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बुधवार, नवंबर 15, 2017

उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’ - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", संपादक Mahesh Bhardwaj, कार्यकारी संपादक Sharad Singh) अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक )
उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’
- शरद सिंह
परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो कल था, वह आज नहीं है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। बड़ी से बड़ी शिलाओं का भी जल के प्रवाह से आकार बदल जाता है। स्टीफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि पृथ्वी का भविष्य संकट में है और मानवजाति का जीवन लगभग एक हज़ार साल का बचा है। सुनने-पढ़ने में यह किसी साई-फाई फिक्शन जैसा लगता है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मनुष्य ने कुछ सार्थक परिवर्तन किए और प्रागैतिहासिक जीवन से आगे बढ़ कर सभ्यताओं के सोपान पा लिए। लेकिन कुछ घातक परिवर्तन भी किए जैसे खनिज संपदा का अधैर्यपूर्ण दोहन, जंगलों की कटाई और वायु में ज़हरीली गैसों का निरंतर निष्पादन। किसने सोचा था कि दिल्ली में वायु प्रदूष्शण का स्तर मापने की क्षमता से भी कहीं अधिक पाया जाएगा। शाम होते-होते धुंधलका छा जाना कई वर्षोंं से दिल्ली के लिए आम बात रही है। सभी ने इसे लगभग अनदेखा किया। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में छाई धुंध ने जता दिया कि हम अपनी सांसों के प्रति कितने लापरवाह हैं।
विकसित देशों का प्रत्येक नागरिक भी जान बचाने के लिए मंगलग्रह नहीं जा सकता है तो हमारी तो कोई बिसात ही नहीं है। हमें यहीं इसी पृथ्वी पर, इन्हीं शहरों, गांवों और कस्बों में सांस लेना है और हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी, यदि वे सांस की बीमारियों से ग्रसित हो कर भी एक हज़ार साल तक प्रवाहमान रहीं तो। गंभीरता से सोचा जाए तो यक़ीनन स्थिति भयावह है। मगर इस स्थिति को बदला अथवा कुछ आगे भी बढ़ाया जा सकता है यदि हम अभी भी चेत जाएं और पर्यावरण के प्रति खुद की लापरवाहियों के विरुद्ध कुछ कठोर क़दम उठाएं।
जैसे एक कठोर कदम उठाया गया कालेधन के विरुद्ध। देश की जनता ही नहीं, वैश्विक जगत ने भी नहीं सोचा था कि एक रात अचानक लगभग साढ़े तीन घंटे की अवधि में भारतीय मुद्रा की दो महत्वपूर्ण इकाइयां रद्दी के टुकड़े में बदल जाएंगी। यह एक इतना बड़ा निर्णय था जिसने सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया। भारत विपुल जनसंख्या का देश है और यहां वास्तविक साक्षरता का प्रतिशत भी विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में ‘लिक्विड मनी’ की ओर तेजी से क़दम बढ़ाना किसी जोखिम से कम नहीं है। फिर भी इस दिशा में इतना बड़ा डग धरा गया कि जैसे त्रोता युग में वामन ने अपने एक डग से एक लोक नाप लिया था। दफ़्तर के झगड़े, घरेलू पचड़े इन सब को भूल कर आमजन बैंकों के, एटीएम के दरवाज़ों पर कतारबद्ध हो गए। हज़ार और पांच सौ के पुराने नोट जमा करा देने के बाद पचास, बीस और दस के नोट इतनी संख्या में किसी के पास भी नहीं बचे कि वह दो-तीन महीने के लिए आश्वस्त हो सके। कालाधन बाहर आने के उत्साह के बीच घबराहट और तनाव का माहौल। इस परिवर्तन से साहित्य जगत भी प्रभावित हुआ है। मुद्रा की बात छोड़ दी जाए तो तथ्य और कथ्य साहित्य की हर विधा पर अपना प्रभाव छोड़ कर रहेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस दौर के साहित्य में इस पूरे माहौल को स्थान मिलेगा। किसी कहानी में कसमसाता हुआ कालाबाज़ारी करने वाला दिखाई देगा तो वहीं किसी कविता में वह बेचैन पिता मिलेगा जिसने बेटी की शादी के लिए बैंक से बड़े नोट निकलवाए थे और आपाधापी में उसे उन्हें वापस जमा कराना पड़ा। वह चिन्तित खाली हाथ पिता किसी न किसी कविता में अपनी जगह जरूर बना लेगा। या फिर वह दिहाड़ी मज़दूर जो ‘नोटबंदी’ से उपजी आर्थिक समस्या के कारण कई रात भूखा सोया। साहित्य में सबके लिए जगह है। इतिहास से कहीं अधिक उदार होता है साहित्य।
साहित्य में परिवर्तनकारी तत्व सदैव परिलक्षित होते रहे हैं। इन तत्वों से उपजनेवाली प्रवृत्तियों में अब तक हम सबसे नूतन प्रवृत्ति उत्तर आधुनिकता को मानते आए हैं। इतिहासकार अर्नाल्ड जे.टायनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवं भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है।
जबकि पाउलोस मार ग्रगोरिओस ने उत्तर आधुनिकता को एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न मान कर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा माना। आज पश्चिम जगत में अनेक मानक टूट रहे हैं। जबकि हमारा देश नए मानक गढ़ रहा है। ये नए मानक उनसे भी ऊपर उभर कर आने की राह बना रहे हैं जो कल तक यू इलीट, कारपोरेट बुल, ब्यूरोक्रेट्स पावर, मीडिया मुगल्स, मॉस प्रोडक्शन, मॉस डिस्ट्रीब्यूशन, मॉस एजूकेशन, मॉस कम्यूनिकेशन तथा मॉस डेमोक्रेसी जैसे शब्दों से पहचाने जाते रहे हैं। ये सभी उत्तर आधुनिकता की ही देन हैं। अमेरिकी लेखक एवं भविष्यवादी एल्विन टाफ्लर ने तीन पुस्तकें लिखीं -‘फ्यूचर-शॉक’, ‘दि थर्ड वेब’, ‘पॉवर शिफ्ट’। इन तीनों पुस्तकों में उत्तर-आधुनिकतावाद के विभिन्न पक्षों का नवीन परिवर्तन के रूप में विवेचन किया गया है।  ‘फ्यूचर शॉक’ बेस्टसेलर रही, जिसकी विश्व भर में 6 मिलियन से अधिक प्रतियां बिकीं। 27 जून, 2016 को 87 वर्ष की आयु में लास एंजेल्स में उनका निधन हो गया। एल्विन टाफ्लर का कहना था कि ‘‘समाज को ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बुजुर्गों की देखभाल करें और उनके प्रति दयालु और ईमानदार रहें। अस्पताल में काम करने वालों की आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के कौशल वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है। समाज भावना और कौशल के संयोग से चल सकता है, डाटा और कम्प्यूटर मात्रा से नहीं।’’
कुछ विद्वान उत्तर-आधुनिकतावाद को बहुलतावाद और नवसंस्कृतिवाद से जोड़ कर देखते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद अपने पूरे लक्षणों के साथ समाज पर असर डालता दिखाई पड़ता है। वहीं जब मैं टायनबी, पाउलोस मार ग्रगोरिओस और एल्विन टाफ्लर के विचारों के आधार पर हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता को परखने का प्रयास करती हूं तो मुझे लगता है कि हम अब उत्तर आधुनिकता के ‘सेकेंड फेज़’ में प्रवेश कर चुके हैं। हम पारिवारिक विखण्डन को अपना चुके हैं, परिवार की नैनो इकाइयों की ओर बढ़ रहे हैं, लिव इन रिलेशन और समलैंगिकता को सहज रूप में लेने का मन बनाते जा रहे हैं, आर्थिक तौर पर प्लास्टिक मनी और लिक्विड मनी को आत्मसात करने के लिए कटिबद्ध हैं और इन सबसे अधिक परिवर्तनकारी प्रवृत्ति कि हम पहले की अपेक्षा अधिक आत्मकेन्द्रित हो चले हैं। यह उत्तर आधुनिकता का द्वितीय चरण ही कहा जा सकता है।
रचना, आलोचना और साक्षात्कार में इस बार मैनेजर पाण्डेय हैं, जो गम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचनात्मक लेखन के लिए शीर्षस्थ साहित्यकारों में गिने जाते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी साहित्य में बोध, विश्लेषण तथा मूल्यांकन के महत्व को स्थापित करने के साथ ही हिन्दी भाषा में साहित्य की समाजशास्त्राय नूतन दृष्टि को विकसित कियाई है। वे आलोचना-कर्म में परम्परा के विश्लेषणात्मक पुनर्मूल्यांकन के पक्षधर रहे हैं। उन्होंने भक्त कवि सूरदास के साहित्य की समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की परंपरागत प्रचलित धारणा से अलग एक सर्वथा नयी तार्किक प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। दलित साहित्य और स्त्रा-स्वतन्त्राता के समकालीन प्रश्नों पर भी मैनेजर पाण्डेय की अपनी एक स्वतंत्रा दृष्टि है।
आलोचना संदर्भ के क्रम में भारत यायावर का लेख नन्दकिशोर नवल की आलोचनात्मकता के तारतम्य में हिन्दी साहित्य में आलोचना के नए पक्षों को सामने रख रहा है जिन पर चिंतन-मनन किया जाना आवश्यक है। यूं भी एक अरसे से यह माना जा रहा है कि हिन्दी का आलोचनात्मक पक्ष कमजोर होता जा रहा है।
तमाम पठनीय सामग्रियों के साथ दो महत्वपूर्ण लेख। पहला ‘स्त्रा लेखन में निरूपित पुरुष छवि’ और दूसरा ‘मीराबाई के काव्य में स्त्रा विमर्श के स्वर’। रोहिणी अग्रवाल इस प्रश्न को उठा कर झकझोरती हैं कि ‘क्या समूचा हिन्दी साहित्य गहरे राग या उदग्र द्वेष से बन्धे भावोच्छ्वासों का अखाड़ा है, जो अपने-अपने द्वीपों में कैद रचयिता को अपने-अपने हिसाब चुकता करने का अवसर देता है?’ उन्होंने इस तथ्य को भी याद दिलाया है कि मीराबाई के बाद हिन्दी साहित्य में स्त्रा अभिव्यक्ति के स्वर आधुनिक काल में सुनाई पड़ते हैं। वहीं सुषमा सहरावत भी यही मानती हैं कि स्त्रा विमर्श के बीज हमें मीराबाई के काव्य में मिलते हैं। इन्हीं बीजों ने प्रस्फुटित होकर आगे चलकर स्त्रा विमर्श को व्यापक धरातल पर स्वरूप प्रदान किया।
समाज बदल रहा है, स्त्रा का जीवन बदल रहा है, विचार और प्रवृत्तियां बदल रही हैं। यह साल भी बदल जाएगा।
परिवर्तन पर अपनी ये पंक्तियां याद आ रही हैं मुझे -
अब न वो वन है न कानन
न पेड़, न झुरमुट
न नदी के स्वच्छ किनारे
कोलाहल में गुम वंशीस्वर
और उजड़े हुए हमारे मिलन स्थल
कहो कान्हा! 
मैं तुमसे कहां मिलू?
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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati October-December-2016
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati October-December-2016
Samayik Ssaraswati - October-December 2016 Cover

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