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बुधवार, नवंबर 15, 2017

कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक )

कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश
- शरद सिंह
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
है कहां वह आग जो मुझको जलाए
है कहां वह ज्वाल मेरे पास आए
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां दशकों बाद भी आह्वान करती हैं उस दीपक को जलाने का जिसके अभाव में सकल मानवता अपने भविष्य के प्रति बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह उठाए खड़ी है। यह प्रश्न चिन्ह उस पृथ्वी से भी भारी है जिसे कच्छप अपनी पीठ पर ढो रहा अथवा उससे भी अधिक भारी जिसे हर्लक्युलिस अपने कांधे पर उठाए हुए है। यह प्रश्नचिन्ह आकार ही न ले पाता यदि हम सजग होते कि कब संवेदनाओं का तैल हमारे हदय के दिए से कम होने लगा। यदि हमारा व्यवहार किसी अनार्की की तरह होने लगे तो यह ठहर कर सोचने का विषय है। आत्ममुग्धता इस हद तक बढ़ जाए कि व्यक्ति अनर्गल विचारों की सार्वजनिक घोषणा करने लगे तो चिन्तनीय है। कभी-कभी लगता है कि वर्तमान दौर विवादों को सप्रयास जन्म देने का दौर है। गोया एक घायल सड़क पर पड़ा है और यदि कोई उस घायल से सबका ध्यान हटाना चाहता है तो उसे करना सिर्फ़ इतना ही है कि सबकी नज़र बचा कर भीड़ पर एक गिट्टी उछाल दे और फिर होने दे तू-तू, मैं-मैं। कहीं हम इसी दूषित सोच की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? हमारी दृष्टि का वह परिष्कार कहां गया जिसमें ताजमहल हमें कला की अनुपमकृति दिखाई देता था और खजुराहो को हम कलातीर्थ की संज्ञा देते थे। कोई भी नवीन शोध दृष्टिकोण के नए रास्ते प्रशस्त करता है किन्तु पूर्वाग्रहपूर्ण रास्तों पर चलते हुए कोई नवीन शोध हो ही नहीं सकता है। नवीन शोध अपने आप में एक ऐसी प्रविधि होती है जो जीवन के प्रत्येक बिन्दु को प्रभावित करती है। इस तथ्य को समझने के लिए दृष्टिपात किया जा सकता है प्रो. चोम्स्की के भाषा संबंधी शोधकार्य पर।
मेसाचुएटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी के सेवानिवृत्त  प्राध्यापक, भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक एवं राजनैतिक एक्टीविस्ट प्रो. एवरम नोम चोम्स्की। प्रो. चोम्स्की के भाषा विज्ञान से कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग भाषाओं को समझने में सुगमता होती है। विकासवादी मनोविज्ञान और गणित के क्षेत्रा में भी चोम्स्की के भाषाई सिंद्धांतों से मदद ली जाती है। चोम्सकी ने मनोविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बी. एफ. स्कीनर की पुस्तक ‘वर्बल बिहेवियर’ की आलोचना की, जिसके बाद संज्ञानात्मक (काग्नीटिव) मनोविज्ञान के क्षेत्रा में मानो क्रांति ही हो गई और दशाओं को समझने के नवीन सिद्धांत सामने आए। सन् 1984 में चिकित्सा विज्ञान एवं शरीर विज्ञान के क्षेत्रा में नोबेल पुरस्कार विजेता नील्स काज जेरने ने चोम्स्की के जेनेरेटिव माडल का प्रयोग मानव शरीर में स्थित प्रोटीन संरचनाओं के गठन एवं शरीर की प्रतिरक्षा में उसके महत्व को समझाने के लिए किया था। अपने शोध ‘द जेनेरेटिव ग्रामर ऑफ इम्यून सिस्टम’ में जेरने ने प्रो. चोम्स्की के सिद्धांतों को आधार बना कर जेटेरेटिव व्याकरण प्रतिपादित किया। यदि प्रो. चोम्स्की के उदाहरण को लें तो यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि भाषा और साहित्य जीवन की प्रत्येक चेष्टाओं को प्रभावित एवं प्रेरित करते हैं। बशर्ते शोध ईमानदारी से किए गए हों। यूं भी जीवन और साहित्य सिक्के के दो पहलू हैं अथवा यूं भी कहा जा सकता है कि ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन से साहित्य उपजता है और साहित्य से जीवन को दिशा मिलती है। भारत विभाजन की त्रासदी और उस त्रासदी की पीड़ा को इतिहास के पन्नों से कहीं अधिक खुल कर साहित्य के पन्नों ने मन-मस्तिष्क के करीब पहुंचाया।
  डोमेनिक लैपियर एवं लैरी कॉलिंस के ‘फ्रीडम एट मिड नाईट’, खुशवंत सिंह के ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, सलमान रुश्दी के ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ और सआदत हसन मंटो के कथा साहित्य जैसे इतर भाषा के साहित्य के उदाहरणों से परे हिन्दी साहित्य में ही देखा जाए तो प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘झूठा सच’ विभाजन की त्रासदी पर हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे विराट ऐतिहासिक, राजनीतिक फलक पर सामने रखता है। बदीउज्जमा का ‘छाको की वापसी’ और कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ भी विभाजन पर हिन्दी में लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यास हैं। विभाजन को लेकर लिखा गया भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ भी पाठकों को कालयात्रा कराते हुए अंतस तक सिहरा देता है। राही मासूम राजा का ‘आधा गांव’ भी विभाजन से पहले की घटनाओं और इसके कारण प्रभावित सामाजिक ताने-बाने से परिचित कराता है। हिन्दी की शीर्षस्थ कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ ने पाकिस्तान स्थित पंजाब के गुजरात से विस्थापित होकर पहले दिल्ली में शरणार्थी के रूप में आने और फिर भारत स्थित गुजरात के सिरोही राज्य में वहां के राजकुमार की गवर्नेस के रूप में नौकरी करने वाले पात्रा की कहानी है। विशेष बात यह है कि यह उपन्यास कथानक की खांटी सच्चाई को उजागर करता है क्योंकि अकसर उपन्यासों के कथानक के संबंध में लेखक का कथन होता है कि उपन्यास के पात्रा और वणि्र्ात घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन इसमें लिखा गया कि इसके सभी पात्रा और घटनाएं वास्तविक और ऐतिहासिक हैं। उपन्यास का पात्रा सिकंदरलाल विभाजन पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि ‘यह तवारीख़ का काला सिपारा सियासत पर यूं ग़ालिब हुआ कि जिन्ना ने दौड़ाए इस्लामी घोड़े और गांधी, जवाहर ने पोरसवाले हाथी।’ कृष्णा सोबती के इस उपन्यास से पहले भी कई उपन्यास आए जिन्होंने विभाजन और शरणार्थियों की त्रासदी के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण प्रस्तुत किए। इसी तारतम्य में स्मरण की जा सकती है ‘अज्ञेय’ की वे दो कविताएं जो उन्होंने 12 अक्तूबर 1947 से 12 नवंबर 1947 के बीच लिखी थीं। पहली कविता इलाहाबाद में और दूसरी मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर। इसमें ‘शरणार्थी’ शीर्षक वाली यह लंबी कविता ग्यारह खंडों में है और उस समय की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्राण करती है।
इन दिनों शरणार्थी होने की त्रासदी झेल रहे हैं रोहिंग्या। म्यांमार के सबसे ग़रीब प्रांत रख़ाइन में 10 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या रहते हैं और उन्हें वहां का नागरिक नहीं माना जा रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार की सीमा पार कर बांग्लादेश पहुंचे हैं। नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई ने सवाल किया, ‘अगर उनका घर म्यांमार में नहीं है तो उनकी पीढ़ियां कहां रह रही थी? उनका मूल कहां है?’ उन्होंने कहा, ‘रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता दी जाए। वह देश जहां वे पैदा हुए हैं।’
इस समस्या का अंतर्राष्ट्रीय हल निकलना जरूरी है और वह भी जल्दी से जल्दी। शरणार्थी जीवन जीने को विवश रोहिंग्या भी आखिर इंसान हैं और उन्हें भी अन्य मनुष्यों की तरह एक अच्छा जीवन पाने का अधिकार है। क्या सभी देशों को द्रवित होने के लिए उस तस्वीर की प्रतीक्षा है जो एलन कुर्दी की थी। वह कुर्दी मूल का तीन वर्षीय सीरियाईई बालक था जिसके शव की तस्वीर पूरे विश्व को कंपकपा गई थी। एलन का परिवार सीरियाई गृहयुद्ध से बचने के लिए 2 सितंबर 2015 को एक नौका में तुर्की से ग्रीस जाने की कोशिश कर रहा था, पर नौका के डूबने से एलन की मौत हो गईई और उसका शव लावारिस की तरह समुद्र तट पर पड़ा मिला। यह तो तय करना ही होगा कि ऐसी मौतें और नहीं हों।
इस अंक में दिल को छूने वाले कई प्रसंगों को समेटा गया है। सूर्यबाला समकालीन कथा साहित्य में अपनी अलग ही पहचान रखती हैं। ‘एक इन्द्रधनुष जुबेदा के नाम’ जैसी कालजयी कहानी लिखनेेेेेेेेेे वाली लेखिका सूर्यबाला के कथा-पात्रा बेहद संतुलित ढंग से कथानक का ताना-बाना बुनते हैं। ‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’ के अंतर्गत् इस बार हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला की रचनात्मकता एवं संवाद। अंजू शर्मा की लम्बी बातचीत मनीषा कुलश्रेष्ठ से तथा ‘शब्द और मैं’ में राकेश कुमार सिंह। दिलचस्प लेख हैं व्यास मणि त्रिपाठी और मीनाक्षी नटराजन के। राजेन्द्र उपाध्याय, सुशांत सुप्रिय तथा पूनम आरोड़ा की कविताएं। वर्षा सिंह की ग़ज़लें। साथ ही कहानियां, व्यंग और पुस्तक समीक्षा भी।
और अंत में मेरी यह कविता -
बुन रखा है हमने
अपनी जातीयता, अपनी राजनीति
अपने समाज, अपने अर्थशास्त्रा
और नितांत अपनी आकांक्षाओं का कोकून
जिसके भीतर है साम्राज्य गहन अंधकार का,
इससे पहले कि
घुट जाए दम आंखों का
समझना होगा-
कोकून के बाहर फैला है अनंत प्रकाश
जो बना सकता है हमें
प्रकृति की तरह,
सार्वभौमिक, सर्वहितकारी
घुटनरहित, कुण्ठारहित, द्वंद्वरहित।
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 https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-oct-dec-2017 
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_20saraswati_20oct.-dec_2020
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017


Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017

Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017  Cover



Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017 Index
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