Dr (Miss) Sharad Singh, Writer |
पुस्तक-समीक्षा
जीवट स्त्री की साहसिक आत्मकथा
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
(सोशल एक्टविस्ट एवं लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा "आपहुदरी : एक ज़िद्दी लड़की की आत्मकथा" की मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा "आउटलुक" पत्रिका के 16-31 जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित )
रमणिका गुप्त एक जीवट महिला हैं। उन्होंने
लेखनकार्य के साथ ही मजदूरों, आदिवासियों, दलितों एवं अल्पसंख्यकों के पक्ष में
अनेक लड़ाइयां लड़ी हैं। उन्होंने अपनी आयु से कई गुना अधिक रंग देखे हैं जीवन के।
उस उम्र में जब रूमानी अनुभवों के चटख रंग अधिक आकर्षित करते हैं और छद्मवेशी बन
कर अपने शिकंजे में जकड़ने लगते हैं, किन्तु सब कुछ सुखद और अपनी मुट्ठी में लगते
हुए भी फिसलने लगता है, उस
उम्र के दौर में रमणिका गुप्त ने उन तमाम रंगों के साथ उन्मुक्तता से खेला और
साबित कर दिया कि समाज की तमाम रूढि़यों तथा पुरुषों द्वारा स्त्रिायों पर थोपी गई
बंदिशों के विरुद्ध वे एक ‘आपहुदरी’ अर्थात् जिद्दी की तरह अडिग खड़ी रहने
का माद्दा रखती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को नाम दिया है-‘‘आपहुदरी: एक जि़द्दी लड़की की आत्मकथा’’।
Aaphudari |
रमणिका गुप्त की आत्मकथा की पहली कड़ी ‘हादसे’ के नाम से प्रकाशित हो चुकी है और ‘आपहुदरी’ दूसरी कड़ी है जिसमें बचपन से लेकर
धनबाद तक के अनुभवों को संजोया गया है। इस आत्मकथा में एक ऐसी स्त्री के दर्शन
होते हैं जिसका जितना सरोकार स्वयं के अस्तित्व की स्थापना से है उतना ही सराकार
दुखी-पीडि़त इंसानों के दुखों को दूर करने से भी है। एक ऐसी स्त्री जो स्वयं के
सुख की कल्पना के वशीभूत पिता से विद्रोह करके विवाह रचा सकती हैं तो धनबाद के
कोयला मज़दूरों के हित की रक्षा के लिए किसी के शयनकक्ष में पहुंच कर उसकी अंकशयनी
भी बन सकती है। यह स्त्री-जीवन का ऐसा कंट्रास्ट है जो पूरी दुनिया में विरले ही
मिलेगा।
समाज स्त्री के साथ दोहरापन अपनाता है। ‘अपनी स्त्री’ और ‘पराई स्त्री’ के लिए अलग-अलग मापदण्ड होते हैं। ‘अपनी स्त्री’ से अपेक्षा की जाती है कि वह पति अथवा
परिवार के पुरुष द्वारा निर्धारित रास्ते पर चले, बिना किसी प्रतिवाद के। जबकि ‘पराई स्त्री’ से अपेक्षा की जाती है कि वह हरसंभव
तरीके से उन्मुक्तता का जीवन जिए। यह उन्मुक्तता उसी समय तक के लिए जब तक वह ‘अपनी स्त्री’ में परिवर्तित नहीं हो जाती है। जब कोई
लेखिका आत्मकथा लिखती है तो इसी दोहरेपन की पर्तें अपने अंतिम छोर तक खुली दिखाई
देती हैं। अकसर लेखिकाओं की आत्मकथा पुरुषवादी समाज को कटघरे में ला खड़ा करती है।
स्त्री के प्रति समाजिक सोच न कल बदली थी और न पूरी तरह से आज बदली है। आज भी स्त्री
को ‘वस्तु’
और ‘भोग्या’ मानने वालों की कमी नहीं है। आज वे
औरतें जो मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं और उनकी मुक्ति देहमुक्ति से अलग नहीं हैं।
हरहाल, स्त्रियों
का प्रथम बंधन देह से प्रारम्भ होता है। यद्यपि ‘देहमुक्ति’ के विषय को ‘बोल्डनेस’ ठहरा दिया जाता है।
अपने जीवन का अक्षरशः सच लिखना बहुत कठिन होता
है, चाहे
स्त्री हो या पुरुष दोनों के लिए। इंसान अपना बेहतर पक्ष ही सबके सामने रखना चाहता
है, अपनी
कमजोरियों को नहीं। जबकि आत्मकथा की विधा जीवन के प्रत्येक सच की मांग करती है,
चाहे वह अच्छा
हो या बुरा। जब भी किसी लेखिका की आत्मकथा सामने आती है, साहित्य समाज उसके प्रति अतिरिक्त
सजगता अपना लेता है कि लेखिका ने कहीं कोई ‘ऐसी-वैसी’ बात तो नहीं लिख दी है? अपना दुख, अपनी पीड़ा ही लिखी है न, कहीं पीड़ा के कारणों का खुलासा तो
नहीं कर दिया है? लेखिका
एक स्त्री होने के साथ-साथ पुरुषों की भांति एक मनुष्य भी है जिसका अपना एक जीवन
है, अपने
दुख-सुख हैं और जिन्हें गोपन रखने अथवा उजागर करने का उसे पूरा-पूरा अधिकार है।
उसके भीतर वे सभी संवेग होते हैं जो एक आम स्त्री में होते हैं, अन्तर मात्रा यही होता है कि आम स्त्री
उन संवेगों को व्यक्त करने का साहस नहीं संजो पाती है जबकि आत्मकथा लिखने वाली स्त्री
साहस के साथ सब कुछ सामने रख देती है-जो जैसा है, वैसा ही।
Outlook..16-31 Jan 2016..Review of Aaphudari by Dr Sharad Singh |
रमणिका गुप्त अपने जीवन के पन्ने पलटती हुई
अपने अनुभवों का बयान तो करती ही हैं, कोयलांचल के हर स्तर में व्याप्त हर प्रकार के
भ्रष्टाचार से भी रूबरू कराती हैं। उन्होंने ‘आपहुदरी’ में समाज के सकल पाखण्ड को चुनौती देते
हुए अपने भीतर की स्वावलम्बी, स्वतंत्रा स्त्री के छोटे से छोटे पक्ष को भी
ध्यानपूर्वक सामने रख दिया है, जो रोचक भी है, पठनीय भी और चिन्तन योग्य भी। अदम्य
साहस, उन्मुखता
का आह्वान और स्त्रियोचित आकांक्षाएं - सबकुछ एक साथ जी लेने की कला यदि किसी को
जानना हो तो उसे रमणिका गुप्त की आत्मकथा ‘आपहुदरी’ कम से कम एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
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समाज की हकीकत उजागर करता हुआ लेख है ।
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