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गुरुवार, नवंबर 21, 2019

देशबंधु के साठ साल - 3 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक ल
गेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है   
     
प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  तीसरी कड़ी.... 

देशबन्धु के साठ साल -3

- ललित सुरजन
 
Lalit Surjan
 आज से साठ साल पहले जिस मशीन पर देशबंधु की छपाई शुरू हुई वह ब्रेमनर मशीनरी कंपनी, लन्दन द्वारा निर्मित थी। 1880, जी हां, 1880-85 के आसपास बनी यह मशीन हमने नौ हजार रुपए में सेकंड हैंड खरीदी थी। इतनी रकम भी उस वक्त के लिहाज से काफी मायने रखती थी। तकनीकी विकास और साधनों की उपलब्धता के अनुसार आगे चलकर हमने समय-समय पर दूसरी उन्नत मशीनें खरीदीं, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि एक लंबी अवधि तक छोटेलाल ही मशीनमैन और मशीन विभाग के प्रमुख के रूप में सेवाएं देते रहे। वे जब रिटायर हो गए तब भी देशबन्धु के साथ उनका आत्मीय संबंध बना रहा। दरअसल, छोटेलाल और बाबूसिंह बाबूजी के ऐसे दो साथी थे जिन्होंने हम भाई-बहनों को नहीं, हमारे बच्चों को भी गोद में खिलाया है। फिलहाल मैं छोटेलालजी के साथ श्री जोसेफ, इब्राहीम भाई और मशीन विभाग से जुड़े कुछ अन्य साथियों को याद कर रहा हूं।

1945-50 के बीच बाबूजी नागपुर 'नवभारत में कार्यरत थे। उस दौरान प्रेस में छोटेलाल नामक एक अन्य मशीनमैन थे। सन् 50 में बाबूजी जब पत्र का दूसरा संस्करण स्थापित करने जबलपुर आए तो उपरोक्त छोटेलालजी की अनुशंसा पर उनके हमनाम दामाद हमारे छोटेलालजी साथ में जुड़ गए और सदा के लिए जुड़े रहे। बाबूजी नवभारत का नया संस्करण प्रारंभ करने भोपाल गए तो छोटेलाल भी उनके साथ गए। जब रायपुर से देशबन्धु (तब नई दुनिया रायुपर) निकालना तय हुआ तो छोटेलाल यहां आ गए। बाबूजी ने 1958 के अंत-अंत में अस्पताल के बिस्तर से अपना इस्तीफा नवभारत को भेज दिया था। उपचार के लिए धनाभाव था। छोटेलाल ने नवभारत प्रेस में मैनेजर से जाकर पैसे मांगे। मनाही हो गई तो वे मैनेजर की टेबल पर चढ़कर सीलिंग फैन खोलकर ले आए। उसे बेचकर जो रकम मिली वह बाई (मां को हम यही संबोधन देते थे) के हाथों पर लाकर रख दी। बाबूजी को बाद में जब पता चला तो उन्होंने अपने पूर्व नियोक्ता को पत्र लिखकर इस उद्दंडता के लिए माफी मांगी और रकम वापस भिजवाई।

अपने इन्हीं बुजुर्ग साथी को 1985 के आसपास कभी मुझे मजबूरन रिटायर करना पड़ा। मैं किसी मित्र के घर रात्रिभोज पर गया था। प्रेस से फोन आया- छोटेलालजी शराब पीकर उपद्रव कर रहे हैं। किसी की बात नहीं सुन रहे हैं। मैं भागा-भागा प्रेस आया। डांट-फटकार कर उन्हें घर भिजवाया और अगले दिन सेवामुक्त कर दिया। बाबूजी रायपुर से बाहर थे। लौटकर आए तो मेरी पेशी हुई। ठीक है, तुमने काम से हटा तो दिया है, उनका घर कैसे चलेगा! मेरे तीस-पैंतीस साल के साथी हैं। मैंने आश्वस्त किया कि उसकी व्यवस्था कर दी है। उनके घर हर माह राशन जाएगा और चाची के हाथ में वेतन की राशि। बाबूजी संतुष्ट हुए, लेकिन छोटेलाल जी इस बात से खफ़ा हुए कि उनको मदिरापान के लिए पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। खैर, यह व्यवस्था चलती रही। इसमें एक मजेदार बात और हुई। छोटेलाल बीच-बीच में घर आते। मेरी पत्नी को भोजन कराने का आदेश देते। होली-दीवाली उनके और चाची के लिए नए वस्त्रों का प्रबंध भी किया जाता। मैं सामने पड़ जाता तो कहते- मैं बहूरानी से मिलने आया हूं। तुमसे बात नहीं करूंगा।

मैंने जिस मशीन का ऊपर जिक्र किया वह फ्लैटबैड सिलिंडर मशीन थी, जिसमें एक बार में सिर्फ दो पेज छपते थे। एक तरफ से कोरी शीट डालते, दूसरी तरफ से छपा कागज निकलता। जब एक तरफ की छपाई पूरी हो जाती तो उलटी तरफ दो पेज छापे जाते। इसमें छोटेलालजी के साथ दूसरे सिरे पर एक हेल्पर होता था। बाद में ऐसी ही एक और मशीन खरीद ली ताकि समय की बचत हो सके। उस मशीन पर मुझे जहां तक याद है, कंछेदीलाल राठौड़ नियुक्त थे। वे पेपर छापने के अलावा ऊंची आवाज़ लगाकर शहर में पेपर बेचने भी जाते थे। 64-65 के आसपास परमानंद साहू हेल्पर होकर आ गए थे। वे आगे चलकर एक कुशल मशीनमैन बने। 1968 में हमने सेलम (तमिलनाडु) से आदित्यन समूह के ''मलाई मुरुसु अखबार से एक सेकंडहैंड फ्लैडबैड रोटरी मशीन खरीदी। इसमें कागज की शीट के बजाय रील लगती थी और एक साथ चार पेज छपते थे। नागपुर के श्री जोसेफ नामक मशीन मैकेनिक की सेवाएं सेलम से मशीन खोलकर लाने और रायपुर में स्थापित करने के लिए ली गई। यह मशीन अपनी आयु पूरी कर चुकी थी। बार-बार रिपेयरिंग की आवश्यकता पड़ती थी। नागपुर से जोसेफजी इसके लिए आते थे। मैं मोहन नगर, नागपुर में उनके घर भी एक बार गया। छोटेलालजी ने जोसेफजी से जल्दी ही नई तकनीक की समझ हासिल कर ली। वे और परमानंद इसे चलाते रहे।

हमें एक बेहतर मशीन की तलाश थी जो लखनऊ के 'नेशनल हैराल्ड अखबार पहुंचकर पूरी हुई। वहां एक उम्दा फ्लैटबैड रोटरी लगभग नई कंडीशन में खड़ी थी। जनवरी 1971 में बाबूजी ने मुझे और मशीन मैकेनिक इब्राहीम भाई को मशीन लाने लखनऊ भेजा। इब्राहीम सौराष्ट्र में लिंबडी के निवासी थे और एक अच्छे मैकेनिक के रूप में पत्र जगत में उनकी प्रतिष्ठा थी। हम दोनों लखनऊ में एक साथ दस दिन रहे। मशीन खोलकर इब्राहीम भाई को ट्रकों के साथ सड़क मार्ग से रायपुर के लिए रवाना किया और मैं ट्रेन से वापस लौटा। यह नई मशीन बहुत अच्छी थी, लेकिन समय-समय पर रख-रखाव के लिए इब्राहीम अगले कई वर्षों तक रायपुर आते रहे। वे ऐसे मशीन मैकेनिक थे, जो मद्यपान से एकदम दूर थे। कहना न होगा कि छोटेलालजी ने ही बदस्तूर इस मशीन का काम भी संभाला। 'नेशनल हैराल्ड कार्यालय में बीते दस दिनों में जो अनुभव हुए उन्हें मैं अलग से लिख चुका हूं। नए पाठकों की जानकारी के लिए इतना बताना काफी होगा कि लखनऊ का स्टाफ अपने कार्यस्थल को ''नेहरूजी का यतीमखाना कहता था।

छोटेलालजी की कहानी अभी बाकी है। 1974 की जनवरी में छोटेलाल, मैं, मेरी पत्नी माया और हमारी दो नन्हीं-नन्हीं बेटियां रायपुर से सुदूर तिरुनल्लवैल्ली (तमिलनाडु) के लिए रवाना हुए। इस बार भी मशीन लेने ही जाना था, लेकिन उसका गंतव्य भोपाल था, जहां जुलाई 74 में देशबन्धु का तीसरा संस्करण प्रारंभ हुआ। रायपुर से नागपुर तो आराम से पहुंच गए, लेकिन ट्रेनों की भीड़-भाड़ के चलते हमें वहां तीन दिन रुकना पड़ा। पत्रकार अनुज प्रकाश दुबे ने संपर्कों का उपयोग कर किसी तरह हमारा चैन्नई के लिए आरक्षण करवाया। तिरुनल्लवैली में ''दिनमलार" अखबार की एक पुरानी मशीन खरीदना थी। जोसेफ और इब्राहीम के साथ काम करते-करते छोटेलाल इतने प्रवीण हो चुके थे कि मशीन खोलने के लिए बाहर से किसी की सेवाएं लेने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। यात्रा के पांच दिनों के अलावा हमने दिनमलार में दस दिन तक मशीन खोलने का काम किया। सुबह निकलते थे तो लौटते तक शाम छह-सात बज जाते थे। अंतत: खुली मशीन ट्रकों पर लादी गई, छोटेलाल उनके साथ भोपाल के लिए रवाना हुए, रायपुर लौटने के पहले हमने सपरिवार तमिलनाडु दर्शन में कुछ दिन बिताए, जिसकी रोमांचक कहानी मैं कभी बाद में सुनाऊंगा।

सिलिंडर मशीन, फ्लैडबैड रोटरी के बाद अब नई तकनीक की वेब ऑफसेट मशीन का समय था। हमारी पहली ऑफसेट मशीन 1979 में स्थापित हुई। इस पर एक साथ श्वेत-श्याम बारह पेज छापना संभव था। यह मशीन एक घंटे में पच्चीस हजार कॉपी छाप सकती थी। तकनीकी तौर से बंधु ऑफसेट मशीनरी वर्क्स की यह मशीन अब तक की सभी मशीनों से अलग थी, लेकिन अपनी नैसर्गिक क्षमता व प्रतिभा के बल पर छोटेलालजी ने इस मशीन का काम भी सम्हाला। उनकी याद अब भी आ ही जाती है। प्रसंगवश यह संकेत करना शायद उचित होगा कि छोटेलाल सफाई कामगार समुदाय से आते थे। बाद में एक कुशाग्र मशीनमैन राधेलाल आदिवासी थे। इस तरह हमारा मशीन विभाग भारत की बहुलतावादी संस्कृति का ज्वलंत उदाहरण था।

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देशबंधु में 11 जुलाई 2019 को प्रकाशित
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( प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

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