Dr (Miss) Sharad Singh |
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।
ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है।
प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की सत्रहवीं कड़ी....
देशबन्धु के साठ साल-17
- ललित सुरजन
Lalit Surjan |
एक नेकदिल इंसान की इस पहल पर ना कहने का तो सवाल ही नहीं था। हमने जानकार लोगों से सलाह ली और जल्दी ही देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना हो गई। इन पैंतीस वर्षों में कोष के संचालन के दौरान अनेक नायाब अनुभव हुए। जब हमने कोष स्थापना का समाचार छापा और पाठकों से सहयोग की अपील की तो उसका उत्साहवर्द्धक प्रत्युत्तर हमें मिला। इसमें एक प्रसंग तो अत्यन्त मर्मस्पर्शी था। उन दिनों भारतीय डाकसेवा से ही चिठ्ठियां आती-जाती थीं। एक दिन डाक में एक लिफाफा आया। खोला तो भीतर दो रुपए का नोट और उसके साथ कॉपी के पन्ने पर टूटी-फूटी भाषा में लिखा पत्र था- हम रायगढ़ रेलवे स्टेशन के बाहर होटल में काम करने वाले बच्चे हैं। आप हम जैसे बच्चों की मदद कर रहे हैं। हमने अपने पास से दस-दस, बीस-बीस पैसे देकर यह दो रुपए इकट्ठा किए हैं जो आपको भेज रहे हैं। एक पन्ने के पत्र में ग्यारह-बारह बच्चों के दस्तखत थे। पत्र पढ़कर आंखों में आंसू आ गए। उन बालकों के भेजे दो रुपए बहुत कीमती थे, जिनका मोल कभी भी आंकना संभव नहीं होगा।
एक दिन सदर बाजार, रायपुर के प्रतिष्ठित नागरिक कस्तूरचंद पारख प्रेस आए। उनके कॉलेज में पढ़ रहे बेटे अभय का असमय निधन कुछ दिन पहिले हो गया था। पारखजी चाहते थे कि हम अभय की स्मृति में दुर्गा महाविद्यालय के लिए एक छात्रवृत्ति स्थापित करें। हमने उनकी शर्त मानने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। उन्हें हमारा तर्क समझ आया और वे पांच हजार रुपए की राशि भेंट कर गए, कि इससे वाणिज्य संकाय के किसी विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दी जाए। इस तरह अभय पारख स्मृति छात्रवृत्ति की स्थापना हुई। किसी के नाम से की जाने वाली यह पहली स्कॉलरशिप थी। कुछ अरसे बाद अंबिकापुर के प्रतिनिधि हरिकिशन शर्मा अपने परिचित श्री चंदेल के साथ आए। उन्होंने अपने पुत्र मणींद्र की स्मृति में छात्रवृत्ति देने हेतु राशि दी। इस तरह एक सिलसिला चल पड़ा। आज देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ सौ नामित छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। इनका निर्णय अध्यापकों की एक स्वतंत्र समिति करती है।
एक प्रेरणादायक प्रसंग प्रदेश के पहले राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय से संबंधित है। उनके ससुर मनोरंजन एम.ए. कविवर बच्चन के समकालीन एवं स्वयं समर्थ लेखक थे। सहाय साहब की रुचि से उनकी अनुपलब्ध पुस्तकों के नए संस्करण छपे। उन पर प्रकाशकों से अच्छी खासी रॉयल्टी भी मिली। सहायजी ने यह सारी राशि विभिन्न पारमार्थिक संस्थानों के बीच बांट दी। एक दिन उन्होंने फोन किया कि वे प्रेस आना चाहते हैं। प्रदेश के गवर्नर के तामझाम को कौन सम्हाले? मैंने निवेदन किया कि मैं खुद राजभवन आ जाता हूं। उन्होंने कहा कि काम तो मेरा है, मैं आऊंगा। फिर वे मेरी आनाकानी समझ गए। अपने एडीसी को मेरे पास भेजा। कोष के लिए पच्चीस हजार रुपए का निजी चैक साथ में पत्र। ससुरजी की किताबों से जो रॉयल्टी मिली है, वह समाज के काम में आना चाहिए। हमें इस धन की आवश्यकता नहीं है। उस राशि से कोष द्वारा एक और छात्रवृत्ति स्थापित हो गई। बाद में राज्यपाल शेखर दत्त और बलरामजी दास टंडन ने भी कोष की गतिविधियों की सराहना करते हुए सहयोग किया।
इस बीच एक रोचक प्रसंग और घटित हुआ। एक सेवानिवृत्त अधिकारी श्री चक्रवर्ती चाहते थे कि उनकी पत्नी की स्मृति में रायपुर के कालीबाड़ी स्कूल या फिर बंग समाज के किसी होनहार को छात्रवृत्ति दी जाए। हमने दोनों बातों के लिए इंकार कर दिया। यह काम आप सीधे संबंधित संस्था के माध्यम से कर सकते हैं। वे वापस चले गए। दो दिन बाद फिर आए। आपका कहना ठीक है। आप जैसा उचित समझें, छात्रवृत्ति दीजिए। चक्रवर्तीजी ने फिर एक नहीं, पांच छात्रवृत्तियों के लिए राशि दी। इसके बाद वे एक बार पुन: आए। मैं अपना निजी मकान कोष को दान करना चाहता हूं। उसमें आप वृद्धाश्रम चलाइए। उनके प्रस्ताव को न्यासी मंडल के सामने रखा। सबकी एक ही राय बनी कि यह अलग प्रवृत्ति का सेवाकार्य है, जिसे करने में हम समर्थ नहीं हैं। चक्रवर्तीजी को इस निर्णय से निराशा तो हुई, लेकिन क्या करते! देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की अपनी सीमाएं थीं।
इसी सिलसिले में रायपुर के पहिले वास्तुविद (आर्किटेक्ट) और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी समाजसेवी टी.एम. घाटे का उल्लेख करना आवश्यक होगा। युवा वास्तुविद अक्षरसिंह मिन्हास का निधन हुआ तो घाटेजी की पहल पर रायपुर के सभी वास्तुविदों ने मिलकर शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) रायपुर में वास्तुशास्त्र के विद्यार्थियों हेतु एक पुरस्कार स्थापित किया। इसकी व्यवस्था का जिम्मा उन्होंने कोष पर डाल दिया और आवश्यक राशि यहीं जमा करवा दी। एक दिन घाटे साहब सुबह-सुबह प्रेस आए। यह शायद 1990 की बात है। आज रायपुर में प्रैक्टिस करते हुए मुझे पच्चीस साल पूरे हो गए हैं। मैंने जो कुछ भी अर्जित किया है, वह रायपुर के समाज की ही देन है। यह कहते हुए उन्होंने एक बड़ी रकम टेबल पर रख दी। इसे कोष में जमा कर लो। जिस काम में उचित समझो, इसका उपयोग कर लेना। हम कोष के आर्थिक सहयोग देने वालों के नाम अखबार में छापते थे। घाटे साहब ने इसके लिए भी स्पष्ट मना कर दिया। नाम छपने से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है। मुझे किसी को प्रेरणा नहीं देना है। मुझे जो करना था, कर दिया है। मैं क्या करता? उनके स्वभाव को जानता था। लेकिन आज उनकी नाराजगी का खतरा उठाकर भी नामोल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं।
देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की गतिविधियों के बारे में अभी बहुत कुछ लिखना बाकी है। यथासमय वह भी लिखने का
प्रयत्न करूंगा।
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#देशबंधु में 14 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह
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