खोलते हुए कह डाला। दादी ने एक बार फिर मुझे अपने सीने से लगा लिया। वह पुराने कपड़ों की गठरी मानो सलमे–सितारे टंके नये–ताज़ा कपड़ों में बदल गई। मुझे अपना घर अच्छा–अच्छा सा
--------------------------------------------------
नि:शब्द हूँ। बहुत दोनों बाडक अच्छी कहानी पढ़ने को मिली जिसके हर शब्द अंत तक एक पूरा संसार ढोते रहे जहां क्या कुछ नहीं था! सब कुछ। एक संपूर्ण कहानी सीसे की तरह साफ-साफ झलकता है जहां प्रतिबिम्ब बनकर खुद सहित हमारे सारे संगाती अपने असली चेहरे में बदहवास-से हाँफते और किकियाते नज़र आ रहे थे, तंदूर के ताप में तपते उस पिल्ले की तरह! बहुत आभार और बधाई!
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद विश्वमोहन जी 🙏🌷
हटाएंअपनी कहानी पर आपके विचार जानकर उत्साहवर्द्धन हुआ...आभारी हूं 🌹🙏🌹
बहुत दिनों बाद
जवाब देंहटाएंIt's OK 😊
हटाएं
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
10/01/2021 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
कुलदीप ठाकुर जी,
हटाएंयह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरी कहानी को 'पांच लिंकों का आनंद' में शामिल किया है। आपका हार्दिक आभार एवं बहुत बहुत धन्यवाद 🌹🙏🌹
आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी,
जवाब देंहटाएंयह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि आपने मेरी कहानी को 'चर्चा मंच'में शामिल किया है। आप सदैव सभी का उत्साहवर्द्धन करते हैं आपकी यही विशेषता आपके बड़प्पन को स्थापित करती है और सदा मुझे प्रभावित करती है।
आपका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद !!!
सादर नमन 🌹🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
शरद सिंह जी आपकी कहानी निर्मम सत्य के साथ सांत्वना का कोमल फहा है, समाज में भाईसाहब जैसे किरदार तो काफी दिख जाते हैं,पर सुमनजी जैसा चरित्र अतुल्य हैं जो संस्कारों और प्रेम स्नेह का अप्रतिम उदाहरण है।
जवाब देंहटाएंएक सशक्त विषय एक अनछुआ पहलू बहुत बहुत बधाई आपको।
हार्दिक धन्यवाद कुसुम कोठारी जी 🌹🙏🌹
हटाएंआज के समाज एवं परिवार के परिदृश्य को केन्द्रित करके आपने बहुत ही गंभीर विषय को छुआ है, बहुत ही यथार्थ पूर्ण संदेश देती हुई सार्थक कहानी..
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद जिज्ञासा सिंह जी 🌹🙏🌹
हटाएंअत्यन्त संवेदनशील,गूढ़ रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी ने मानो परिदृश्य ही परोस दिया।
सादर नमन इस कृति को।
यूँ ही निरन्तर हमें उत्कृष्ट कहानियों का रसास्वादन कराती रहें। बहुत - बहुत ही बधाई एवं शुभकामनाएँ शरद जी।
हार्दिक धन्यवाद सधु चन्द्र जी 🌹🙏🌹
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ओंकार जी 🌹🙏🌹
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंGifts to India
जवाब देंहटाएंBirthday Gifts Online