भारतीय सिनेमा में यदि सन् 1980 की बात की जाए तो उस वर्ष एक फिल्म रिलीज़
हुई थी-‘इंसाफ का तराजू’। बी. आर. चोपड़ा के द्वारा निर्देशित इस फिल्म की
भारतीय स्क्रिटिंग की थी शब्द कुमार ने। वस्तुतः यह फिल्म हॉलीवुड की एक
प्रसिद्ध मूवी ‘लिपिस्टिक’ पर आधारित थी। कहानी नायिका प्रधान थी और
बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर आधारित थी। सौंदर्य प्रतियोगिता में सफल
रहने वाली एक सुंदर युवती पर एक अय्याश पूंजीपति का दिल आ जाता है और वह यह
जानते हुए भी कि युवती किसी और की मंगेतर है, उसके
साथ बलात्कार करता है। वह युवती पुलिस में रिपोर्ट लिखाती है। मुक़द्दमा
चलता है और भरी अदालत में प्रतिवादी का वकील अमानवीयता की सीमाएं तोड़ते हुए
युवती से अश्लील प्रश्न पूछता है और अंततः युवती को बदचलन ठहराने में सफल
हो जाता है। पीड़ित युवती उस शहर को छोड़ कर दूसरे शहर में जा बसती है। उसका
जीवन ग्लैमर से दूर एकदम रंगहीन हो जाता है। फिर भी वह अपनी छोटी बहन के
लिए जीवन जीती रहती है। दुर्भाग्यवश कुछ अरसे बाद उसकी छोटी बहन भी नौकरी
के सिलसिले में उसी अय्याश पूंजीपति के चंगुल में फंस जाती है और बलात्कार
का शिकार हो जाती है। एक बार फिर वहीं अदालती रवैया झेलने और अपनी छोटी बहन
को अपमानित होते देखने के बाद वह युवती तय करती है कि अब वह स्वयं उस
बलात्कारी को दण्ड देगी।
‘इंसाफ का तराजू’ पर यह आरोप हमेशा लगता रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे को व्यावयासिक ढंग से फिल्माया गया। दूसरी ओर ‘चक्र’, ‘दमन’, ‘बाज़ार’ जैसी फिल्में पूरी सादगी से और अव्यवसायिक ढंग से स्त्री-मुद्दों को उठा रही थीं। लेकिन ‘इंसाफ का तराजू’ की अपेक्षा इनकी दर्शक संख्या न्यूनतम थी। ये फिल्में बुद्धिजीवियों और अतिसंवेदनशील दर्शकों की पहली पसंद बन पाई जबकि ‘इंसाफ का तराजू’ ने बॉक्स आफिस पर रिकार्ड तोड़ दिया।
- डॉ शरद सिंह
‘इंसाफ का तराजू’ पर यह आरोप हमेशा लगता रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे को व्यावयासिक ढंग से फिल्माया गया। दूसरी ओर ‘चक्र’, ‘दमन’, ‘बाज़ार’ जैसी फिल्में पूरी सादगी से और अव्यवसायिक ढंग से स्त्री-मुद्दों को उठा रही थीं। लेकिन ‘इंसाफ का तराजू’ की अपेक्षा इनकी दर्शक संख्या न्यूनतम थी। ये फिल्में बुद्धिजीवियों और अतिसंवेदनशील दर्शकों की पहली पसंद बन पाई जबकि ‘इंसाफ का तराजू’ ने बॉक्स आफिस पर रिकार्ड तोड़ दिया।
- डॉ शरद सिंह
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