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रविवार, सितंबर 25, 2016

विमर्श रास्ता है तो विवाद रुकावट

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2016 अंक में मेरा संपादकीय ...
("सामयिक सरस्‍वती", संपादक Mahesh Bhardwaj, कार्यकारी संपादक Sharad Singh) जुलाई-सितम्बर 2016 अंक )
विमर्श रास्ता है तो विवाद रुकावट
- शरद सिंह
वर्षा ऋतु का आगमन... चिलचिलाती धूप के बाद एक सुखद अनुभव...किसी वृद्ध के चेहरे-सी गहरी झुर्रियों वाली सूखी हुई धरती पर रौनक लौटाती बूंदें... रेत से धूसर हो चले परिदृश्य पर हरियल अंकुराते सपने। हर बार की तरह इस बार भी पावस ने सूखे के द्वार पर दस्तक दी कि लो, मैं आ गया। उन राज्यों में राहत की लहर दौड़ गई जहां किसान आकाश की ओर टकटकी बांधे देख रहे थे।
पावस... हां, पावस में ही होती है ‘‘पावस व्याख्यानमाला’’। 23-24 जुलाई 2016 को हिन्दी भवन, भोपाल में आयोजित दो दिवसीय 23वीं पावस व्याख्यानमाला में ‘‘समकालीन उपन्यासों में थर्ड जेंडर की सामाजिक उपस्थिति’’ विषय पर मैंने अपना व्याख्यान देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘इस मंच से थर्ड जेंडर विमर्श को आरम्भ किए जाने की मैं घोषणा करती हूं।’’ वहां उपस्थित बुद्धिजीवियों ने मेरी इस घोषणा का स्वागत किया। मेरी इस बात का भी कि थर्ड जेंडर को सामाजिक समानता के अधिकार दिलाने में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और आवश्यकता है ऐसे साहित्य पर एक स्वतंत्रा विमर्श की। ...और मैंने अनुभव किया कि सभी उत्सुक हैं इस नए विमर्श के आगाज़ के लिए। मैंने अपनी बात के तर्क में थर्ड जेंडर से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों के साथ ही हिन्दी के उन उपन्यासों पर विस्तार से चर्चा की जो थर्ड जेंडर पर आधारित हैं। इस विषय पर मेरी एक पुस्तक भी आने वाली है। वैसे सच कहूं तो हिन्दी साहित्य में थर्ड जेंडर पर अलग से विमर्श की आवश्यकता का अनुभव मुझे तब हुआ जब मैंने वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘‘पोस्ट बॉक्स 203 नाला सोपारा’’ पढ़ा। इस उपन्यास की कथा अपने आप में अद्भुत है और मन की गहराइयों तक उतर जाने में सक्षम है क्यों कि यह उपन्यास समाज में थर्ड जेंडर की दशा को नहीं वरन् थर्ड जेंडर की ओर से उसकी स्वयं की मनोदशा का बारीकी से विश्लेषण करता है।
विमर्श और विवाद दोनों ही ‘वि’ से शुरू होते हैं लेकिन एक विचारों को नया रास्ता देता है तो दूसरा विचारों की राह में रुकावट बन जाता है, यदि वह विवाद साहित्यिक चोरी का हो या घोस्ट राईटिंग के रहस्य के उद्घाटन का। ‘पल्प फिक्शन’ के क्षेत्रा में घोस्ट राईटिंग आम बात रही है। मोटे, धूसर काग़ज़ पर छपने वाले पॉकेटबुक उपन्यासों की दुनिया में घोस्ट  राईटर्स की कोई कमी नहीं है। कोई नाम लेखक के तौर पर ‘ब्रांड’ बन जाने पर उस छद्म नाम पर विभिन्न लेखकों से उपन्यास लिखवाए जाते रहे हैं। आमतौर पर घोस्ट राईटर पैसों की तंगी से निपटने के लिए मजबूरी में यह रास्ता अपनाते  हैं। इसीलिए जब कोई विवशता न हो और फिर भी घोस्ट राईटिंग की जाए, वह भी किसी वास्तविक नाम के लिए तो मामले को समझना ज़रा मुश्क़िल हो जाता है। अनेक बार ऐसे विवाद सामने आ चुके हैं जिनमें कभी किसी लेखिका पर साहित्यिक चोरी का आरोप लगा तो  कभी किसी लेखक ने दूसरे साहित्यकार के लिए सृजन का दावा किया। ताज़ा विवाद ‘जोशी बनाम जोशी’ का है। जिसमें प्रभु जोशी ने भालचन्द्र जोशी के लेखन पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए खुलासा किया है कि वे भालचन्द्र जोशी की कहानियों को विस्तार दिया करते थे।  सभी आरोपां को नकारते हुए भालचन्द्र जोशी ने इसे ‘हताश और कुंठित व्यक्ति की मनःस्थिति’ करार दिया है। पत्रिका के इस अंक में इस विवाद के दोनों पक्षों को उन्हीं के शब्दों में पाठकों के सामने यथावत् रखा जा रहा है। ‘सामयिक सरस्वती’ के प्रबुद्ध पाठक सत्य का आकलन कर ही लेंगे।
मानव चरित्रा और मानव मन को समझ पाना सबके बस की बात नहीं होती। समाज विज्ञान और मानविकी पर अधिकारपूर्वक व्याख्यान देने वाले विद्वान तथा वर्तमान में महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र वर्तमान शिक्षा पद्धति को ले कर चिन्तित हैं। उनका कहना है कि ‘‘दुर्भाग्यवश आज की शिक्षापद्धति की आधारभूमि बर्तानवी औपनिवेशिक शासन की उस नीति में थी, जिसका उद्देश्य शासकों और शासितों के बीच  बिचौलिए पैदा करना था। इसके लिए पश्चिमी शिक्षा की अंग्रेजी माध्यम से नींव डाली गयी।’’ उनकी चिन्ता स्वाभाविक है। शिक्षा से जुड़े ज्वलंत प्रश्नों और उनके उत्तरों के साथ ‘रचना, आलोचना और साक्षात्कार’ में इस बार प्रो. गिरीश्वर मिश्र हैं .... उनसे महत्वपूर्ण बातचीत की है अशोक मिश्र ने और उनके कृतित्व पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है बलराम शुक्ल ने।
आलोचकों की प्रथम पंक्ति में जिनका नाम आता है उनमें से एक हैं नामवर सिंह। हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह होने का अर्थ क्या है? इस पर बड़ी सजगता से कलम चलाई है सदानंद शाही ने।
हमेशा की तरह इस अंक में भी  कहानियां, कविताएं, लेख और पुस्तक समीक्षा। लेकिन हर एक के तेवर अलग, हर एक की ज़मीन अलग। शशिकला त्रिपाठी का लेख ‘साम्प्रदायिकता और हिन्दी फिल्में’ एक दिलचस्प दिशा देता है हिन्दी फिल्मों के बारे में विचार करने को। हॉलीवुड की फिल्मों से हमारी हिन्दी फिल्मों, विशेषरूप से कामर्शियल फिल्मों में एक सबसे बड़ा अन्तर है गानों का।  हिन्दी फिल्मों में गायक और गाने फिल्मों को जनमानस की स्मृतियों से जोड़े रखने में सेतु का काम करते हैं। ‘कभी तनहाइयों में हमारी याद आएगी...’ जिस आवाज़ में यह मशहूर गाना गाया गया था वो आवाज़ मुबारक़ बेगम की थी जिन्हें पिछले दिनों हमने खो दिया। किसी समय लाखों दिलों पर राज करने वाली पार्श्व गायिका मुबारक बेगम का लंबी बीमारी के बाद मुंबई में जोगेश्वरी स्थित घर में निधन हो गया। वह 80 साल की थीं। मुबारक बेगम ने 1950 से 1970 के बीच कई फिल्मों में गाने गाए। मुबारक़ बेगम भले ही ज़मीदोज़ हो गईं लेकिन उनकी आवाज़ हमेशा हवाओं में तैरती रहेगी।
विगत दिनों हमने कई कला और साहित्य के कई दिग्गजों को खोया। कालजयी कृति ‘हज़ार चौरासी की मां’ की लेखिका महाश्वेता देवी का देहावसान  साहित्यजगत को स्तब्ध कर गया। जनजातीय समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उन्हीं के शब्दों में ‘‘एक लम्बे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी।’’   उनके उपन्यास गहन शोध पर आधारित हैं। 1956 में प्रकाशित अपने पहले उपन्यास ‘झांसीर रानी’ की तथ्यात्मक सामग्री जुटाने के लिए उन्होंने सन् 1857 की जनक्रांति से संबद्ध क्षेत्रों झांसी, जबलपुर, ग्वालियर, ललितपुर, कालपी आदि की यात्रा की थी। वे अपने विशिष्ट लेखन के लिए सदा स्मरणीय रहेंगी।
जिस रास्ते से भी जाऊं/ मारा जाता हूं / मैंने सीधा रास्ता लिया/ मारा गया/ मैंने लम्बा रास्ता लिया/ मारा गया.... ये पंक्तियां हैं नीलाभ अश्क़ की, जिन्हें हमने खो दिया है। प्रसिद्ध साहित्यकार उपेंद्रनाथ अश्क के पुत्रा एवं जाने माने कवि, पत्राकार, नाटककार, अनुवादक, आलोचक और जुझारू  साथी  नीलाभ अश्क। उन्होंने अरूंधति राय की पुस्तक ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ का अनुवाद ‘मामूली चीजों का देवता’ शीर्षक से किया था। शेक्सपीयर, ब्रेख्त और लोर्का के कई नाटकों का काव्यात्मक अनुवाद और लेर्मोन्तोव के उपन्यास का अनुवाद भी किया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की त्रौमासिक पत्रिका ‘नटरंग’ के संपादक रहे। वे ‘नीलाभ का मोर्चा’ नाम का ब्लॉग भी लिखते थे।
एक और महत्वपूर्ण कवि, अनुवादक, अध्यापक एवं पत्राकार को हमने खोया ... वे है वीरेन्द्र डंगवाल। उनके काव्य-सृजन  की विशेषता थी उन्मुक्तता के साथ बौद्धिकता और लोकत्व के गुण। पहाड़ की प्रतिध्वनियों से भरीपूरी अभिव्यक्ति ने काव्यप्रेमियों को उनकी ओर सहज आकर्षित किया। वीरेन डंगवाल ने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाजिम हिकमत की कविताओं के अनुवाद भी किए।
कलम और तूलिका भावनाओं को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम हैं। जो संवाद एक कविता या कहानी कर सकती है वही संवाद एक पेंटिंग भी करती है। शब्दों से रंग और रंगों से शब्द  ध्वनित होना ही कला और साहित्य को परस्पर जोड़ता है। कलम के धनी अशोक वाजपेयी और तूलिका के धनी सैयद हैदर रज़ा की मित्राता अभिन्न रही। भारत के तीन सर्वोच्च सम्मान पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री से सम्मानित विश्वविख्यात चित्राकार सैयद हैदर रज़ा का निधन कलाजगत के लिए एक अपूर्णीर्य क्षति है।
रिश्ता चाहे संगीत का हो, चित्राकला का हो या फिर साहित्य का, अपनों का बिछड़ना सदा पीड़ादायक होता है। यह चिरविछोड़ उस सत्य का भी पाठ पढ़ाता है कि जीवन नश्वर है, ज़िंदगी की शाम कभी भी हो सकती है तो फिर परस्पर लडाई, झगड़ा, विवाद, वैमनस्य क्यों?
खोने से पहले पा लेना ही जीवन की थाती रह जाता है वरना बचता है एक खालीपन ही तो। ... और अंत में  इसी सत्य का अनुमोदन करती मेरी यह कविता-
सुना तो बहुत था
धूप की चादर में लिपटे हुए ख़्वाब
कभी पूरे नहीं होते
अब ये जाना
तुमको खो कर
कि लोग सच कहते थे।
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https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_july-september_20 
https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-july-september-2016

Samayik Saraswati, July-September 2016 - Editorial (1)
Samayik Saraswati, July-September 2016 - Editorial (2)

Samayik Saraswati, July-September 2016 
Samayik Saraswati, July-September 2016 - Cover
 

शुक्रवार, सितंबर 09, 2016

मेरे पसंदीदा लेखक .... लियो टालस्टाय और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ...

 लियो टालस्टाय और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.... दोनों मेरे पसंदीदा लेखक ...जिनकी किताबें मेरे लिए प्रेरक रही हैं.....
आज उनका जन्मदिवस है.....
LEO TOLSTOY and  Bharatendu Harishchandra .... My Favorite Writers ...Whose books are my ideal...
Today they were born ....
Leo Tolstoy and  Bharatendu Harishchandra

शुक्रवार, सितंबर 02, 2016

मेरी पहली ‘डेब्यू स्टोरी’ ‘फेमिना’ (हिन्दी) सितम्बर 2016 में ....

प्रिय मित्रो, ‘फेमिना’ (हिन्दी) के सितम्बर 2016 अंक में मेरे वक्तव्य के साथ मेरी ‘प्रथम प्रकाशित कहानी’ प्रकाशित की गई है। अपनी पहली कहानी को ‘फेमिना’ में प्रकाशित देख कर बहुत-सी यादें ताज़ा हो गईं। आप भी पढ़िए मेरी पहली ‘डेब्यू स्टोरी’ ‘‘गीला अंधेरा’....
एक सुखद अनुभूति के लिए हार्दिक धन्यवाद ‘‘फेमिना’’! 
 
Dear Friends,
'Femina' magazine has published my "first published story" with my statement in September 2016 issue. Really it is special experience for me. So, I want to share with all of you.
Thank you "Femina" to give me a special experience !!!
Femina, September 2016 - Story of Dr (Miss) Sharad Singh

Femina, September 2016 - Story of Dr (Miss) Sharad Singh

Femina, September 2016 - Story of Dr (Miss) Sharad Singh
Femina, September 2016 - Cover Page

बुधवार, अगस्त 31, 2016

मुक्तिबोध ! तुम्हें बोध था मुक्ति के द्वार का - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के मुक्तिबोध विशेषांक में मेरा संपादकीय ...
(सामयिक सरस्‍वती, संपादक Mahesh Bhardwaj, कार्यकारी संपादक Sharad Singh) का अप्रैल-जून 2016 अंक गजानन माधव मुक्तिबोध पर केंद्रित विशेषांक )

मुक्तिबोध ! तुम्हें बोध था मुक्ति के द्वार का
- शरद सिंह
गजानन माधव मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष इसी वर्ष अर्थात्  2016 के नवंबर माह में आरम्भ हो जाएगा। शताब्दी वर्ष आरम्भ होते ही मुक्तिबोध की रचनाशीलता और सृजन पर चर्चा-परिचर्चा, संगोष्ठियों तथा आकलन का दौर भी आरम्भ हो जाएगा। इस कोलाहल से पहले ‘सामयिक सरस्वती’ का यह अंक ‘मुक्तिबोध विशेषांक’ के रूप में रखने का उद्देश्य मात्रा यही है कि मुक्तिबोध के तमाम सृजन को आत्मसात करते हुए शताब्दी वर्ष तक पहुंचा जाए... ताकि हम उन्हें भली-भांति जान, समझ लें जिनका शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे हैं।
वस्तुतः मुक्तिबोध के विचारों को समझना सरल नहीं हैं। उनके शब्द सरल प्रतीत हो सकते हैं किन्तु उन शब्दों की गहराई उस तल तक ले जाती है जहां वाद-विवाद से परे मानवधर्म सम्वाद करता मिलता है। मुक्तिबोध का काव्य छायावादी शैली से आरम्भ हो कर यथार्थवाद की ओर अग्रसर हुआ। वे अपनी कविताओं में कबीर की तरह मुखर दिखाई देते हैं। ‘खतरे उठाने ही होंगे’ में समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। यदि मुक्तिबोध के समग्र साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो हम पाएंगे कि आज जिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों के उत्तर हम ढूंढ रहे हैं, उन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हैं मुक्तिबोध के साहित्य में। समय की नब्ज़ को थामने और धड़कनें गिनने की क्षमता अपने समकालीन साहित्यकारों की अपेक्षा मुक्तिबोध में कहीं अधिक थी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध अपने साहित्य को ले कर अपने जीवनकाल में उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितने कि मरणोपरांत।
सन् 1980 में जबलपुर में राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ का महाअधिवेशन हुआ। अनेक लेखक उसमें उपस्थित हुए। उस समय मध्यप्रदेश के शिक्षा एवं संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी थे तथा मुख्यमंत्राी थे अर्जुन सिंह। अर्जुन सिंह ने उस सम्मेलन में लेखकों का स्वागत करने के लिए आने की इच्छा जताई। लेखकों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। शिव कुमार मिश्र नाराज़ हो कर गुजरात लौट गए और विश्वंभर उपाध्याय ने भी विरोध किया। सम्मेलन की अध्यक्षता हरिशंकर परसाई ने की, उद्घाटन केदारनाथ अग्रवाल ने किया तथा संचालन ज्ञानरंजन एवं कमला प्रसाद ने किया। बहरहाल, इसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाए। इसके लगभग महीने भर बाद मुख्यमंत्राी की ओर से घोषणा कर दी गई कि सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाएगी। पीठ की जिम्मेदारी सौंपी गई हरिशंकर परसाई को। हरिशंकर परसाई इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं थे किन्तु उनके मित्रों ने उन पर दबाव बनाया और तब उन्हें मुक्तिबोध पीठ का दायित्व स्वीकार करना ही पड़ा।
त्रिलोचन शास्त्राी ने दो बार मुक्तिबोध पीठ का कार्यभार सम्हाला। अपने पहले कार्यकाल में वे अत्यंत सक्रिय रहे किन्तु दूसरे कार्यकाल तक वे अपनी अद्र्धांगिनी को खो चुके थे जिसके कारण भीतर ही भीतर उन्हें अवसाद घेरने लगा था। इसीलिए दूसरा कार्यकाल, पहले कार्यकाल की अपेक्षा शिथिल रहा। इस पीठ का दायित्व नरेश सक्सेना तथा श्याम सुंदर दुबे ने भी सम्हाला।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। उन्होंने अपने जीवन को सक्रियता से जिया तथा साहित्य सृजन के प्रति समर्पित रहे किन्तु विडम्बना यह कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुआ। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का दूसरा संस्करण भी उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध की कविताओं में भावनाओं की एक अलग ही आंच रही। इस आंच की तपिश को महसूस करते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।’’
मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वानों ने मुक्तिबोध को माक्र्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित कहा, तो कुछ ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित ठहराया। डाॅ. रामविलास शर्मा ने भी उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया। लेकिन प्रत्येक वाद-विवाद के सार में मुक्तिबोध मानववादी मूल्यों पर खड़े दिखाई दिए।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववादी दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। मुक्तिबोध की कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
आजकल उच्चशिक्षा केन्द्रों में राजनीति का जो रूप देखने को मिल रहा है उसके तारतम्य में याद आती है मुक्तिबोध की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस’ जिसमें उन्होंने भारतीय शिक्षा परम्परा को अपने अनूठे ढंग से रेखांकित किया है। यह एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। गुरु का अपना एक भेद था किन्तु समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
मुक्तिबोध न तो साम्यवादी विचारधारा के थे और न पूंजीवादी विचारधारा के, वे मूलरूप में मानवतावादी थे, मात्रा मानवतावादी। मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानववाद की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लाॅड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्राी-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियों में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं तो वहीं, संत बने रहने के लिए अपनी जननेंद्रीय को चाकू से काट देने वाले एबीलार्ड का भी स्मरण कराते हैं। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। वे ‘क्लाॅड ईथरली’ में खुल कर लिखते हैं-‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चैपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते।कृतो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है। इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है।’’ इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।
‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में मुक्तिबोध के कवि, लेखक, आलोचक, कहानीकार एवं पत्राकार पक्ष का परिचय तो मिलेगा ही साथ ही उनके जीवन से जुड़े रोचक संस्मरणों से गुज़रने का भी अवसर मिलेगा। इस विशेषांक के अतिथि संपादक हैं युवा साहित्यकार एवं समीक्षक दिनेश कुमार।
मुझे विश्वास है कि यह अंक ‘सामयिक सरस्वती’ के सुधी पाठकों को पसंद आएगा।
और अंत में मुक्तिबोध के सृजन के प्रति समर्पित मेरी एक कविता ....
मुक्तिबोध !
तुम्हें बोध था
मुक्ति के द्वार का
तभी तो ‘अंधेरे में’ तुमने
उजाले के रख दिए कुछ बिन्दु
टिमटिमाते हुए
फिर जुगनुओं की खेप
उपजा दी स्याही से, कागज़ पर
ताकि अंधेरे में रह कर भी
हम पा सकें उजाले की
असीमित संभावनाएं
और जी सकें अपने यथार्थ को।
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Also can read on this Link ...
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_april_june_2016

https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-april-june-2016
Samayik Saraswati April-June 2016 - Editorial (1)

Samayik Saraswati April-June 2016 - Editorial (2)
Samayik Saraswati April-June 2016 - Cover

शुक्रवार, मई 27, 2016

मनोरमा_ईयर_बुक 2016 में मेरी तीन पुस्तकें ...

मनोरमा_ईयर_बुक 2016 #मनोरमा_ईयर_बुक 2016 में मेरी तीन पुस्तकों  #राष्ट्रवादी_व्यक्तित्व: सरदार वल्लभ भाई पटेल, राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: दीनदयाल उपाध्याय का वर्ष 2015 की उल्लेखनीय पुस्तकों के रूप में उल्लेख किया गया।
" #Manorama_Year_Book" 2016 ......  My three books - #Rashtravadi_Vyaktitva : Sardar Vallabhbhai Patel, Rashtravadi Vyaktitva :Shyama Prasad Mukherjee and Rashtravadi Vyaktitva : Deen
Dayal Upadhyay are mentioned as notable books of 2015.
Hearty gratitude to "Manorama Year Book" and Pradeep Kumar  .....

बुधवार, मार्च 09, 2016

फागुन माह पर मेरा बुंदेली लेख .... डॉ शरद सिंह

फागुन माह पर मेरा बुंदेली लेख आज (06.03.2016) ‘‘पत्रिका’’ समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ है... इस बुंदेली लेख को पढ़िए और बुंदेली की मिठास का आनंद लीजिए...
Bundeli Lekh of Dr (Miss) Sharad Singh Patrika .. 06. 03. 2016

लेख
करके नेह टोर जिन दइयो
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

माव, पूस के दिन बीत गए, अब जे फागुन मईना आ गओ। टेसू औ सेमर फूलन लगे। मौसम नोनो सो लगन लगो। औ इते काम के मारे फुरसत नईयां। जीने-मरबे की पर रई है... बाकी काम-काज तो लगई रैहे, कछू घड़ी मिल-बैठ के फाग को आनंद ले लौ जाये... ई बात पे ईसुरी ने जे भौतई नोनी फाग कही है-
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें
सबखों लगत रात जियत भर, जो नईं कभऊं बढ़ानें
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नई जानें
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’, करत-करत मर जाने
काल तक सबई तरफ, इते सबई कछू सिमटो-सुकड़ो सो हतो औ आज हिया पे जा बौरानी उमंग की छायरी सी परन लगी है। फाग को नसा सो चढ़न लगो है। मनो ईसुरी ने सही कही रई -
मोरे मन की हरन मुनइया, आज दिखानी नइयां
के कंऊ हुए लाल के संगै, पकरी पिंजरा मइयां
पत्तन-पत्तन ढूंढ़ फिरै हैं, बैठी कौन डरइयां
कात ‘ईसुरी’ इनके लाने टोरी सरग तरइयां
अब ईसुरी तो हते फाग-गुरू..... उनको मुकाबलो को कर सकत है.... ऐसी-ऐसी फागें रच डारीं, के सुनत-सुनत मन नई अघात है। किसम-किसम की फागें, ऐसी नोनी फागें के कछू ने पूछो। जा तो सबई जानत आंय, के ईसुरी पे रजऊ के प्रेम को रंग चढ़ो रओ। औ इत्तो चढ़ो रओ के ईसुरी खों रजऊ के सिवाय कछू सूझत ने हतो। रजऊ के लाने जीने-मरबे की कसमें सी खात रहतते। जा के लाने उनने खुदई जा फाग कही रई -
जौ जी रजऊ-रजऊ के लाने, का काऊ सें कानें
जौं लों जीनें जियत जिन्दगी, रजऊ के हेत कमानें
पेले भोजन करें रजऊ आ, पाछे कें मोय खानें
रजऊ-रजऊ कौ नांव ‘ईसुरी’, लेत-लेत मर जाने
लेकन मनो ऐसो भी नइयां, के ईसुरी ने कौऊ और रंग पे कछू और ने कहो होय..... उनकी कही फाग में सबई रंग से दिखात हैं। कारे रंग बारन पे उन्ने जे फाग कही है...
कारे सबरे होत बिकारे, जितने ई रंग बारे
कारे नांग सफां देखत के, काटत प्रान निकारे
कारे भमर रहत कमलन पै, ले पराग गुंजारे
कारे दगाबाज हैं सजनी, ई रंग से हम हारे
‘ईसुर’ कारे खकल खात हैं, जिहर न जात उतारे

मनो, जा बात भी भूलबे की नईंया के ईसुरी को कारे रंग वारे किसन कन्हैया सोई प्यारे हतेे। बे कहत हैं-
काम के बान कामनिन खों भये, कारे नंद दुलारे

बाकी जे फागुन मईना में सबई खों मिल जुल के रहबो चइये, चाहे कछू हो जाय। औ संगे ईसुरी की जा फाग याद रखो चइये -
करके नेह टोर जिन दइयो, दिन-दिन और बढ़ईयो
जैसें मिलै दूध में पानी, ऊंसई मनै मिलैयो
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो
कात ‘ईसुरी’ बांय गहे की, खबर बिसर ने जइयो
जो सबई जनें मिल-जुल के रेहें, सो सबई दिन फागुन से नोने लगहें। सो फागुन की जै-जै, औ सबई जनें की जै-जै।
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अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस 2016 पर डॉ हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में मुख्य वक्ता के रूप में डॉ शरद सिंह

Dr Sharad Singh as a main speaker at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016.
 (22. 02. 2016)
Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

International Mother Language Day, Aacharan, Sagar Edition 20. 02. 2016 (Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 )

International Mother Language Day, Dainik Bhaskar, Sagar Edition 20. 02. 2016 (Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 )
 

मंगलवार, मार्च 01, 2016

पुस्तक-समीक्षा .... जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण पुस्तक .... - डॉ शरद सिंह



                           पुस्तक-समीक्षा




 जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण पुस्तक

- डॉ शरद सिंह



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पुस्तक   - जनकवि ईसुरी

संपादक  - आनन्दप्रकाश त्रिपाठी

प्रकाशक  - बुंदेली पीठहिन्दी विभागडॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)

मूल्य     - 250 रुपए

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बुन्देलखण्ड में साहित्य की समृद्ध परम्परा पाई जाती है। इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं जनकवि ईसुरी। वे मूलतः लोककवि थे और आशु कविता के लिए सुविख्यात थे। रीति काव्य और ईसुरी के काव्य की तुलना की जाए तो यह बात उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु युग में लोककवि ईसुरी को बुन्देलखण्ड में जितनी ख्याति प्राप्त हुई उतनी अन्य किसी कवि को नहीं। ईसुरी की फागें और दूसरी रचनाएं आज भी बुंदेलखंड के जन-जन में लोकप्रिय हैं। ईसुरी की फागें लोक काव्य के रूप में जानी जाती है और लोकगीत के रूप में आज भी गाई जाती है। डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) के बुंदेली पीठ से प्रकाशित जनकवि ईसुरीपुस्तक ईसुरी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानने, समझने की दिशा में महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में उपन्यास अंश एवं वैचारिक टिप्पणियों सहित कवि ईसुरी पर केन्द्रित कुल छब्बीस लेख हैं। पुस्तक का संपादन प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने किया है।

पुस्तक की भूमिका लिखते हुए प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने ईसुरी के संदर्भ में जनकवि होने के अर्थ की व्याख्या की है। प्रो. त्रिपाठी के अनुसार, ‘जनकवि के फ़जऱ् से वे (ईसुरी) कभी गाफि़ल नहीं हुए। समाज के प्रति अपने सरोकारों को ले कर वे निरन्तर सजग रहे। किसान, स्त्री और समाज के पीडि़त आम आदमी के लिए उनके मन में गहरी सहानुभूति और संवेदना थी। अपने अंचल की ग्राम्य जीवन की समस्याओं, प्राकृतिक आपदाओं, पर्यावरण संकट, बढ़ती आबादी पर उन्होंने चिन्ता जताई।
जो अपनी सृजनात्मकता के माध्यम से जन की दशा और दिशा का चिन्तन करे, विश्लेषण करे और रास्ता सुझाए, वही जन साहित्यकार हो सकता है। कवि ईसुरी इस अर्थ में सच्चे जन कवि थे। ईसुरी का जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, वे किस प्रकार के संकटों से जूझते रहे इस पक्ष पर पुस्तक के पहले लेख ईसुरी की जीवन यात्रा’ (नाथूराम चैरसिया) से समुचित प्रकाश पड़ता है। इसी दिशा में लोकेन्द्र सिंह नागर का लेख ईसुरी और रजऊ की खोज मेंईसुरी और रजऊ के अस्तित्व का अन्वेषण करता है। इसे पढ़ कर ईसुरी के देशकाल से जुड़ना आसान हो जाता है।
ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र में मात्रा रजऊहै, दूसरी स्त्री नहीं। ईसुरी की कविताओं में प्रेम का जो रूप उभर कर आया है वह आध्यात्म की सीमा तक समर्पण का भाव लिए हुए है, जहां व्यक्ति को अपने प्रिय के सिवा कोई दूसरा दिखाई नहीं देता है और व्यक्ति उसकी हर चेष्टा से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति नैतिक बंधनों में पर्याप्त छूट लेने की अनुमति देती है।  यह छूट रीतिकालीन कवियों की कविताओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ईसुरी  की श्रृंगारिकता में सामान्य रूप से कुंठाहीनता, शारीरिक सुख की साधना, प्रेमजन्य रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति प्रिय के  दृष्टिकोण आदि शास्त्रीय लक्षणों से युक्त है।
ईसुरी के जीवन और सृजन पर रजऊनाम की स्त्री का गहरा प्रभाव था। यद्यपि इस बात में मतभेद है कि रजऊउस स्त्री का नाम था अथवा स्नेहमय सम्बोधन। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि रजऊके प्रति ईसुरी को अगाध प्रेम था और उन्होंने अधिकांश काव्य रजऊ के संदर्भ में ही रचा है। ईसुरी के काव्य में रजऊ की उपस्थिति का आकलन एवं विवेचन करने वाले लेख हैं-‘‘लोककवि ईसुरी के प्रेमोच्छ्वास‘ (अम्बिकाप्रसाद दिव्य), ‘ईसुरी की फागों में रूप सौंदर्य’ (रामशंकर द्विवेदी), ‘ईसुरी के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश दुबे), ‘ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (शरद सिंह) तथा। इनके अतिरिक्त नर्मदा प्रसाद गुप्त का लेख ईसुरी की काव्य-प्रेरणा और रचना-प्रक्रियाभी ईसुरी के व्यक्तित्व-कृतित्व को समझने में सहायक है। इ।सुरी के फाग साहित्य को समझने की दृष्टि से यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। फागों के बारे में स्पष्ट करते हुए लेखक ने लिखा है कि पहले यह भ्रान्ति थी कि वे लोकरचित हैं किन्तु पुनरुत्थान के फागकारों और खासतौर से ईसुरी ने इस कुहर को साफ़ कर दिया। ...फागकार एक तो एकान्त में फागें रचता है, दूसरे सम्वाद की स्थिति में।
ईसुरी के काव्य में स्त्री, स्त्री उसका रूप-लावण्य, प्रेम और आध्यात्म की अद्भुत छटा दिखाई देती है। बहादुर सिंह परमार का लेख ईसुरी का समाज बोधतथा आनन्दप्रकाश त्रिपाठी का लेख ईसुरी की कविता में स्त्री समाजईसुरी के सामाजिक सरोकारों पर आधारित है। ये लेख इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि ईसुरी मात्र रीतिकालीन लक्षणों से प्रोतप्रोत कवि नहीं थे अपितु वे प्रगतिशील दृष्टि से परिपूर्ण सामाजिक चेतना भी रखते थे। ईसुरी का समाज बोधलेख से ज्ञात होता है कि लोक कवि के मुख से समाज की विद्रूपताओं एवं लोमन की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।स्त्री समाज का अभिन्न हिस्सा है अतः ईसुरी के काव्य में स्त्री के स्वरूप को समझे बिना ईसुरी के काव्य को समझा नहीं जा सकता है। कुछ विद्वान ईसुरी के काव्य में श्रृंगार के अतिरेक को अश्लीलता ठहराते हैं किन्तु जैसा कि ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (आनन्दप्रकाश त्रिपाठी)लेख में भी स्पष्ट किया गया है कि श्रृंगार रस में डूबते हुए ईसुरी ने रजऊके अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री को ध्यान में नहीं रखा है। उनका सारा प्रेम या प्रेमासिक्त विवरण रजऊपर ही जा ठहरता है। आननदप्रकाश त्रिपाठी लिखते हैं कि-वस्तुतः ईसुरी के काव्य में नारी जीवन की बहुरंगी छवियां अंकित हैं। स्त्री समाज को उन्होंने पूरी संवेदना और सहजता के साथ चित्रित किया है।वहीं ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (शरद सिंह) में भी यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि ईसुरी को मात्र दैहिक कवि मान लेना उनके काव्य के एक पक्ष को देखने के समान है। उनके काव्य में मिलन की तमाम आकांक्षाएं हैं किन्तु मिलन का वह विवरण नहीं है जो कई रीतिकालीन कवियों की कविताओं में खुल कर मुखर हुआ है। ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र में मात्र रजऊहै, दूसरी स्त्री नहीं।
ईसुरी के लोक का महाकाशलेख में वसंत निरगुणे ने लिखा है कि मेरी दृष्टि में ईसुरी ने रजऊ में उस विराट स्त्री के दर्शन कर लिए थे, जिसे ब्रह्मा ने पहली बार रचा था। यह ईसुरी का लोक रहा जिसमें रजऊ बार-बार आती है और स्त्री की नई व्याख्या ईसुरी के छंद में उतरती जाती है।
दुर्गेश दीक्षित का लेख ईसुरी की आध्यात्म चेतनाईसुरी के काव्य के वस्तु विषय के क्रमिक विकास और उनकी आध्यात्मिकता प्रस्तुत करता है। तृप्ति के बाद विरक्ति का क्रम शाश्वत है।दुर्गेश दीक्षित का यह वाक्य ईसुरी के उसे भाव की ओर संकेत करते हैं जिनमें पहले तो कवि अपनी रजऊकी लौकिकता का वर्णन करते हैं और अंततः उसे नईयां रजऊ काऊ के घर में, बिरथां कोऊ भरमेंकह कर अलौकिक बना देते हैं।
पुस्तक की विशेषता यह भी है कि इसमें ईसुरी पर विविध विधाओं की सामग्री को संग्रहीत किया गया है। पर बीती नई कहत ईसुरी’ (रमाकांत श्रीवास्तव), ‘ईसुरी और उनके समकालीन गंगाधर व्यास’ (गुणसागर सत्यार्थ), ‘ईसुरी के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश दुबे), ‘पुनर्पाठ में ईसुरी’ (श्यामसुंदर दुबे), ‘जनकवि ईसुरी: प्रासंगिकता के नए संदर्भ’ (कांतिकुमार जैन), उपन्यास अंश कही ईसुरी फाग’ (मैत्रेयी पुष्पा) एवं प्रेम तपस्वी’ (अंबिकाप्रसाद दिव्य), नाटक यारौं इतनो जस कर लीजो’ (गुणसागर सत्यार्थी), कविताएं ईसुरी को याद करते हुए’ (आशुतोष कुमार मिश्र) तथा आकलनयुक्त टिप्पणियांे ने पुस्तक को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। कही ईसुरी फागहिन्दी की सुपरिचित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में ईसुरी के मानवीय स्वभाव और चरित्र की दृष्टि से रजऊ और ईसुरी के पारस्परिक संबंध का आकलन किया गया है अतः पुस्तक में इस उपन्यास के अंश को शामिल किया जाना आवश्यक था। इसी प्रकार प्रेम तपस्वीउपन्यास ईसुरी के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालता है अतः इसके अंश का समावेश भी समीचीन है। आशुतोष कुमार मिश्र का यह काव्यांश ईसुरी के कृतित्व को बखूबी रेखांकित करता है-
सही-सही बताना कवि
तुमने फाग लिखे हैं
कि रजऊके इंतज़ार के
घने वृक्ष लगाए हैं। 
बुंदेली अध्ययन मालाके अंतर्गत प्रकाशित जनकवि ईसुरीपुस्तक कवि ईसुरी के लगभग प्रत्येक पक्ष पर गहन दृष्टि डालने वाली सामग्रियों से परिपूर्ण है तथा यह शोधार्थियों सहित साहित्यिक अभिरुचि सभी पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है।      
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