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रविवार, फ़रवरी 09, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 26- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की छब्बीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 26
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
आज से साठ साल पूर्व के उस समय की कल्पना कीजिए जब स्मार्टफोन नहीं था, वाट्स अप नहीं था; पी. सी., लैपटॉप, टैबलेट नहीं थे; इंटरनेट नहीं था; डाकघर तो काफी थे, लेकिन तारघरों की संख्या उतनी नहीं थी (अब तो तारघर बंद ही हो गए हैं); और टेलीफोन भी एक दुर्लभ सेवा थी। अब तनिक विचार करिए कि उस समय के अखबार, समाचारों का संकलन किस विधि से करते थे! देश-विदेश की खबरें देने के लिए एकमात्र समाचार एजेंसी थी-प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया याने पीटीआई। अखबार के संपादकीय कक्ष में एक कोने में पीटीआई का टेलीप्रिंटर लगा होता था, जो सुबह नौ बजे चालू होता था और रात बारह-एक बजे तक उस पर समाचार आते रहते थे। जब कोई खास खबर हो तो प्रिंटर पर सामान्य टिक-टिक के अलावा तेज आवाज में घंटी बजने लगती थी। पीटीआई पर संवाद प्रेषण की भाषा अंग्रेजी होती थी, इसलिए संपादकों को अंग्रेजी ज्ञान होना लगभग एक अनिवार्य शर्त थी। उसके बिना समाचार का अनुवाद कैसे होता? जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी, उनका जीवन प्रांतीय समाचार डेस्क पर ही बीत जाता था। अपवाद स्वरूप ऐसे पत्रकार भी होते थे, जो अपने सामान्य ज्ञान और सहजबुद्धि के बलबूते कामचलाऊ अनुवाद कर लेते थे।

पीटीआई की सेवा भी सहज उपलब्ध नहीं थी। हमारे अखबार का जब प्रकाशन शुरू हुआ तो तकनीकी कारणों से प्रिंटर लगते-लगते छह माह बीत गए। इस दौरान आकाशवाणी से समाचार लेना ही एकमात्र उपाय था। 1963 में जब बाबूजी ने जबलपुर समाचार का प्रकाशन हाथ में लिया, तब भी यही मुश्किल पेश आई। हम लोग तब सुबह-दोपहर-शाम आकाशवाणी पर समाचार सुनते और द्रुत गति से उसे लिखते जाते। देवकीनंदन पांडेय, विनोद कश्यप, इंदु वाही आदि उस दौर के सुपरिचित समाचार वाचक थे। हममें से जिनके कान अंग्रेजी सुनने के अभ्यस्त थे, वे अंग्रेजी की बुलेटिन भी सुन लेते थे। इन दिनों संघ परिवार ने भी हिंदुस्तान समाचार नामक एक समाचार एजेंसी प्रारंभ की, लेकिन उसके समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। पीटीआई के मुकाबले एक नई सेवा यूएनआई (यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया) के नाम से 1968-69 में प्रारंभ हुई। वरिष्ठ पत्रकार जीडी मीरचंदानी इसके महाप्रबंधक व मुख्य संपादक थे। उनके आग्रह पर हमने शायद 1972 या 73 में पीटीआई बंद कर यूएनआई की सेवाएं ले लीं। रायपुर में हम अकेले ग्राहक थे तो उन्होंने अलग से दफ्तर नहीं खोला। नहरपारा के प्रेस में प्रिंटर लगा दिया गया। दिल्ली से एक युवा तकनीशियन सुधीर डोगरा को यूएनआई ने रायपुर भेज दिया, ताकि मशीन का रख-रखाव होता रहे। हंसमुख, मिलनसार और काम में मुस्तैद सुधीर कुछ ही समय में हमारे परिवार के सदस्य जैसे बन गए और वह आत्मीयता आज तक कायम है।

यह तो बात हुई देश-विदेश की खबरों की। प्रकाशन स्थल अर्थात रायपुर के समाचार लाने के लिए नगर संवाददाताओं की टीम होना ही थी। मुझे अगर ठीक याद आता है तो ''द स्टेट्समैन'' व ''हितवाद'' के संवाददाता मेघनाद बोधनकर के सिवाय किसी अन्य रिपोर्टर के पास स्कूटर या बाइक नहीं थी। हम सब साइकिल पर चलते थे। शारीरिक श्रम करने का अभ्यास था। भागते-दौड़ते काम करना दैनंदिन जीवन का अंग था। फिर शहर आज जैसा फैला हुआ भी नहीं था। पश्चिम में साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज; दक्षिण में टिकरापारा; उत्तर में फाफाडीह रेलवे क्रासिंग; और पूर्व में कृषि महाविद्यालय। रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, बस स्टैंड शहर के बीचोंबीच था; आयुक्त, जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक कार्यालय; अस्पताल, सर्किट हाउस, जनसंपर्क विभाग, सब पास-पास ही थे। कहीं से खबर मिलने की संभावना बनी तो साइकिल उठाई और दस-पंद्रह मिनट में वहां पहुंच गए। उन दिनों भी प्रेस विज्ञप्तियां आती थीं, लेकिन वे अधिकतर सूचनात्मक होती थीं। आज की तरह रेडीमेड खबरें छापने का चलन नहीं था।

रायपुर के बाहर के केंद्रों से अखबार के दफ्तर तक समाचार पहुंचाना अपेक्षाकृत समयसाध्य और कष्टसाध्य था। जशपुर हो या अंबिकापुर, जगदलपुर हो या कवर्धा, अमूमन समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। उन दिनों डाकघर में तीन दिन में तीन बार डाक छंटाई और वितरण की व्यवस्था थी। संवाददाताओं के भेजे हुए लिफाफे काफी कुछ तो अगले दिन मिल जाते थे, लेकिन बरसात के समय इसमें विलंब हो जाना स्वाभाविक था। फिर भी आज की खबर कल भेजी, परसों मिलीं, नरसों छपी-इस तरह एक खबर के छपने में तीन दिन लग जाना सामान्य बात थी। बहुत आवश्यक, तत्काल छपने लायक समाचार हुआ तो संवाददाता टेलीफोन का सहारा लेते थे, या तार भेजते थे। किंतु सब जगह न तो फोन थे और न तार की व्यवस्था। एक और विकल्प था- रेलवे स्टेशन अथवा बस स्टैंड पर रायपुर जा रहे किसी परिचित को खोजकर उसके हाथ में लिफाफा थमा देना- भैया, प्रेस तक पहुंचा देना। परिचित जन सहयोग देने में कोताही नहीं करते थे। फिर एक नई तरकीब निकाली, रायपुर बस स्टैंड पर हमने अपना मेल बॉक्स लगा दिया; ड्राइवर, कंडक्टर या परिचित यात्री रायपुर उतरकर उसमें खबरों का लिफाफा डाल देते। नियत समय पर कोई प्रेसकर्मी ऐसी डाक लेकर आ जाता।

उन दिनों देशबन्धु सहित सभी अखबारों में एक और प्रथा थी। अखबार के शीर्षक सहित संवादपत्र और साथ में अपना पता लिखे, डाकटिकिट लगे लिफाफे छापकर संवाददाताओं को देते थे। संवाददाता माह-दो माह में रायपुर आते तो संवादपत्र व लिफाफों का बंडल लेकर वापिस लौटते या फिर खबर आती कि स्टॉक समाप्त हो गया है, तब पेपर की पार्सल में उन्हें नया स्टॉक भेजा जाता था। संपादकीय कक्ष में हम लोग समाचार बनाने के लिए या तो न्यूजप्रिंट काटकर बनाए गए लगभग ए-4 आकार के पन्नों का या फिर अमेरिकी, सोवियत अथवा ब्रिटिश सूचना कार्यालय से आए लेखों के पृष्ठभाग का इस्तेमाल करते थे। सोवियत सूचना केंद्र से सामग्री चिकने कागज पर आती थी, जो हमारी पहली पसंद होती थी। कुछ साथी तो बच्चों के उपयोग के लिए रफ कॉपी बनाने भी ये कागज घर ले जाते थे।

एक तरफ संवाद संकलन की यह तस्वीर थी तो दूसरी तरफ मुद्रित समाचार पत्र को जगह-जगह तक पहुंचाना कम दिलचस्प नहीं था। लगभग सभी अखबार रेल या बस से गंतव्य तक भेजे जाते थे। रायपुर से रात 10 बजे हावड़ा एक्सप्रेस से रायगढ़ की पार्सल रवाना की जाती। उसी के भीतर घरघोड़ा, धर्मजयगढ़, पत्थलगांव, कुनकुरी, जशपुर तथा सीतापुर, अंबिकापुर की छोटी पार्सलें रखी जाती थीं। यह रायगढ़ के एजेंट की जवाबदेही थी कि तीन बजे स्टेशन पहुंचकर पार्सल उतरवाएं, उसमें से आगे पार्सल निकालें और चार बजे सीधे रेलवे स्टेशन से ही जशपुर और अंबिकापुर जाने वाली बसों में उन्हें चढ़ाएं। सुनने में आसान, लेकिन व्यवहार में कठिन। कभी प्रेस से ही पार्सल स्टेशन पहुंचाने में देर हो गई, कभी ट्रेन लेट हो गई, कभी एजेंट रायगढ़ स्टेशन समय पर नहीं पहुंचा। सब कुछ समय से चला तो आज रात दस बजे रवाना की गई पार्सल अगले दिन अपरान्ह तीन बजे जशपुर पहुंचेगी। वहां पेपर वितरित करते-करते शाम हो जाएगी। अगर किसी भी बिंदु पर विलंब हुआ, मान लीजिए रास्ते में बस ही बिगड़ गई, तो पेपर फिर एक दिन बाद ही बंटेगा। हम रेलवे से भेजे जाने वाली पार्सलों का एक मुद्रित फार्म रखते थे- जिसमें गंतव्य और वजन का उल्लेख करना होता था। एक कॉपी रेलवे के पार्सल ऑफिस को, एक अपने रिकॉर्ड में।

इसी तरह अनेक स्थानों पर बस से पार्सलें भेजी जातीं। यहां भी एजेंट को नियत समय पर बस स्टैंड आना होता था। दुर्ग, राजनादगांव, जगदलपुर, कांकेर की पार्सलों के भीतर आसपास के छोटे केंद्रों की पार्सलें आगे भेजने की जिम्मेदारी उन पर होती थी। देर-अबेर होती ही थी। हमें एक प्रतिस्पर्द्धी समाचार पत्र से हमेशा सतर्क रहना पड़ता था। उन्हें मौका मिलता तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से वे हमारी पार्सल चोरी करवा लेते थे। संभवत: 1970 में सबसे पहले हमने सड़क मार्ग से भेजी जाने वाली पार्सलों के लिए राजनादगांव मार्ग पर बस के बजाय टैक्सी की व्यवस्था की। यह टैक्सी कांग्रेस के दो युवा कार्यकर्ताओं ने साझीदारी में खरीदी थी। वे दोनों आज प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। कभी ड्राइवर नहीं आया तो दफ्तर से फोन पर सूचना मिलने पर मैं या मेरे अनुज दिनेश अपनी कार से महोबाबाजार, टाटीबंद, कुम्हारी, चरौदा, भिलाई-3, भिलाई, सुपेला, सेक्टर- 4, दुर्ग, सोमनी में पार्सल उतारते हुए राजनादगांव तक जाते थे।
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#देशबंधु में 16 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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