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बुधवार, जनवरी 27, 2021

शिखण्डी उपन्यास | समीक्षा | समीक्षक शैलेंद्र शैल | सामयिक सरस्वती | उपन्यासकार शरद सिंह

  



Shikhandi - Novel Dr (Miss) Sharad Singh

साहित्य जगत की चर्चित पत्रिका "सामयिक सरस्वती" में मेरे उपन्यास "शिखण्डी " की  प्रतिष्ठित समालोचक शैलेंद्र शैल जी ने जिस गहनता से समीक्षा की है उसके लिए मैं उनकी हार्दिक आभारी हूं🙏

  तथा, आभारी हूं "सामयिक सरस्वती" पत्रिका की भी🙏🙏

- डॉ शरद सिंह





रविवार, जनवरी 24, 2021

छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | कहानी संग्रह - बाबा फ़रीद अब नहीं आते

Chhutki, Dhoop Ke Tukade Aur Samvidhan - Story of Dr (Miss) Sharad Singh

कहानी

छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह



यूकेलिप्टस की डालियां हवा में धीरे-धीरे डोल रही थी। जिसके कारण आंगन में फैले धूप के टुकड़े-टुकड़े फुटकते हुए प्रतीत हो रहे थे। सात बरस की छुटकी को धूप के टुकड़ों को इस तरह फुदकते  हुए देखना अच्छा लगता था। उस समय ये धूप के टुकड़े उसके काल्पनिक दोस्त बन जाते और छुटकी का मन भी उन्हीं धूप के टुकड़ों के साथ फुदकने लगता। अम्मा के पास इतनी फ़ुर्सत कभी नहीं रहती कि छुटकी का ध्यान रख सके। वह तो जब स्कूल जाने का समय होने लगता है तब अम्मा को छुटकी की सुध आती है।


‘‘चल री, पढ़ाई बंद कर और जल्दी से सपर-खोर ले। नें तो देरी हो जे हे।’’ अम्मा आवाज़ देती और छुटकी धूप के टुकड़ों का साथ छोड़कर झटपट उठ बैठती। जब वह चार बरस की थी तभी से उसने अपने हाथों नहाना-धोना सीख लिया था। अब तो कंघी -चोटी भी खुद ही कर लेती है। दरअसल, जब वह चार वर्ष की थी तभी अम्मा ने उसकी तीसरी बहन को जन्म दिया था। अम्मा की तबीयत दो-तीन माह ख़राब रही। उसी दौरान छुटकी में एक विशेष प्रकार की समझदारी आ गई। वह अपना काम तो निपटा ही लेती बल्कि अपनी छोटी बहन ननकी के बालों में भी कंघा फेर दिया करती। भले ही उसके इस अबोध प्रयास में ननकी के सिर की कोमल त्वचा खुरच जाती और ननकी बुक्का फाड़कर रोने लगती। ननकी का रुदन सुनकर अम्मा बिस्तर पर पड़ी-पड़ी चिल्ला उठती। छुटकी ननकी को चुप कराने जुट जाती। ज़िम्मेदारियों के बोझ तले छुटकी का बचपन कहीं दब-कुचल गया होता अगर इन धूप के टुकड़ों का साथ उसे न मिला होता।


स्कूल से लौटने पर उसे चाय बनानी पड़ती। अम्मा को चाय का प्याला देने के बाद बसी में चाय डाल-डाल कर ननकी को पिलानी पड़ती। ननकी जब सुड़प-सुड़प की आवाज़ें करती हुई चाय पीती तो छुटकी को उस पर बड़ा लाड आता। वह सोचने लगती कि यदि धूप के टुकड़े भी चाय पीते होते तो इसी प्रकार की आवाजें करते। उसकी यह बचकानी कल्पना उसे अजीब-सा सुख देती। तरह तरह के विचार उसके नन्हे मस्तिष्क में कौंधते रहते। कभी-कभी वह सोचती कि जब बादल की छाया को ‘बदली’ कहते हैं तो आदमी की छाया को ‘अदली’ क्यों नहीं कहते? अपने ऐसे सवाल जब कभी वह अम्मा से पूछ बैठती तो अम्मा झुंझलाकर कहती-‘‘मोय नाय पतो। अपनी मैडम जी से पूछ लइयो।’’


मैडम जी से पूछने की कभी हिम्मत नहीं हुई। अब कल की ही बात है मैडम जी ने बताया कि कल 26 जनवरी है। कल गणतंत्र दिवस मनाया जाएगा। छुटकी के मन में सवाल जागा कि ये गणतंत्र क्या होता है? वह मैडम जी से पूछना चाहती थी किंतु उसे लगा कि वह मैडम जी से पूछेगी तो वे उसे मारेंगी नहीं तो डांटेंगी ज़रूर। मैडमजी छुटकी की पट्टी पर बैठने वाली शालू को डांट चुकी है-‘‘बहुत पटर पटर करती हो, चुप बैठो।’’

शालू तो फिर भी पटर-पटर करती रहती मगर छुटकी की बोलती पूरी तरह बंद रहती है। मैडमजी के कक्षा में प्रवेश करते ही छुटकी की जुबान तालू से जा चिपकती है। 


‘‘काय री छुटकी, स्कूल जाने के नाय? काय कितने बजे पहुंचने हैं?’’ अम्मा ने हाथ-मुंह धोती छुटकी को आवाज़ लगाई।

‘‘सात बजे लों पहुंचने है अम्मां।’’ छुटकी ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया। फिर छुटकी भीतर की ओर दौड़ पड़ी। उसने अपना गणवेश निकाला। स्कर्ट की दशा तो फिर भी ठीक थी किंतु कमीज की दशा देखकर छुटकी रुंआसी हो गई। मैडमजी ने कहा था कि सभी को धुली हुई, प्रेस की हुई ‘ड्रेस’ पहन कर आना है। कोई अगर कुछ बोलना चाहे- जैसे कविता, भाषण आदि तो बोल सकता है। फिर बूंदी बटेगी और फिर सब परेड ग्राउंड जाएंगे। कविता और भाषण क्या होते हैं, छुटकी को ठीक-ठीक पता भी नहीं है। भाषण तो शायद वही होता है जो प्राचार्य जी बोला करते हैं। वह भला छुटकी कैसे बोल सकती है? रहा सवाल कविता का, तो उसे एक ही कविता आती है-‘‘मछली जल की रानी है...’’। दूसरी कोई कविता उसे अब तक ठीक से याद नहीं हुई। यह कविता भी उसे इसलिए याद हो गई क्योंकि उसने कई-कई बार कल्पना की है कि यदि वह भी मछली होती तो छुटकी नहीं बल्कि ‘रानी’ कहलाती। छुटकी अपनी बहनों में सबसे बड़ी होकर भी अपनी बित्ता भर की कद-काठी के कारण छुटकी कहलाती है। उसने एक बार अपनी अम्मा से कहा भी था,‘‘हमाओ नाम रानी रख देओ।’’

‘‘अपने बापू से कहियो। बेई तो लिवा ले गए रहे स्कूल। पढ़बे की न लिखबे की, बाकी स्कूल के नाम से जी चुराबे खों खूबई मिल जाता है।’’ अम्मा ने हुड़क दिया था।

छुटकी सकपका कर चुप हो गई थी। लेकिन मन ही मन उसने तय कर लिया था कि जब वह अम्मा जितनी बड़ी हो जाएगी तो अपना नाम छुटकी से बदल कर रानी रख लेगी। 


शायद आज पता चल जाएगा कि गणतंत्र क्या है?- छुटकी ने सोचा। छुटकी ने जब से स्कूल में दाखिला लिया है, तीन गणतंत्र दिवस पड़ चुके हैं। प्रत्येक गणतंत्र दिवस पर वह सवेरे से स्कूल गई है किन्तु आज तक उसकी समझ में यह नहीं आ सका है कि यह गणतंत्र दिवस है क्या? पिछले साल गणतंत्र दिवस पर प्राचार्य जी ने बताया था कि इसी दिन संविधान लागू किया गया था पर यह संविधान क्या है? इस बार वह ज़रूर पता लगाएगी कि यह संविधान है क्या बला? छुटकी ने मन ही मन निश्चय किया और कमीज पर हथेली फेर-फेर कर सिलवटों को दूर करने का प्रयास करने लगी।

‘‘काय री छुटकी, इते का कर रई है? स्कूल नई जाने का?’’ अम्मा ने छुटकी को चेताया। 

‘‘अम्मा, जे बुश्शर्ट....।’’ छुटकी ने सफ़ाई देनी चाही।

‘‘हौ तो, चल, जल्दी कर!’’ अम्मा ने छुटकी की बात काटते हुए कहा,‘‘चाय पी ले, चैका में उतई ढंकी धरी है।’’


छुटकी ने फटाफट स्कर्ट और कमीज पहनी। चोटियां पहले ही गूंथ चुकी थी। जल्दी से चैका में पहुंची और ननकी की तरह सुड़प-सुड़प कर के चाय पीने लगी। चाय गरम थी। बसी ढूंढने का ‘टेम’ नहीं बचा था। गरमा-गरम चाय गले से उतारते समय छुटकी की जीभ चटाक से जल गई। आंखों में आंसू छलछला आए। किन्तु स्कूल पहुंचने की जल्दबाज़ी ने उसके कष्टों की पीड़ा की कम कर दिया। चाय ख़त्म करते ही उसने अपने दाहिने हाथ की हथेली के उल्टे भाग से अपना मुंह पोंछा और अम्मा को आवाज़ देती हुई बोली-‘‘अम्मा दरवाज़ा भिड़ा लइयो!’’

‘‘तुमई भिड़ात जइयो! मोए तो इते दम मारबे खों फ़ुरसत नइयां।’’ अम्मा ने पलट कर आवाज़ दी।


छुटकी ने बाहर निकल कर दरवाज़े के पल्ले उढ़काए और स्कूल की ओर भाग चली। उसके तेज-तेज उठते पैरों के साथ-साथ उसकी हवाई चप्पलें फटर-फटर आवाज़ें करती रही थीं। चप्पलों के कारण उड़ती धूल सरसों का तेल लगे उसके पैरों पर चिपकती जा रही थी। पर छुटकी को इसकी परवाह नहीं थी। बल्कि कहना चाहिए कि छुटकी का ध्यान अपने पैरों की ओर था ही नहीं। 


स्कूल के दरवाज़े पर पहुंचते-पहुंचते छुटकी की सांसें भर आईं। वह हांफने-सी लगी। स्कूल का छोटा-सा मैदान लड़कियों से भरा हुआ था। झंडे वाले खंबे पर झंडा गुड़ीमुड़ी कर के बंधा था। प्राचार्य जी जब रस्सी खींच कर जब झंडे को खोलते हैं तो उसमें से गेंदा, गुलाब और चांदनी के फूल गिरते हैं। छुटकी की तीव्र इच्छा हुआ करती है कि वह झंडे के नीचे जा पहुंचे और सारे के सारे फूल बटोर ले। 


आज भी घंटा बजते ही सबकी सब लड़कियां कक्षावार पंक्ति में खड़ी हो गईं। मैडमजी लोग और प्राचार्य जी झंडे वाले खंबे के पास आ कर खड़े हो गए। प्राचार्य ने रस्सी खींची। झंडा फहराने लगा। फूल ज़मीन पर आ गिरे। सब लड़कियां जोर-जोर से ‘‘जन गण मन’’ गाने लगीं। छुटकी भी सभी के साथ होंठ हिला रही थी। किन्तु उसका ध्यान ज़मीन पर बिखरे फूलों पर केन्द्रित था। उसके हाथ उन फूलों को उठा लेने के लिए कुलबुलाने लगे। इतने में गान समाप्त हो गया। प्राचार्य जी भाषण देने के लिए आगे आए। छुटकी चैकन्नी हो गई। वह ध्यान से भाषण सुनने लगी। छुटकी को लगा कि वह यह सब तो नहले भी सुन चुकी है। शायद पिछले साल या फिर इसी साल पंद्रह अगस्त को। उसी समय उसे सुनाई पड़ा प्राचार्य जी कह रहे थे कि -‘‘संविधान का मतलब होता है नियम-क़ायदा। हमें नियम-क़ायदे से रहना चाहिए। किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।’’


तो ये होता है संविधान, छुटकी ने सोचा। उसे खुशी हुई कि उसे संविधान का मतलब पता चल गया। उसने खुश हो कर इधर-उधर देखा। मैडमजी लोग प्राचार्य जी का भाषण सुनती हुई कुछ खुसुप-पुसुर कर रही थीं। प्राचार्य जी का भाषण समाप्त हुआ। मैंडमजी ने आगे बढ़ कर कहा। सग लड़कियां अपनी-अपनी जगह पर बैठ जाएं। अब दो-तीन लड़कियां गाना गाएंगी फिर बूंदी बांटी जाएगी। छुटकी भी बैठ गई। गाना ख़त्म होते ही बूंदी बंटनी शुरू हो गई। छुटकी की हथेली जितने छोटे-छोटे पैकेट में भरी हुई बूंदी। बूंदी ले कर सब लड़कियां परेड ग्राउंड चल दीं। छुटकी को घर लौटना था। अम्मा ने सीधे घर आने को कहा था। वह घर की ओर भागी।


घर के आंगन तक पहंुचते ही उसे ननकी का रोना और भीतर से गाली-गलौज़ की आवाज़ें एक साथ सुनाई पड़ीं। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बाबू अम्मा को मार रहे थे। रोज़ मारते हैं, गालियां देते हैं। अम्मा रोती है, चिल्लाती है और कुटती-पिटती रहती हैं। दरवाज़े पर रोती खड़ी ननकी को छुटकी ने उठा कर कइयां ले लिया। वह आंगन के उस कोने में पहुंच गई जहां धूप के टुकड़े फुदकते रहते हैं। उसने ननकी को कइयां से उतार कर ज़मीन पर बिठा दिया। खुद भी बैठ गई। और बूंदी का पैकेट खोलने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी ननकी की नन्हीं हथेली पर रख दी। ननकी रोना भूल कर बूंदी की ओर ताकने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी खुद फांक ली। 


बूंदी की मिठास महसूस करती हुई छुटकी सोचने लगी कि आज प्राचार्य जी ने बताया कि संविधान का मतलब होता है, हमें लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। पढ़ना-लिखना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि संविधान पढ़ने-लिखने वालों के लिए होता है, अम्मा-बाबू के लिए संविधान नहीं होता, शायद। और इन धूप के टुकड़ों के लिए? ननकी के लिए? क्या सबके लिए नहीं होता संविधान? छुटकी अपने सवालों के जाल में उलझने लगी।    

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( मेरे कहानी संग्रह ‘‘बाबा फ़रीद अब नहीं आते’’ से )


मंगलवार, जनवरी 19, 2021

दैनिक जागरण, नईदुनिया के सप्तरंग परिशिष्ट में मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ की वरिष्ठ समीक्षक राजेन्द्र राव जी द्वारा की गई समीक्षा - डाॅ शरद सिंह

Shikhandi, Novel of Dr Sharad Singh - Review in Dainik Jagran, Saptrang, Punarnava, 18.01.2021 by Rajendra Rao
Shikhandi, Novel of Dr Sharad Singh - Review in Jagaran, Naidunia, Satrang Punarnava, 18.01.2021 by Rajendra Rao

 दिनांक 18.01.2021 को दैनिक जागरण, नईदुनिया के सप्तरंग परिशिष्ट में मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ की वरिष्ठ समीक्षक राजेन्द्र राव जी द्वारा की गई समीक्षा प्रकाशित हुई है। 

https://epaper.naidunia.com/mepaper/18-jan-2021-74-indore-edition-indore-page-10.html

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ब्लाॅग पाठकों की पठन-सुविधा हेतु प्रकाशित समीक्षा लेख जस का तस मैं यहां टेक्स्ट रूप में प्रस्तुत कर रही हूं- 

"डाॅ. शरद सिंह हिंदी के उन विरल कथाकारों में हैं, जो लेखन पूर्व शोध में संलग्न होते हैं। यह कृति विरल कथासागर महाभारत से एक अनोखे चरित्र के जीवन और संघर्ष को पर्त-दर-पर्त उद्घाटित करती है, एमदम नए नज़रिए और नए अंदाज़ से।

काशी नरेश की ज्येष्ठ पुत्री अंबा और उसकी दो बहनों का अपहरण भीष्म द्वारा बलपूर्वक किए जाने के और कुरु वंश के राजकुमारों से विवाह किए जाने को सहन न करने और प्रतिकार करने के बाद वह निस्संग और निरुपाय हो कर भी अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा करती है और इसके लिए उसे किस तरह तीन जन्म और स्त्री-पुरुष दोनों के चोले धारण करने पड़ते हैं, इसका उद्देश्यपूर्ण और रोचक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। अंत होते-होते इसका वैचारिक पक्ष सघन स्त्रीविमर्श के रूप में सामने आता है जो पाठक को सहज ही स्वीकार्य हो सकता है। यूं तो शिखंडी की कथा युग-युग से सुनी जाती रही है परंतु इसे मानवीय और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से कहा जाना एक अभिनव प्रयोग है।"

- राजेन्द्र राव

दैनिक जागरण (सप्तरंग), नईदुनिया (सतरंग) साहित्यिक पुनर्नवा, 18.01.2021

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हार्दिक धन्यवाद आदरणीय राजेन्द्र राव जी 🌹🙏🌹

हार्दिक धन्यवाद नईदुनिया 🌹🙏🌹

Shikhandi Novel of Dr (Miss) Sharad Singh


सोमवार, जनवरी 18, 2021

बैठकी | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 

Baithaki, Story of Dr. (Miss) Sharad Singh

कहानी

             बैठकी

              - डॅा. (सुश्री) शरद सिंह


उसका नाम था सुखिया। ठीक उसी तरह जैसे अंधे का नाम नैनसुख। इसीलिए सुखिया और दुख-कष्टों का मानो सहेलियों जैसा नाता रहा। सुखिया की जल्दी शादी कर दी गई और शादी के बाद पांच-छः सालों में सुखिया की गोद में एक के बाद एक पांच बच्चे आ गए। सेहत गिर गई, स्तनों में दूध उतरना बंद हो गया। बच्चे ज़्यादा और आमदनी अनिश्चित। अब, बच्चों की भूख मार-पीट से तो दबाई नहीं जा सकती। इसीलिए सुखिया ने अपनी पड़ोसन की मदद से बीड़ी बनाने का काम जुटा लिया। पांच बच्चों के बीच बैठ कर बीड़ी बनाना कोई हंसी-खेल तो था नहीं। एक को भूख लगती तो दूसरा टट्टी-पेशाब जाने के लिए निकर उतरवाने आ खड़ा होता। एक बेटी वहीं बाजू में बैठ कर जुंए मारने लगती और दूसरी उसकी की पीठ पर धौल जमा कर उसे झगड़े के लिए उकसाने लगती। सुखिया गोद वाली बेटी को झूलने में डाल कर पास ही बैठ जाती मगर जब झूलने वाली बेटी झूलने में पड़ी-पड़ी पेशाब कर देती तो सुखिया को बीड़ी-पत्ते और तंबाकू का सूपा तत्काल हटाना पड़ता। वरना पत्ते या तंबाकू खराब हो सकते थे।

 

इतनी सारी मुसीबतों से जूझती हुई सुखिया बीड़ी बना कर जब ठेकेदार के पास ले जाती तो वह उनमें दर्जनों नुख़्स निकाल कर पैसे काट लेता। झुंझलाई हुई सुखिया घर लौटती तो अपनी संतानों पर बरस पड़ती। आखिर उसकी खीझ और क्रोध कहीं तो निकलता ही। 

 

यूं तो सुखिया अपनी ज़िन्दगी से तंग आ गई थी लेकिन उसका हौसला अभी टूटा नहीं था। उसने सोचा कि ऐसे तो ज़िन्दगी कटने से रही, कुछ और करना ही होगा। अपनी उसी पड़ोसन से सलाह-मशविरा करने के बाद सुखिया को यह विचार पसन्द आया कि साप्ताहिक बाज़ार में जा कर सब्ज़ी बेेची जाए। सुखिया ने अपने पति से कहा कि वह सवेरे सायकिल से सब्ज़ी-मंडी जा कर सब्ज़ी ले आया करे लेकिन पति को इस काम में अपनी इज़्जत कम होती लगी। एक ठेकेदार के यहां चौकीदारी का काम करने वाले पति को यह मंज़ूर नहीं हुआ। अतः सुखिया ने स्वयं सब्जी-मंडी जाने का निर्णय लिया। 


साप्ताहिक-हाट की सुबह सुखिया सब्ज़ी-मंडी जा पहुंची। सब्ज़ियों से भरे हुए बोरे और उन्हें खरीदने के लिए चल रही मारा-मारी को देख कर सुखिया घबरा गई। फिर साहस करके वह भी कूद पड़ी भाव-ताव के मैदान में। पन्द्रह मिनट में उसने वे सब्ज़ियां खरीद लीं जिन्हें वह हाट में बेच सकती थी। अब समस्या थी सब्ज़ियों को घर ले जाने की। हाट तो दोपहर से लगती थी। चिन्ता में डूबी सुखिया सोच ही रही थी कि उसे किसी ने टोका।


वह राजू था, मुहल्ले का लड़का। राजू के पूछने पर सुखिया ने उसे बताया कि वह सब्ज़ी खरीदने आई थी। सब्जी तो उसने खरीद ली लेकिन अब उन्हें घर ले जाने की दिक्कत है। ऑटो-रिक्शा वाले ज़्यादा पैसे मांग रहे हैं और टेम्पो-स्टेंड दूर है ।


इस पर राजू मुस्कुरा कर बोला-‘बस, इतनी-सी बात? चलो, मैं ले चलता हूं तुम्हारी सब्ज़ियां। मोपेड है मेरे पास। चलो तुम भी पीछे बैठ जाओ।’ 


सुखिया सकुचा कर बोली- ‘नहीं-नहीं, तुम सब्जियां भर ले जाओ, मैं टेम्पो से आ जाऊंगी।’ 


तब राजू ने झिड़की भरे स्वर में कहा-‘टेम्पो में पैसे खर्च करोगी? इत्ते पैसे हो गए?’ 


इस पर सुखिया मना न कर सकी। वह डरती-सहमती राजू की मोपेड की पिछली सीट पर बैठ गई। वह जीवन में पहली बार किसी मोपेड पर सवार हुई थी। अच्छा लगा उसे। उसने सोचा कि सब्ज़ियां बेच-बेच कर जब चार पैसे हो जाएंगे उसके पास तो वह भी अपने पति के लिए मोपेड खरीदेगी। 


घर पहुंचते ही राजू ने मुसकुराते हुए सुखिया से एक कप चाय की मांग कर दी। राजू का यूं हंस कर चाय मांगना सुखिया को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन यह सोच कर तसल्ली भी हुई कि वह पहली बार बाज़ार में सब्जी ले कर बैठने जा रही है, वहां कोई जान-परिचय वाला होना जरूरी है। 


दोपहर हुई। राजू आ धमका। राजू ने एक अनुभवी की तरह सलाह दी कि हाट तक उसकी मोपेड पर ही चली चले वरना उसे सब्जियां ले जाने में परेशानी होगी। सलाह मानने के अलावा और चारा ही क्या था। सुखिया राजू की मोपेड में बैठ कर हाट जा पहुंची। 


राजू ने बाज़ार में अपनी दुकान सजाते हुए कहा- ‘मेरे साथ ही बैठ जाओ, भौजी! नहीं तो अलग से बैठकी देनी पड़ेगी।’ 


‘बैठकी’ सुखिया के लिए यह शब्द नया था। फिर राजू ने उसे बताया कि हाट में सामान बेचने के लिए बैठने की जगह पाने के लिए जो फीस देनी पड़ती है उसी को ‘बैठकी’ कहते हैं।


‘कितने पैसे लगते हैं ?’ सुखिया ने चिन्तित हो कर पूछा।


‘आठ, दस, पन्द्रह... ये तो वसूली वाले तय करते हैं। खैर, तुम चिन्ता मत करो, तुम तो मेरे साथ बैठो। मैं कह दूंगा कि तुम मेरे घर की हो.... घरवाली जैसी !’ राजू बेशर्मी से हंस कर बोला।


‘क्या?’ सुखिया चौंक कर बोली।


‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। वैसे, मेरे घर की हो तुम, ये तो कहना ही पड़ेगा।’ राजू पूर्ववत् हंस कर बोला। 


मन मसोस कर रह गई सुखिया। ज़रूरत भी क्या-क्या दिन दिखा देती है। थोड़ी देर में बैठकी वसूलने वाले आए। राजू ने उसे अपने घर की बता कर उसकी बैठकी के पैसे बचवा दिए। इसके बाद तीन-चार घंटे हाट की गहमागहमी में डूबे रहे दोनों।


शाम ढले सुखिया को हाट से वापस घर पहुंचाते समय सुखिया ने दस रुपए का नोट राजू को थमाते हुए कहा- ‘ये रख लो, बैठकी के पैसे।’


‘ग़ज़ब करती हो भौजी, तुमसे रुपए लूंगा बैठकी के?’ कहते हुए राजू ने दस का नोट वापस सुखिया की मुट्ठी में दबा दिया। इस प्रक्रिया में उसने अपने दोनों हाथों से सुखिया की मुट्ठी पकड़ी और अपने सीने से लगा लिया। सुखिया कंाप कर रह गई। संकेत स्पष्ट था। अनपढ़ ही सही लेकिन सुखिया थी तो औरत ही। राजू के जाने के बाद भी सुखिया के शरीर से कंपकपी गई नहीं। वह हताशा से भर कर ज़मीन पर बैठ गई।

  

वह सोचने लगी। बैठकी तो देनी ही होगी उसे, अब बाज़ार-वसूली वालों की बैठकी दे या राजू की ‘बैठकी’? राजू को ‘बैठकी’ नहीं देगी तो वह उसकी मदद नहीं करेगा लेकिन राजू की ‘बैठकी’ की वसूली का कोई अंत होगा क्या? वसूली वालों की बैठकी तो दस-पन्द्रह रुपयों पर जा कर ठहर ही जाएगी मगर राजू? वह परिवार का सुख बनाने के लिए घर से निकली है या सुख मिटाने के लिए? 


सुखिया सोच-विचार कर ही रही थी कि उसकी चौथी बेटी आ कर उसके कंधों से चिपट गई। बेटी का स्पर्श पाते ही सुखिया को ख़याल आया कि यदि वह राजू का प्रस्ताव मानती है तो उसकी इन बेटियों का भविष्य क्या होगा? क्या माहौल मिलेगा इन्हें? राजू जैसे लोगों इनके आसपास मंडराएंगे....।


‘नहीं ! नहीं चाहिए मुझे राजू का सहयोग।’ बेटी के लाड़ भरे स्पर्श ने ही सुखिया को निर्णय पर पहुंचा ही दिया। उसने तय कर लिया कि अगले हाट में वह वसूली वालों को ही बैठकी देगी। भले ही उसे मंडी से सिर पर सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट तक सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट में बैठने को अच्छी जगह न मिले। बस, एक पल का निर्णय पूरी ज़िन्दगी को स्वर्ग या नर्क बना सकता है और वह निर्णय सुखिया ने ले लिया था। निर्णय लेते ही सुखिया का दिल हल्का हो गया और वह अपनी बेटी को गोद में बिठा कर दुलारने लगी।

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शुक्रवार, जनवरी 08, 2021

पुराने कपड़े | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Purane Kapade, Story of  Dr. (Miss) Sharad Singh
कहानी

पुराने कपड़े

 -   डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 सागर से कानपुर जाते समय रास्ते में एक ढाबे पर गाड़ी रोकी गई। गाड़ी हम सबने मिल कर किराए पर ली हुई थी अतः हम अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। जहाँ चाहे वहाँ रुक कर दानापानी का जुगाड़ कर सकते थे। सागर में झाँसी के बीच हम रुके थे। झाँसी में भी हम रुके थे। इसके बाद इरादा तो यही था कि अब अपनी मंज़िल अर्थात कानपुर पहुँच कर ही गाड़ी से उतरेंगे। किंतु हम अपने निश्चय पर अडिग न रह सके। किसी को लघुशंका की आवश्यकता महसूस होने लगी तो किसी को प्यास लगने लगी और स्वयं मेरा शरीर बैठेबैठे जाम होने लगा था।

हमारी गाड़ी का ड्राइवर भी मस्तमौला जीव था। वह हर बात के लिए तैयार रहता था। चलते रहना हो तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी और यदि ठहरना हो तो उसे कोई परेशानी नहीं थी। खानेपीने के मामले में भी वह सहमति से भरा हुआ था। कोई नानुकुर नहीं। कुल मिला कर यात्रा मज़े में चल रही थी कि हम एक ढाबे में जा उतरे।

जाती हुई ठंड की कुहरे भरी सुबह, वैसे सुबह क्या थी, यही कोई दस बज रहे थे। उस हल्के कुहरे में गाड़ियों की आवाजाही से उड़ने वाली धूल की पर्त एक अजीब धुँधलका रच रही थी। इस धुँधलके में सूरज की किरणें भी कमज़ोर और शीतखाई हुई प्रतीत हो रही थीं।

भाई साहब गाड़ी से उतरते ही लघुशंका के लिए एक ओर चले गए। भाभी अपनी शॉल सम्हालती हुई मोल्डेड कुर्सी पर जा बैठीं। ड्राइवर ढाबे के तंदूरीचूल्हे के मुहाने पर जा खड़ा हुआ। वह चूल्हे की आँच में अपने हाथ सेंकने लगा। उसे हाथ सेंकता देख कर मेरी भी तीव्र इच्छा हुई कि मैं भी उसकी तरह चूल्हे के मुहाने पर जा खड़ी होऊँ लेकिन मैं जानती थी कि यह भाई साहब को कतई पसंद नहीं आएगा और मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती थी जिससे इस सफ़र में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो। मैं भी सिहरती, ठिठुरती ऊँगलियों को आपस में रगड़ कर ग़रम करने का असफल प्रयास करती हुई भाभी की बगल वाली कुर्सी पर जा बैठी। कुर्सी भी अच्छीखासी ठंडी थी।

'कुर्सी बहुत ठंडी है।' कुर्सी पर बैठते ही मेरे ठहात मुँह से निकला।
'बैठ जाओ, बैठने से गरमा जाएगी।' भाभी बोली।

'कुर्सी तो गरमा जाएगी लेकिन मैं ठंडी हो जाऊँगी।' मैंने फीकी हँसी हँसते हुए कहा। भाभी ने भी मेरी हँसी में साथ देना चाहा लेकिन भाई साहब को अपनी ओर आते देख कर चुप रह गई। भाई साहब भी चूल्हे की ओर बढ़ लिए। तब तक ढाबे पर काम करने वाले लड़के ने चाय के गिलास हमारे सामने वाली मेज पर रख दी। यद्यपि उस समय तक हम दोनों से किसी ने नहीं पूछा था कि हमें चाय पीनी है या नहीं? शायद बड़प्पन के रंग में रंगे हुए पुरुष अपनी इच्छा को दूसरे की इच्छा साबित करके अपना अधिकार जताना पसंद करते हैं। भाई साहब ने खुद ही मान लिया कि ठंड के कारण हमें चाय पीने की इच्छा हो रही होगी। कुछ भी मान लेना कितना आसान होता, बजाए सच जानने के।

चाय का गिलास अभी मैंने अपने होठों से लगाया ही था कि वातावरण 'काँयकाँय' की हृदयभेदी ध्वनि से भर गया। मैंने चौंक कर उस ओर देखा जिधर से वह आवाज आई थी। एक छोटा, नन्हासा पिल्ला चूल्हे के बुझे हुए मुहाने से 'काँयकाँय' करता हुआ निकल रहा था। उस पिल्ले ने मुहाने से बाहर निकलने का प्रयास किया और फिर लड़खड़ाता हुआ वापस मुहाने में घुस गया। मुहाने के भीतर से भी उसकी दर्दनाक आवाज पंचम सुर में सुनाई दे रही थी। एकबारगी ऐसा लगता था मानो चूल्हा ही रो रहा हो। पल दो पल बाद वह पिल्ला पुनः बाहर आ गया। इतने में लगभग उसी का हमउम्र पिल्ला भी किसी मेज के नीचे से निकल कर उसके पास जा पहुँचा। अब वे दोनों पिल्ले हमारे कौतूहल का केंद्र बन गए। रोने वाला पिल्ला दूसरे पिल्ले से सट जाना चाहता था जिससे हम समझ गए कि वह ठंड लगने के कारण रो रहा है। लेकिन दूसरा पिल्ला शरारती किस्म का था। वह उस रोने वाले पिल्ले की टाँगपूँछ खींचने लगा तथा उसे और सताने लगा। घबरा कर वह रोने वाला पिल्ला वापस चूल्हे के मुहाने में घुस गया। दूसरे पिल्ले ने चूल्हे के भीतर घुस कर उसे बाहर निकालने का प्रयास किया लेकिन वह सफल न हो सका। वह रोने वाला पिल्ला न तो मुहाने से बाहर आया और न उसने रोना बंद किया।

अब मुझे उसके रुदनस्वर से झुँझलाहट होने लगी थी। हम वहाँ कुछ देर और ठहरने वाले थे। कारण कि भाई साहब ने ढाबे वाले को आलू के पराठे बनाने का आदेश दे दिया था। हमसे इस बार भी पूछा नहीं था। मुझे खीझ होने लगी थी उनके इस बड़प्पन के थोथे प्रदर्शन से। अचानक मुझे लगा कि जब चूल्हे के एक मुहाने पर लकड़ियाँ धधक रही हैं तो उसकी आँच और गरमाहट दूसरे मुहाने पर भी पहुँच रही होगी फिर वह पिल्ला रोए क्यों जा रहा है? वहाँ तो उसे ठंड नहीं लगनी चाहिए। बहरहाल, उस पिल्ले के रोने का कारण जानना संभव नहीं था। वह चूल्हे की गुनगुनी राख में दब कर भी रो रहा था। उसकी उस दशा को देख कर मेरे मन में अचानक एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या दादी की गोरसी (अंगारे रखने का मिट्टी का बरतन) की राख में दबे हुए अंगारे भी क्या कभीकभार इसी तरह रोते होंगे? माना कि अंगारे निर्जीव होते हैं लेकिन उनमें बसी हुई आग उनके जीवित होने का भ्रम उत्पन्न करती रहती है। ठीक दादी की तरह।

हम दादी को ही लेने तो जा रहे थे। दो दिन पहले ही छोटे भइया ने चिट्ठी लिख कर जता दिया था कि वे अब दादी को अपने पास रखना नहीं चाहते हैं। ऐसे में एक मात्र विकल्प यही था कि दादी भाई साहब के पास आ कर रहने लगें। भाई साहब ये चाहते तो नहीं थे लेकिन दादी को लाना उनकी विवशता बन गई थी। क्या दादी भी छोटे भइया के घर से विस्थापित होने के दुख में इस पिल्ले की भाँति रोती होंगी? नहीं दादी इंसान हैं और इंसान अपने अधिकतर दुख चुपचाप पीता रहता है, वह खुल कर रो भी नहीं पाता है। मेरी आँखों के आगे दादी का झुर्रियों भरा चेहरा तैर गया।

छोटे भइया के घर पहुँच कर मेरी क्या भूमिका रहनी है, इसका मुझे पता नहीं था? बस, भाई साहब ने कहा कि सुमन तुम्हें भी चलना है कानपुर और मैं उनके साथ हो ली। वैसे मुझे लग रहा था कि मुझे अपने साथ ले कर चलने के पीछे भाई साहब का उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मेरी उपस्थिति में छोटे भइया या उनकी बीवी अधिक बहसबाज़ी नहीं करेंगे। कारण कि मैं उनकी सगी बहन नहीं हूँ, दूर के रिश्ते की बहन हूँ। रिश्तों के समीकरण भी कितने विचित्र होते हैं। स्वार्थ के लिए दूर के रिश्ते निकट में बदल जाते हैं और निकट के रिश्ते दूर होते चले जाते हैं। दादी इन दोनों भाइयों की सगी दादी है लेकिन दोनों बोझ मानते हैं उन्हें और एक अनचाही, पुराने कपड़ों की गठरी की तरह अपनी पीठ से उतार कर दूसरे की पीठ पर लादने की फिराक में रहते हैं। क्या दादी ने अपनी जवानी में अपने बुढ़ापे के बारे में कभी ऐसा सोचा होगा? नहीं, कोई नहीं सोचता है। सोच भी कैसे सकता है कि उनके अपने रक्त-संबंधी एक दिन उन्हें पुराने कपड़ों की गठरी समझने लगेंगे।

पुराने कपड़ों से छुटकारा पाना कितना सुखद होता है अगर उनके बदले स्टील का कोई सस्तासा बर्तन, प्लास्टिक का सामान या ऐसा ही कोई फालतू सामान मिल जाए। जाने कितने लोग अपने कान खड़े किए रहते हैं बर्तन या सामान के बदले रद्दी कपड़े लेने वालों की आवाज की प्रतीक्षा में।

अब तो वृद्धाश्रम का भी अच्छाखासा चलन बढ़ गया है, एक दिन भाई साहब किसी से चर्चा कर रहे थे। शायद भाई साहब के मन के किसी कोने में यह बात उमड़तीघुमड़ती होगी कि दादी जैसी रद्दी कपड़ों की गठरी को वृद्धाश्रम में सौंप कर जीवन का दायित्वहीन पल हासिल किया जा सकता है। मगर, भाई साहब का दुर्भाग्य कि सागर अभी इतना प्रगतिवान शहर नहीं बना है जहाँ वे दादी को वृद्धाश्रम के हवाले कर के चैन से रह सकें। मोहल्ले, पड़ोस, परिचित सब के सब टोकेंगे। अच्छीखासी भद्द उड़ेगी। अतः दादी को अपने साथ ही रखना होगा, हर हाल में। यह विवशता उनके हर हावभाव में परिलक्षित हो रही थी। शायद यही कारण था कि वे बातबात में चिड़चिड़ा रहे थे। बारबार असहज हो उठते थे। ऐसा माना जाता है कि घर की बहुएँ अपने घर में वृद्धाओं को पसंद नहीं करती हैं। वे उन्हें स्वतंत्रता में बाधा मानती हैं। क्या भाभी भी ऐसा मानती हैं?

  'भाभी, अब तो दादी आपके साथ ही रहेंगी। आपको परेशानी होगी न?' मैंने भाभी से पूछ ही लिया।

'उनके रहने से परेशानी कैसी, सुमन? घर में कोई बड़ाबूढ़ा रहे तो अच्छा ही लगता है।' भाभी ने उत्तर दिया।

'लेकिन छोटी भाभी तो ऐसा नहीं मानती हैं, तभी तो वे दादी को अपने साथ नहीं रखना चाह रही है।' मैंने कहा।

'छोटी को जो मानना हो माने, मैं तो ऐसा नहीं मानती हूँ।' भाभी बोलीं।

'और भाई साहब?' मैंने पूछा।

'उनकी वे जानें। वे चाहे दुत्कारें चाहे प्यार करें, उनका सब चलेगा। जो मैं कुछ कहूँगी तो चार बातें होने लगेंगी।' भाभी ने उसाँस भरते हुए कहा।
'ओह, तो ये बात है, भाभी के मन में दादी के लिए प्यार नहीं बल्कि चार बातों का डर है जो भाभी को मौन रखे हुए है। वैसे उनकी बात अपनी जगह ठीक भी है, जब दादी के सगे पोते को उनकी ललक नहीं है तो पराए घर से आई पोतोहू कहाँ से जगाएगी ललक।'

अपने मन में उमड़तेघुमड़ते विचारों से जूझते हुए मैंने कब पराठा खा लिया, मुझे पता ही नहीं चला। पराठे के स्वाद का अहसास भी नहीं हुआ। बस, इसी तरह आगे का रास्ता भी तय हो गया। ढाबे से कानपुर तक के रास्ते के बीच जिस चीज ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह था, सड़क के दोनों किनारों में लगे पेड़ और पेड़ों के साथ नहरनुमा जमीन में सहेजा गया पानी।

'ये पेड़ तो हमेशा पानी में डूबे रहते हैं, इससे इनकी जड़ों को नुकसान नहीं पहुँचता?' मैंने भाई साहब से पूछा।

'नहीं, इस पानी के कारण ही तो इन पेड़ों में आम की अच्छी फसल आती है।' उत्तर ड्राइवर ने दिया।

ड्राइवर का उत्तर सुन कर मेरा ध्यान गया कि वे पेड़ आम के थे। पेड़ों के परे सड़क के दोनों ओर हरियाले खेत बिछे हुए थे। सारा दृश्य अत्यंत सुरम्य था। मगर हम तीनों के मन का उद्वेलन उस दृश्य को आत्मसात करने में आड़े आ रहा था।

शाम से कुछ पहले हमने कानपुर के औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेश किया। कारखानों के घनीभूत प्रदूषण ने हमारा ऐसा स्वागत किया कि मुझे उबकाई आने लगी और भाभी को खाँसी के ठसके लगने लगे। मैंने गाड़ी से बाहर झाँक कर देखा। सड़क पर गुजरते लोगों या दूकान पर सामान ख़रीदतेबेचते लोगों के लिए सबकुछ सामान्य था। पापी पेट कितनी आसानी से समझौता करवा देता है हर परिस्थिति से, यह मुझे दिखाई दे रहा था। आम आदमी में पर्यावरण के प्रति चेतना की बात करना तो अपने देश में महज नारेबाजी जैसा लगता है। हमारी संवेदनाएँ हमारे स्वार्थ के इर्दगिर्द रहती है। हम अपने घर का कूड़ाकचरा दूसरे के घर के दरवाज़े पर फेंक कर अपनी सफ़ाई की आदत पर नाज कर लेते हैं। फिर कूड़ा फेंकतेफेंकते इंसानों को भी फेंकने लगते हैं, इस चौखट से उस चौखट। छोटे भइया यही तो करने जा रहे हैं। पहले भाई साहब एक बार यह कर चुके हैं।

छोटे भइया के घर पहुँचते ही दादी ने मुझे अपने गले से लगा लिया। मेरा मन भर आया। उनकी कमज़ोर कलाइयों में स्नेह की अपरिमित ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी। इस ऊर्जा को कैसे महसूस नहीं कर पाते हैं ये लोग? मुझे आश्चर्य हुआ। दादी ने भाई साहब और भाभी को भी अपने गले से लगाया। 'जुगजुग जीयो' का आशीर्वाद दिया। शायद, यह मेरा भ्रम था कि मुझे उनका यह अंदाज फ़कीराना लगा जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला, फ़कीरों और बुजुर्गों में शायद कोई अंतर नहीं रह जाता है। अंतर होता भी है, होगा तो सिर्फ इतना कि फ़कीर अपनी चिंता छोड़ कर इस फ़ानी दुनिया के लिए दुआ करते हैं और बुजुर्ग अपनी चिंता छोड़ कर अपने वंशजों के लिए दुआ करते हैं। दुआएँ सिर्फ दुसरों के लिए, अपने लिए एक भी नहीं।

रात्रि भोजन के बाद बैठक जमीं।

'दादी के सारे कपड़े मैंने इस सूटकेस में रख दिए हैं और उनकी थाली, लोटा वगैरह इस डलिया में है।' छोटी भाभी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा।
'थाली, लोटा क्या करना है? क्या दादी को खिलाने के लिए मेरे में घर में बरतन नहीं है?' भाई साहब ने भृकुटी तानते हुए व्यंग्य से कहा।

'आप के पास तो सब कुछ है भाई साहब, बस, इसीलिए तो दादी को आपके साथ भेज रहे हैं।' अबकी बार छोटे भइया ने मुँह खोला।
'हाँहाँ, क्यों नहीं, मेरे घर तो रुपयों का पेड़ लगा हुआ है।' भाई साहब अपनी तल्खी छुपा नहीं पा रहे थे।

'मेरे लिए रुपये क्या करने हैं बेटा, मुझे तो बस, एक जून एक रोटी दे दिया करना तो भी मेरा काम चल जाएगा। अब बचे ही कितने दिन हैं,' दादी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा। उनकी आवाज में कुछ ऐसा भाव था, मानो उन्हें अपने जीवित रहने पर लज्जा आ रही हो। दादी की निरीह स्थिति ने मुझे बौखलाहट से भर दिया।

'दादी को मैं अपने साथ रख लूँ तो?' मैं बोल पड़ी।
दोनों भाई चौंके। भाभियाँ भी। दूसरे ही पल उनके चेहरों पर आपत्ति के भाव तिर गए।

'कुछ दिनों के लिए।' मैंने तत्काल इतना और जोड़ दिया।
'देखेंगे।' भाई साहब बोले।

'दादी मेरे साथ कभी नहीं रही हैं, उन्हें अच्छा लगेगा, और मुझे भी।' मैंने एक तर्क और सामने रख दिया।

'ठीक है, अगर तुम यही चाहती हो तो...' भाई साहब ने अनमने स्वर में कहा लेकिन उनके उसी स्वर में कहीं बोझ हटने की खुशी का भाव भी झलक रहा था। अब, इस समय उन्हें अपने पुरुषत्वपूर्ण बड़प्पन की भी कोई चिंता नहीं थी।

'सोच लो सुमन, दादी को रखना आसान नहीं है। मैं ही जानती हूँ कि कैसे मैंने सम्हाला है इन्हें।' छोटी भाभी को मेरा प्रस्ताव पसंद नहीं आया था। आता भी कैसे? वे तो अपनी पीठ का बोझ उतार कर भाई साहब और भाभी की पीठ पर लाद कर खुश होना चाहती थीं। मेरे प्रस्ताव ने उनकी उस संभावित खुशी को छीन लिया था। लेकिन मुझे न तो उनके दुखसुख की चिंता थी और न भाई साहब की। मुझे चिंता थी तो सिर्फ दादी के अस्तित्व की। मैं उन्हें पुराने, रद्दी कपड़ों की गठरी की तरह उपेक्षित नहीं रहने देना चाह रही थी, चाहे मुझे कोई भी कठिनाई क्यों न झेलनी पड़े।

दादी को लेकर हम लोग सागर लौट आए। जैसी कि मुझे आशा थी, भाई साहब ने गाड़ी की दिशा पहले मेरे घर की ओर मोड़ दी। उन्होंने मुझे और दादी को सामान सहित उतारा और फिर चैन की साँस लेते हुए अपने घर चले गए। सहमीसिकुड़ी दादी मेरे घर की बैठक में रखे सोफे के एक कोने में बैठ गईं।

'बोलो दादी, क्या खाओगी?' मैंने दादी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा। मेरे पूछते ही मैंने महसूस किया कि दादी का हाथ काँपा और फिर उन्होंने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। कई दिनों, महीनों और शायद वर्षों की घुटन उनकी मुरझाई पलकों के नीचे से बह निकली।

'अब आप कहीं नहीं जाओगी, दादी, हमेशा यहीं रहोगी, मेरे पास।' मैंने अपने मन का रहस्य खोलते हुए कह डाला। दादी ने एक बार फिर मुझे अपने सीने से लगा लिया। वह पुराने कपड़ों की गठरी मानो सलमेसितारे टंके नयेताज़ा कपड़ों में बदल गई। मुझे अपना घर अच्छाअच्छा सा 

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रविवार, जनवरी 03, 2021

धूपवाली सुबह की उम्मीद | कथाकार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | कथापाठ | Dhoopwali Subah Ki Ummid | Short Story | Dr. (Miss) Sharad Singh | Story...


कहानी - 'धूपवाली सुबह की उम्मीद' 
कथाकार- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कथापाठ - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऑनलाइन कथापाठ में 27.12.2020 को पढ़ी गई कहानी। यह लघुकहानी कोरोना लॉकडाउन के दौरान बेरोज़गार हुए प्रवासी मजदूर परिवार के जीवनसंघर्ष पर आधारित है।

Story - 'Dhoopwali Subah Ki Ummid' (Hoping for a sunny morning)
Story Writer - Dr. (Miss) Sharad Singh
Narrator - Dr. (Miss) Sharad Singh

Story read by Dr (Ms) Sharad Singh on 27.12.2020 in online Kathapath (Storytelling) of Madhya Pradesh Hindi Sahitya Sammelan.  This short story  is based on the life struggle of a migrant labor family unemployed during the Corona lockdown.

You can listen this story on YouTube... https://youtu.be/Iiz1Sx3YZZQ

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