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मंगलवार, अक्तूबर 06, 2020

आलेख | नागार्जुन की दृष्टि में समाज और स्त्रियां | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

आलेख

नागार्जुन की दृष्टि में समाज और स्त्रियां

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


बाबा के नाम से पुकारे जाने वाले नागार्जुन का मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। वे अपने बचपन में ही मां की ममता से वंचित हो गए थे। पिता स्वभाव से लापरवाह होने के कारण पुत्र की ओर समुचित ध्यान नहीं देते थे। पोस्ट मधुबनी, जिला दरभंगा में जन्में नागार्जुन ने अपनी आरम्भिक रचनाएं मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से लिखीं। फिर हिन्दी में ‘नागार्जुन’ के उपनाम से लेखन किया। नागार्जुन ने सदा न्यायपूर्ण समाज का सपना देखा। उन्हें आमजन के दुख एवं पीड़ा से गहन लगाव था। वे जनसंघर्ष में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि जब आमजन अपनी पीड़ा को पहचान कर अपने हित में आवाज उठाएगा तभी उसे उसका अधिकार मिल सकेगा। बाबा सही अर्थो में जनकवि थे। जिस समय वे जनता के बारे में चिन्तन करते थे उस समय वे स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी मानने लगते थे। आमजन के प्रति ऐसा जुड़ाव हिन्दी काव्य साहित्य में विरल ही देखने को मिलता है।

Baba Nagarjun


नागार्जुन प्राचीन संस्कृति के अध्येता थे किन्तु उन्होंने रूढ़ियों और आडम्बरों का खुल कर विरोध किया। अपनी कविता में ‘‘ओम्’’ को अभिव्यंजना का आधार बनाते हुए कटाक्ष किया है -

ओम् शब्द ही ब्रह्म है

ओम् शब्द और शब्द

..................................

ओम् गुटनिरपेक्ष, सत्ता सापेक्ष जोड़-तोड़

ओम् छल-छंद, ओम् मिथ्या, ओम् होड़ माम होड़।


नागार्जुन ने समाज की विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए अपने काव्य में तीखे व्यंग को अस्त्र बनाया। ‘‘अकाल और उसके बाद’’ कविता में नागार्जुन अत्यंत भावुक किन्तु सजग स्वर में कटाक्ष करते हैं कि -

दाने  आए  घर के  अन्दर  कई दिनों के बाद

धुंआ उठा  आंगन  से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठीं घर भर की आंखें कई दिनों के बाद

कौए ने    खुजलाई पांखें   कई दिनों के बाद


नागार्जुन की संवेदना का केन्द्र गंाव रहा। किसानों और मजदूरों की दुर्दशा नागार्जुन से छिपी नहीं थी। उन्होंने आजादी के तेरह वर्ष पूरे होने के समय ग्रामीण क्षेत्र में शक्ति के दुरुपयोग और कमजोरों के प्रति दुव्र्यवहार को बड़ी ही दृश्यात्मकता के साथ वर्णित किया। 

मरो  भूख से,  फौरन  आ धमकेगा  थानेदार

लिखवा लेगा  घरवालों से,  वह तो थ बीमार

जीभ कटी है  भारत माता  मचा न पाती शोर

देखो धंसी-धसीं ये आंखें, पिचके-पिचके गाल

कौन कहेगा, आजादी के बीते तेरह साल।। 


‘‘जनशक्ति’’ के 14 अगस्त 1960 के विशेषांक में प्रकाशित कविता में नागार्जुन के भीतर का निर्भीक कवि अन्याय करने वालों को ललकारते हुए पूछता है-

लाख-लाख श्रमिकों की गरदन कौन रहा है रेत

छीन चुका हे कौन करोड़ों खेतिहरों के खेत

किसके बल पर कूद रहे हैं सत्ताधारी प्रेत.......


ग्रामीण परिवेश और मां के प्रेम के अभाव ने नागार्जुन को समाज और स्त्रियों के प्रति विशेष दृष्टिकोण दिया। जब वे किसी खेतिहर मजदूर का शोषण होते देखते तो व्याकुल हो उठते कि एक सबल मनुष्य दूसरे निर्बल मनुष्य का शोषण क्यों कर रहा है? दोनों मनुष्य होकर भी एक-दूसरे से इतने भिन्न क्यों हैं? इसी प्रकार विधवा स्त्रियों की दीन-दशा देख कर उन्हें लगता कि यह स्त्री भी मनुष्य है, फिर यह अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कयों नहीं करती है? यह समाज से अपने अधिकार क्यों नहीं मांगती है? यह सभी प्रश्न नागार्जुन के मन को जीवनपर्यन्त उद्वेलित करते रहे जिससे उनकी प्रत्येक रचना पहले से अधिक धारदार होती गई। उन्होंने अपनी कविताओं में वामपंथी विचारों का अनुमोदन किया किन्तु इससे उनके भावबोध, भाषा एवं लालित्य पर तनिक भी आंच नहीं आई। 

नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जिस प्रकार सामाजिक विकृतियों पर प्रहार किया है वह समाज दर्शन की गहन दृष्टि के बिना संभव नहीं था। उन्होंने आमजन के जीवन को निकट से देखा और अनुभव किया था। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गांव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहां स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी मानसिकता के कारण ग्रामीण स्त्री पारिवारिक मसलों में भी शामिल नहीं हो पाती है। जहां पुरुष हों वहां पुरुष का ही कब्जा रहता है, चाहे घर का आंगन ही क्यों न हो। इस तथ्य को ‘वरुण के बेटे में ’ नागार्जुन ने बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है-‘‘प्रायमरी स्कूल का वह मितहा मकान गंाव के पूर्वी छोर पर था, तीन तरफ से घिरा हुआ। अंगनई का अगला हिस्सा तग्गर कनेर, बेला हरसिंगार के बाड़ों से घिरा था। बिरादरी के बालिग मेम्बरान जुटे थे, भोला, खुरखुन, बिलुनी, रंगलाल....नंदे वगैरह-सारे के सारे। पचास-साठ जने होंगे। औरत एक भी नहीं।’’


Ratinath Ki Chachi - Novel of Nagarjun

‘‘ रतिनाथ की चाची’’ और जमुनिया का बाबा’’ जैसे उपन्यासों में नागार्जुन भारतीय समाज में स्त्रियों के शोषण के विरुद्ध डट कर खड़े मिलते हैं।

Dukhmochan - Novel of Nagarjun

‘‘दुख मोचन’’ की माया विधवा है। लेकिन उसमें अदम्य साहस है। वह अपने प्रेमी से अपने पुनर्विवाह के बारे में स्पष्ट शब्दों में चर्चा करने का माद्दा रखती है। उसे समाज के कोप का भय नहीं है। हिन्दी उपन्यासों में संभवतः वह पहली स्त्री पात्र है जो इस प्रकार के साहस का प्रदर्शन करती है। यह नागार्जुन के स्त्रियों के प्रति सम्मान भाव के साथ ही स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा का भी भाव था। वे मानते थे कि जिस प्रकार पुरुष समग्रतापूर्वक अपना जीवन जीना चाहता है उसी प्रकार स्त्री को भी जीवन जीने के समग्र अधिकार मिलने चाहिए। 

Paro - Novel of Nagarjun

‘‘पारो’’ में नागार्जुन वैचारिक स्तर पर स्त्री के विद्रोह को सामने रखते हैं। पन्द्रह वर्ष की पारों का विवाह पैंतालीस वर्ष के चौधरी से होता है। एक बच्चे को जन्म दे कर पारो की मृत्यु हो जाती है। ऊपर से शिष्ट और शालीन दिखने वाले चौधरी जी पशुवत् आचरण करते हैं। जिससे मृत्युपूर्व का अल्पकालिक वैवाहिक जीवन पारो के लिए नर्क की भांति कष्टदायक रहता है। भारतीय विवाहिता स्त्री के ‘पति परमेश्वर’ वाले संस्कारों से रची-बसी पारो भी चौधरी को पशु ही मानती है। नागार्जुन ने विवाह के संदर्भ में नाबालिग चौदह वर्षीया पारो के भय को इस संवाद के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से उकेरा है, जिसमें वह बिरजू से कहती है-‘‘भाई-बहन में ही शादी होती तो कितना अच्छा रहता, जहां-तहां के अनजान को लोग उठा लाते हैं। इसमें कहां की अकलमंदी है।’’

Kumbhipak - Novel of Nagarjun

‘‘कुम्भीपाक’’ में स्त्रियों को बेचने वालों के विरुद्ध स्त्रियों के संघर्ष की गाथा है। नागार्जुन ने ‘‘कुम्भीपाक’’ के स्त्रीपात्रों के माध्यम से जता दिया कि जो स्त्रियां समाज द्वारा प्रताड़ित हैं वे समाज के ठेकेदारों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी बजा सकती हैं। 

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At World Book Fair Delhi, From Left- Pooja Pandey, Ms Vyas, Dr Sharad Singh, Susham Bedi, Sunita Shanoo and Sushil Siddharth



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