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रविवार, जनवरी 19, 2020

देशबन्धु के साठ साल-20- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बीसवीं कड़ी....
देशबन्धु के साठ साल-20
- ललित सुरजन
समाचारपत्र जगत पर प्रारंभ से ही पुरुषों का वर्चस्व रहा है। अन्य अनेक व्यवसायों की भांति पत्रकारिता को महिलाओं के लिए निषिद्ध या अनुपयुक्त क्षेत्र माना जाता था। अखबार का स्वामित्व, संचालन, प्रबंधन, संपादन इन सभी विभागों की बागडोर पुरुषों के हाथ में ही हुआ करती थी। यह प्रवृत्ति भारत की नहीं, बल्कि समूची दुनिया में थी। किन्तु आश्चर्यजनक रूप से स्वाधीनता पूर्व भारत में कम से कम ऐसे तीन उदाहरण मिलते हैं, जहां स्त्रियों ने किसी पत्रिका का प्रकाशन-संपादन किया हो। हेमंत कुमारी चौधरी (रतलाम) ने 1888 में ''सुगृहिणी'' व सुभद्राकुमारी चौहान (जबलपुर) ने 1947 में ''नारी'' शीर्षक पत्रिका प्रारंभ की जबकि महादेवी वर्मा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद के संपादक मंडल में थीं। आज़ादी मिलने के बाद इस परिपाटी को निभाने के लिहाज से मुझे एक ही नाम याद आता है- मनमोहिनी का, जिन्होंने अपने पति प्रकाश जैन के साथ बराबरी से चलते हुए अजमेर से प्रतिष्ठित पत्रिका ''लहर'' का संपादन किया। विदेशों के बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है, लेकिन एक महत्वपूर्ण अपवाद के रूप में कैथरीन ग्राहम का नाम है जिन्होंने पति फिलिप की मृत्यु के बाद वाशिंगटन पोस्ट का कारोबार सम्हाला था और जिनके निर्देशन में अखबार ने वाटरगेट कांड का खुलासा किया था। मेरे ध्यान में एक-दो नाम और भी हैं, लेकिन उनका प्रभाव उतना व्यापक नहीं था।

भारत में भी इसी तरह पारिवारिक घटनाचक्र के चलते अखबार का कामकाज अपने हाथों लेने वाली कुछ महिलाएं हुई हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में शोभना भरतिया, महाराष्ट्र हेराल्ड (पुणे) में नलिनी गेरा और पुणे के ही मराठी पत्र सकाल में क्लॉड लीला परुलेकर- इन तीनों को ही अपने-अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का अवसर मिला। संचालन से हटकर संपादन की बात की जाए तो सबसे पहले प्रभा दत्त का नाम याद आता है, जिन्होंने 1964 में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादकीय विभाग में काम करना शुरू किया था। सामान्यत: उन्हें देश की पहली महिला पत्रकार माना जाता है। आज तो खैर, क्या अखबार और क्या टीवी चैनल, सब में स्त्री पत्रकारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। उनका वीमेंस प्रेस कोर ऑफ इंडिया नामक एक पृथक संगठन बन चुका है जिसका दिल्ली में एक सुव्यवस्थित दफ्तर भी चलता है। इसके साथ-साथ मीडिया संस्थानों के प्रबंध विभाग में महिला कर्मियों की नियुक्ति आम बात हो गई है। इतनी सब जानकारी और कहीं लिखने का प्रसंग आए या न आए, यह सोचकर यहां लिख दी है। यह पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए संदर्भ सामग्री के रूप में काम आ सकती है।
Lalit Surjan

इस पृष्ठभूमि में मुझे यह बताने में खुशी है कि देशबन्धु अविभाजित मध्यप्रदेश का संभवत् पहला अखबार था, जब 1970 में उसी समय कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर निकली उषा घोष हमारे व्यवस्था विभाग में काम करने आईं और लगभग तेरह साल तक अपनी सेवाएं इस संस्थान को दीं। मुझे जितना याद पड़ता है, भोपाल, ग्वालियर, इंदौर, जबलपुर के किसी भी पत्र में कोई महिला तब तक नियुक्त नहीं थी। मेरे सहयोगी रमेश शर्मा के माध्यम से उषा आईं थीं और उनको नियुक्ति देने में मुझे सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, हमारा दफ्तर इस तरह की संकीर्णता से सदैव मुक्त रहा है। उषा घोष का आना रायपुर के पत्र जगत के लिए एक नई घटना थी, किंतु समय बदल रहा था। संपादकीय और व्यवस्था दोनों विभागों में धीरे-धीरे कर सभी अखबारों में महिलाओं का आगमन प्रारंभ हुआ और कहीं एकाध अपवाद छोड़कर इन सबने जिस भी पत्र में सेवाएं कीं, अपनी मेहनत, और काम के प्रति लगन से सहयोगियों की प्रशंसा अर्जित की। यहां कुछ सहकर्मियों का उल्लेख करना उचित होगा।

साठ के दशक में ''धर्मयुग'' में मास्को से हेमलता आंजनेयलु के संस्मरण छपते थे। तब पता नहीं था कि उनका पैतृक घर रायपुर में है। संभवत: आकाशवाणी से सेवानिवृत्ति के बाद वे घर वापिस लौटीं और देशबन्धु से जुड़ गईं। 1990 में भोपाल संस्करण प्रारंभ हुआ तो उन्हें फीचर संपादक बनाकर वहां भेजा गया। वीरा चतुर्वेदी एक लोकप्रिय अध्यापिका और कहानी लेखिका थीं। हिंदी-अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। वे भी रिटायर होने के बाद हमारे संपादकीय विभाग में आ गईं। उनके पढ़ाए अनेक छात्र प्रदेश की राजनीति और पत्रकारिता- इन दोनों क्षेत्रों में ख्यातिप्राप्त हैं। वीराजी ने बड़ी मेहनत से इंदर मलहोत्रा द्वारा लिखित इंदिरा गांधी की जीवनी का रोचक अनुवाद किया था। इंदरजी ने उसे धारावाहिक छापने की अनुमति भी दे दी थी, लेकिन प्रकाशक विदेशी मुद्रा में प्रकाशन अधिकार फीस चाहता था। उन दिनों यह एक असंभव सा काम था, सो हमारे हाथ निराशा ही लगी। मनोरमा शुक्ला से हमारे पारिवारिक संबंध हैं। घर-परिवार के दायित्वों से कुछ अवकाश मिला तो फीचर संपादक का गुरुतर दायित्व सम्हाल लिया। वे सुबह आठ बजे प्रेस आ जाती थीं और शाम चार बजे तक लगातार अपने काम में जुटी रहती थीं। उनके कार्यकाल में अवकाश अंक में खूब निखार आया। इन तीनों विदुषियों की अपनी प्रौढ़ावस्था में भी ऊर्जा और काम के प्रति लगन देखते बनती थी। प्रभा टांक कई भाषाओं की ज्ञाता थीं- गुजराती, अंग्रेजी, हिंदी, बांग्ला, मराठी आदि। उन्होंने देशबन्धु लाइब्रेरी को व्यवस्थित रूप दिया, कई युवाओं को इस काम में प्रशिक्षित किया, कुछ स्थायी स्तंभों का काम भी सम्हाला। इन सबका अमूल्य योगदान देशबन्धु की प्रतिष्ठा वृद्धि में सहायक हुआ।

शिवानी झा ने अपने कैरियर का प्रारंभ ही देशबन्धु से किया था। उसने संपादकीय विभाग की हर डेस्क पर समान दक्षता के साथ काम किया। अदालत की रिपोर्टिंग करने गई तो किसी बात पर खफ़ा एक जज साहब ने उसकी गिरफ्तारी का आदेश निकाल दिया। तत्कालीन डीआईजी आरएलएस यादव और सीएसपी रुस्तम सिंह की हिकमत से मामला सुलझा। जज ने प्रकरण वापस ले लिया। प्रेस के पास जवाहरनगर मोहल्ले में एक बालक के अपहरण और चतुराई से अपहरणकर्ताओं के चंगुल से भाग निकलने की खबर मिली तो शिवानी रिपोर्टिंग करने गईं। आकर बताया- बालक की कहानी मनगढ़ंत है। मैंने उसी तरह समाचार बनाने की अनुमति दे दी। अगली सुबह मोहल्ले के लोग देशबन्धु से बेहद नाराज हुए, लेकिन शाम होते-होते पुलिस ने हमारी रिपोर्ट की पुष्टि कर दी। विशेष बात यह कि शिवानी को काम सीखते हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे। उसने भारत अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी कई साल तक देशबन्धु के लिए रिपोर्टिंग की। शिवानी झा और आभा कोठारी, ऐसी दो युवा पत्रकार थीं, जिन्हें किसी भी पृष्ठ का काम सौंप दो, उसे अच्छे से करेंगी। उन दिनों प्रथम पृष्ठ के लिए रात्रि पाली में शायद ही महिलाएं कहीं काम करती थीं। इन दोनों ने बिना किसी संकोच के यह ड्यूटी भी पूरी की।

इन सबसे अलग और विशेष रूप से उल्लेखनीय गाथा सरिता धुरंधर की है। सरिता की कुछ माह पहले ही कैंसर से जूझते हुए पैंतालीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। सरिता ने बीस साल से कुछ अधिक समय तक देशबन्धु के संपादकीय विभाग में सेवाएं दीं। घर-परिवार की विषम परिस्थितियों के चलते हुए सरिता को इस कम उम्र में भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। शिक्षक पिता की मृत्यु के बाद परिवार को सम्हालने की जिम्मेदारी उस पर ही थी।परिजनों की चिंता में सरिता ने कभी अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की। अगर संयोगवश उसके पारिवारिक चिकित्सक डॉ. जवाहर अग्रवाल ने अपनी अनुभवी दृष्टि से अनुमान न लगाया होता तो उसे भान भी नहीं होता कि कैंसर उसकी जीवनशक्ति को क्षीण किए जा रहा था। बीमारी का पता चलने के बाद भी सरिता ने करीब चार साल तक काम किया। हर कीमोथैरिपी के अगले दिन ही, लाख मना करने के बावजूद वह ड्यूटी पर आ जाती। मेरे बाद मेरी माँ और अन्य लोगों का क्या होगा, उसे इसी बात की फिक्र लगी रहती थी। सरिता धुरंधर उन बिरले लोगों में थी, जिनके लिए अपना काम सर्वोपरि होता है। उसने कभी भी किसी काम के लिए मना नहीं किया, बल्कि सहज भाव से हर ड्यूटी निभाई। सरिता का इस तरह असमय चले जाना पूरे देशबन्धु परिवार के लिए शोक का विषय बन गया। बहरहाल, इस कड़ी में अभी कुछ और नाम बाकी हैं, जिन पर यथासमय चर्चा होगी।
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#देशबंधु में 05 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ. शरद सिंह

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