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मंगलवार, दिसंबर 03, 2013

स्लेव मार्केट

 कहानी
- डॅा. शरद सिंह

(मेरी कहानी ‘स्लेव मार्केट’ ‘गवर्नेंस नाउ’ पत्रिका, 1-15 सितम्बर 2013 में प्रकाशित हुई थी...आप भी इसे पढ़े.....)

आज सुबह से उसका मन खिन्न था। इसीलिए उसने अपने नाश्ते में फेरबदल कर लिया। गोया नाश्ता बदल लेने से हालात बदल जाएंगे। वह जानती थी कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है फिर भी उसने तयशुदा नाश्ता करने के बजाए दो किलोमीटर अधिक दूर जा कर दूसरा नाश्ता करने की ठानी।
‘वन मोमोज़ प्लीज़ !’ रेस्तरां में पहुंच कर उसने बैरे को आदेश दिया ही था कि उसके कानों से एक आवाज़ टकराई।
‘नो-नो! नाॅट वन...टू मोमोज़...प्लीज़...!’
नमिता ने देखा कि उसकी मेज से लगभग सट कर आयुषी खड़ी थी। आयुषी को देख कर नमिता का मूड और खराब हो गया। यह यहां भी चली आई...मगर क्यों? कैसे? मेरा पीछा कर रही थी क्या?
‘हाई! गुडमाॅर्निंग आयुषी! यहां कैसे? आज इडली-सांभर को डिच कर दिया?’ मन ही मन कुढ़ती हुई नमिता ने पूछा। आयुषी रोज़ सुबह के नाश्ते में इडली-सांभर ही खाना पसंद करती है। वह भी इस फंडे के साथ कि जब तक यहां हो तक तक इडली-सांभर का आनंद ले लो हो सकता है यहां से निकलने पर छोटे-कुल्छे पर जि़न्दा रहना पड़े।
‘नहीं, ऐसा तो नहीं! इडली-सांभर खा चुकी हूं....एक्चुअली, वही खा कर निकल रही थी कि तू दिखाई दी...पैदल-पैदल इधर आती हुई...मुझे आश्चर्य हुआ तो तुझे फाॅलो करने लगी....बस्स! मगर सोचती हूं कि एकाध मोमोज़ भी खा लूं फिर आज ही दोपहर बाद चैन्नई के लिए निकलना है....यू नो, तैयारी तो पूरी हो गई है फिर भी फ्रेन्ड्स से मिलते-मिलाते लंच तो छूट ही जाएगा।’ आयुषी ने इत्मीनान से बैठते हुए कहा।
‘यू लकी...’ नमिता के मुंह से निकला और फिर उसने अपने दांतों तले अपनी जीभ दबा ली। उफ! ये क्या कह बैठी वह। अब आयुषी को लगेगा कि नमिता बुरी तरह हताश है। नमिता स्वयं को कोसने लगी।
‘डोंटवरी नमि! आई श्योर दैट नेक्स्ट टाईम इज़ योर! मुझे भी दुख है तुम्हारे लिए....हम दोनों एक साथ चलते तो कितना मज़ा आता, है न!.... बट, मुझे विश्वास है कि अगला सिलेक्शन तुम क्लियर कर लोगी!’ आयुषी ने वही सब कहा जिसका डर था नमिता को। उसका मन बुझ-सा गया।
‘इट्स ओके, आयुषी!’ नमिता ने स्वयं को सम्हालते हुए कहा। तभी बैरा मोमोज़ ले आया। इस रेस्तारां के ए.सी. चैम्बर में सर्विंग सुविधा दी जाती थी। वरना ए.सी. चैम्बर के बाहर सेल्फ-सर्विस थी। निःसंदेह, यह सुविधा सेल्फ-सर्विस की अपेक्षा मंहगी थी और इसका आनन्द ‘डेट’ पर रहने वाले युवा ही ‘अफोर्ड’ करते थे, शेष नहीं। 
       

बैंगलोर शहर मंहगा भी है और सस्ता भी। थोड़ा-सा कष्ट उठा कर बचत कर लो तो सस्ता है वरना मंहगाई के एक से एक आयाम भी आसानी से देखे जा सकते हैं। नमिता, आयुषी और उसके दोस्त अकसर बचत पर ही चलते थे। लेकिन आज नमिता को बचत का विचार नहीं आ रहा था और न आयुषी को। भले ही दोनों के अपने-अपने अलग कारण थे। आयुषी ने स्वर्णिम भविष्य की ओर क़दम उठा दिया था जब कि नमिता तो उस मनःस्थिति में थी कि जिसमें कोई भी युवा हताशा से भर कर किसी भी तरह का ग़लत क़दम उठा सकता है। एक अच्छे कैरियर का उसका सपना कल देर शाम को ही टूटा था जब उसने रिजल्ट-वाॅल पर टंाकी गई सूची में अपना नाम नहीं मिला। वह स्तब्ध रह गई थी। उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके साथ ऐसा भी हो सकता है। उसका साक्षात्कार, उसकी प्रस्तुति...सब कुछ तो ठीक थे...फिर क्या हुआ?
नमिता भाग कर रिसोर्स आॅफीसर के पास पहुंची थी। 

‘सर! मेरा नाम लिस्ट में क्यों नहीं?’ उसने हांफते हुए पूछा था।
‘योर नेम प्लीज़!’ रिसोर्स आॅफीसर ने सपाट चेहरे के साथ पूछा था।
‘नमिता! नमिता सिंह बुन्देला!’
‘मिस बुन्देला.....ओ या ा ा ह! आपका नाम लिस्ट में नहीं है। आपका सिलेक्शन नहीं हुआ है।’ परिणाम-सूची देखते हुए रिसोर्स आॅफीसर ने अपने चेहरे की भांति सपाट स्वर में उत्तर दिया।
‘बट् सर! हाऊ इट इज़ पाॅसिबल....!’
‘एवरीथिंग इज़ पाॅसिबल इफ यू हेवन्ट परफार्म बैटर! ...यस, आप बैटर ट्वेन्टी फाईव में नहीं आ सकीं।’
‘बट....’
‘यू मे गो नाऊ!’ रिसोर्स आॅफीसर ने घूरते हुए कड़े स्वर में कहा।

सब कुछ ख़त्म! नमिता ने रिसोर्स आॅफीसर के कमरे से बाहर आते हुए सोचा था। जैसे ही यह ख़बर घर पहुंचेगी वैसे ही कोहराम मच जाएगा। मां का सपना टूट जाएगा। पापा को सदमा पहुंचेगा। हंा, मंा चाहती थीं कि नमिता अपना कोर्स समाप्त करते ही किसी अच्छी कम्पनी में अच्छे पैकेज़ पर नौकरी पा जाए जिससे तत्काल उसे अच्छा रिश्ता मिल जाए ....और वे अपनी बहन की बेटी के मुक़ाबले उसे बेहतर साबित कर सकें। पिछले साल उनकी बहन की बेटी का नोएडा में एक मल्टीनेशनल कम्पनी में चुनाव हुआ था जिसके कारण उनकी बहन ने बहुत अकड़ दिखाई थी।
पिता भी यही चाहते हैं कि नमिता ने जब बैंगलोर जा कर पढ़ने में इतना पैसा खर्च किया है तो वहां से वह किसी बडे़ पैकेज़ में ही जाए ताकि वे शान से अपनी बेटी की उपलब्धि का प्रचार-प्रसार कर सकें। आखिर समाज-परिवार में इससे उनका रुतबा बढ़ेगा और मल्टीनेशनल कम्पनी में हाई-पैकेज़ में काम करने वाली उनकी बेटी के लिए बेहतर रिश्तों की बाढ़ आ जाएगी। 
                    

नमिता रात भर यही सोचती रही कि अपने मां-पापा से रिजल्ट कैसे छिपाया जाए और सेमेस्टर दोहराने के पीछे कौन-सा कारण बताया जाए। रात भर नींद नहीं आई उसे। डर था कि उसकी बेस्ट फ्रेंड आयुषी ही उसका भेद न खोल दे। उसका चयन हो गया था। वह नहीं भी बताएगी तो उसके पेरेन्ट्स ढिंढोरा पीटने से बाज़ नहीं आएंगे कि ‘बुन्देला साहब की बेटी नमिता रह गई और हमारी आयुषी को पैकेज़ मिल गया।’

‘क्या सोच रही हो? मोमोज़ ठंडा हुआ जा रहा है! खाना नहीं है क्या?’ आयुषी ने नमिता को टोका जो पिछली शाम और रात की बातों को याद कर के परेशान हो उठी थी।
‘सोच रही हूं कि मां-पापा को पता चलेगा तो वे क्या रिएक्ट करेंगे?’
‘हूं! है तो बात सोचने की!....वैल, तू कह देना कि यह कम्पनी तुझे सूट नहीं कर रही थी...सो, तूने अपना परफार्मेंस जानबूझ कर बिगाड़ा...वे कनविन्स हो जाएंगे।’ आयुषी ने एक तार्किक बहाना सुझाया। नमिता को भी यह बहाना ठीक लगा। आखिर कोई तो सफ़ाई देनी ही पड़ेगी उसे, तो यही सही।
‘तू ठीक कहती है....यही कहूंगी मैं!’ नमिता ने आयुषी का बहाना खुले मन से स्वीकार कर लिया।
‘गुड गर्ल! जल्दी खाओ, फिर मेरे साथ चलो, मुझे अभी कई लोगो से मिलना है।’ आयुषी ने कहा।
‘साॅरी आयुषी, मैं तेरे साथ नहीं चलुंगी! मैं अकेली रहना चाहती हूं!’
‘लेकिन.....’
‘आयुषी, जानती है...कल जब मैं जाॅब-फेयर की लम्बी कतार में खड़ी थी तो मुझे ‘स्प्रिंग ब्वायज़’ मूवी याद आ रही थी। जैसे उस मूवी में अनाथ बच्चे अपने-आप को बेहतर साबित करने की कोशिश करते है और हरेक बच्चा सोचता है कि गोद लेने वाले उसके परफार्मेंस से प्रभावित हों और उसे ही गोद ले लें।.....क्या हम भी वैसे ही नहीं हैं? नहीं, शायद हम उन अनाथ बच्चों जैसे नहीं बल्कि उन स्लाव्स.....उन मध्ययुगीन गुलामों जैसे हैं जो परिस्थितिवश गुलाम-बाज़ार में जा पहुंचते थे और इसी उम्मींद में खड़े रहते थे कि हमें एक अच्छा मालिक मिल जाए....जो हमसे भले ही मनचाही मेहनत खरीद ले मगर बदले में हमें इतना पैसा दे दे कि हम अपने परिवार और समाज केा जता सकें कि गुलामी कितनी अच्छी, कितनी सुखद चीज़ है।’ नमिता ने अपने मन की बात आयुषी के सामने उंडेल दी।
‘माई गाॅश! ये सब तुम क्या सोच रही हो?’ चैंक गई आयुषी। वह बोली, ‘हम गुलाम नहीं हैं, हम मर्जी से जाॅब चुन रहे हैं। फिर दोष किसी और को क्यों?’

    

‘हंह! हमारी मर्जी? व्हाट ए फुलिश थॅाट....हम सोच ही कहां रहे हैं....हम तो एक बहाव में बह रहे हैं...कैरियर, पैकेज़, मल्टीनेशनल कम्पनी....यही तो माहौल है....हम इस माहौल के गुलाम है। यू नो आयुषी! शायद तूने कभी पढ़ा हो कि लार्ड मैकाले ने एक शिक्षानीति बनाई थी जिसे देश में ‘बाबू बनाने की नीति’ कहा गया और इस नीति को ले कर लार्ड मैकाले को हमेशा कटघरे में खड़ा किया गया.....आज तो कोई ऐसी नीति नहीं है जो हमें एक ही दिशा में जाने को मजबूर करे, फिर भी हम एक ही दिशा में जा रहे हें न....बिलकुल भेड़ों के समान...’
‘लार्ड मैकाले? ये सब तू क्या बके जा रही है....आर यू ओके?’ आयुषी ने चिन्तित होते हुए पूछा। वह नमिता की बातें सुन कर अब घबराने लगी थी।
‘आई एम फाईन! यस! एब्सोल्यूटली फाईन....बट वी आर स्लाव....इट इस एक ट्रुथ...ब्लैक ट्रुथ!’ नमिता अपनी ही रौ में बोलती चली गई।
‘नो! यू आर नाॅट ओके! तू मेरे साथ चल! मन बहल जाएगा।’ बैरे का बिल चुकाती हुई आयुषी उठ खड़ी हुई।
‘नहीं, मैं तेरे साथ कहीं नहीं जाऊंगी। तू जा और इन्ज्वाय कर! तू तसल्ली रख, मैं ठीक हूं। एकदम ठीक!’ नमिता ने शांत स्वर में आयुषी से कहा। अब वह अपने मन को हल्का पा रही थी। इन्हीं बातों ने उसके मन को दबा रखा था। ये बातें मन से बाहर निकल आईं तो मन पर से बोझ भी हट गया। कम से कम अगले जाॅब-फेयर तक।
‘तू जा, मैं बिलकुल ठीक हूं!’ नमिता ने एक बार फिर आयुषी को आश्वस्त किया।
‘पक्का!’
‘एकदम पक्का! मैं ठीक हूं और ठीक ही रहूंगी....और अगले स्लाव-मार्केट...आई मीन जाॅब-फेयर में खड़ी होने से पहले तुझसे जरूरी टिप्स ले लूंगी। प्राॅमिस!....अब तू जा वरना तुझे देर हो जाएगी!’ नमिता ने उठ कर आयुषी को गले लगाते हुए कहा।
असमंजस में डूबी आयुषी को देर होने का विचार आया और वह हड़बड़ा कर नमिता से विदा ले कर रेस्तरां के बाहर लगभग दौड़ पड़ी। रेस्तरां से बाहर निकलते समय नमिता ‘स्लाव-मार्केट’ के अपने विचार पर मुस्कुरा दी।  उसके इस विचार ने ही तो उसे उन अंधेरों से बाहर निकाल लिया था जिन अंधेरों के कारण कल की असफलता के बाद उसके मन में घातक विचार उठ रहे थे। एक बार तो यह भी विचार आया था कि वह अपने छात्रावास की छत से छलांग लगा दे। मां-पापा को सच बताने से तो यही बेहतर लगा था उसे। फिर दूसरे ही पल विचार आया था कि  सच तो फिर भी मां-पापा के सामने आ ही जाएगा। टाल दिया था उसने आत्महत्या का विचार। ठीक ही रहा नहीं तो न तो सुबह होती, न ही आयुषी मिलती और न उसे इतना अच्छा बहाना सुझाती।
नमिता अपने मन को तैयार करने लगी कि जब उसके पापा उससे पूछेंगे कि आयुषी का चुनाव हुआ मगर तेरा क्यों नहीं? तो यही कहूंगी कि पापा! वह मालिक मुझे पसन्द नहीं आया था!
नमिता एक बार फिर यह सोच कर मुस्कुरा दी कि शायद आज के समय में ऐसे ही मुस्कुराया जा सकता है।  
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शुक्रवार, अगस्त 23, 2013

धूप [लघुकथा] 

- सुभाष नीरव 

एक बेहतरीन लघुकथा ‘साहित्य-शिल्पी’ में प्रकाशित साभार.... http://www.sahityashilpi.com/2010/10/blog-post_27.html

 
चौथी मंज़िल पर स्थित अपने कमरे की खिड़की से उन्होंने बाहर झाँका। कार्यालय के कर्मचारी लंच के समय, सामने चौराहे के बीचोंबीच बने पार्क की हरी-हरी घास पर पसरी सर्दियों की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे। उन्हें उन सबसे ईर्ष्या हो आई। और वह भीतर ही भीतर खिन्नाए, 'कैसी बनी है यह सरकारी इमारत! इस गुनगुनी धूप के लिए तरस जाता हूँ मैं। . . .

उन्हें अपना पिछला दफ़्तर याद हो आया। वह राज्य से केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर आए थे। कितना अच्छा था वह ऑफ़िस-सिंगल स्टोरी! ऑफ़िस के सामने खूबसूरत छोटा-सा लॉन! लंच के समय चपरासी स्वयं लॉन की घास पर कुर्सियाँ डाल देता था- अफ़सरों के लिए। ऑफ़िस के कर्मचारी दूर बने पार्क में बैठकर धूप का मज़ा लेते थे। पर, यहाँ ऑफ़िस ही नहीं, सरकार द्वारा आवंटित फ़्लैट में भी धूप के लिए तरस जाते हैं वह। तीसरी मंज़िल पर मिले फ़्लैट पर किसी भी कोण से धूप दस्तक नहीं देती।

एकाएक उनका मन हुआ कि वह भी सामने वाले पार्क में जाकर धूप का मज़ा ले लें। लेकिन उन्होंने अपने इस विचार को तुरंत झटक दिया। अपने मातहतों के बीच जाकर बैठेंगे। नीचे घास पर! इतना बड़ा अफ़सर और अपने मातहतों के बीच घास पर बैठे!

वह खिड़की से हटकर सोफ़े पर अधलेटा-सा हो गए। और तभी उन्हें लगा, धूप उन्हें अपनी ओर खींच रही है। वह बाहर हो गए हैं। बिल्डिंग से। चौराहे के बीच बने पार्क की ओर बढ़ रहे हैं वह। पार्क में घुसकर बैठने योग्य कोई कोना तलाश करने लगती हैं उनकी आँखें। पूरे पार्क में टुकड़ियों में बँटे लोग। कुछ ताश खेलने में मस्त हैं, कुछ गप्पें हाँक रहे हैं, कुछ मूँगफल्ली चबा रहे हैं। गप्पे हाँकते लोग एकाएक चुप हो जाते हैं। लेटे हुए लोग उठकर बैठ जाते हैं। उनके पार्क में बैठते ही लोग धीमे-धीमे उठकर खिसकने लगते हैं। कुछ ही देर में पूरा पार्क खाली हो जाता है और बचे रहते हैं- वही अकेले।

अचानक उनकी झपकी टूटी। उन्होंने देखा, वह पार्क में नहीं, अपने ऑफ़िस के कमरे में हैं। उन्होंने घड़ी देखी, अभी लंच समाप्त होने में बीस मिनट शेष थे। वह उठे और कमरे से ही नहीं, बिल्डिंग से भी बाहर चले गए। पार्क की ओर उनके कदम खुद-ब-खुद बढ़ने लगे। एक क्षण खड़े-खड़े बैठने के लिए उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने लगे। उन्हें देख लोगों में हल्की-सी भी हलचल नहीं हुई। बस, सब मस्त थे। लोगों ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया था। वह चुपचाप एक कोने में अपना रूमाल बिछाकर बैठ गए। गुनगुनी धूप उनके जिस्म को गरमाने लगी थी। पिछले दो सालों में यह पहला मौका था, सर्दियों की गुनगुनाती धूप में नहाने का।

लंच खत्म होने का अहसास उन्हें लोगों के उठकर चलने पर हुआ। वह भी उठे और लोगों की भीड़ का एक हिस्सा होते हुए अपने ऑफ़िस में पहुँचे। अपने कमरे में पहुँचकर उन्हें वर्षों बाद खोई हुई किसी प्रिय वस्तु के अचानक प्राप्त होने की सुखानुभूति हो रही थी।

सुभाष नीरव

 

गुरुवार, जून 20, 2013

कुंती मेरे मन से जाती ही नहीं ......



17.06.2013 को ‘‘दैनिक जागरण’’ के सप्तरंग, साहित्यिक पुनर्नवा परिशिष्ट में मेरा संस्मरणात्मक रेखाचित्र प्रकाशित हुआ है जिसे मै आप सब से शेयर कर रही हूं ....

आप इसे नीचे दिए लिंक पर भी पढ़ सकते हैं......
 

http://www.facebook.com/photo.php?fbid=530722380319781&set=a.140525269339496.24558.100001460713556&type=1&theater 


http://sharadakshara.blogspot.in/ 


http://epaper.jagran.com/epaper/17-jun-2013-4-Delhi-City-Page-1.html 

शनिवार, जून 01, 2013

हुस्नबानू का आठवां सवाल ....

मित्रो,
हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित एवं वरिष्ठ समीक्षक डॉ.पुष्पपाल सिंह द्वारा संपादित ‘‘हिन्दी की क्लासिक कहानियां...महिला कथाकारः 1965 से अद्यतन’’ में मेरी बहुचर्चित कहानी ‘‘हुस्नबानू का आठवां सवाल’’ भी शामिल है...यह मेरे लिए सुखद है और अपने इस सुख को मैं आप सब से शेयर कर रही हूं.......

 
Friends,
My famous story " Husna Bano Ka Athawan Sawal" is included in the book which is published by ,
Harper Collins and edited by renouned senior critic Dr Pushpal Singh. It is great pleasure for me...... and....I would like to share my pleasure to all of you.....

शनिवार, मई 04, 2013

एक और सजा (कहानी) ...

लोकप्रिय वेब पत्रिका ‘शब्दांकन ’ में मेरी कहानी "एक और सजा ..." प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं भरत तिवारी जी की आभारी हूं।
मेरी यह कहानी आप सभी के लिए ....इसे पूरा पनेे लिए
ृपया ‘शब्दांकन ’ के इस लिंक पर क्लिक करें....  

डॉ. (सुश्री) शरद सिंह की ये कहानी "एक और सजा ..." कत्तई साधारण नहीं है, उन्होंने जिस तरह से गाँव के परिवेश में, आम इंसानों को पात्र बनाकर इस कहानी को लिखा है वो जल्दी पढने को नहीं मिलता
पात्रों के आपसी संवाद बहुत कुछ कहते हैं… सुखबाई का ये सोचना “औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे।“ क्या कुछ नहीं बयां करता ?
या फिर फुग्गन के लिए ये कि “कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी। टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा”
बहरहाल मैं आलोचक नहीं हूँ, ऊपर लिखी बातें एक पाठक के रूप में महसूस करीं सो आपसे साझा कर दीं, और बहुत से क्षण है जो आपको बीच-बीच में सोचने पर मजबूर करते रहेंगे ...
एक बात और कि कहानी का शीर्षक “एक और सजा...” कितना उचित शीर्षक है, ये आप कहानी पूरी पढ़ने के बाद ज़रूर कहेंगे
आपका
भरत
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कहानी - एक और सजा ... डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
www.shabdankan.com/2013/05/sharad-singh.html

 
 
एम. ए.(प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व) स्वर्ण पदक प्राप्त , एम. ए. (मध्यकालीन भारतीय इतिहास), पीएच. डी. (खजुराहो की मूर्तिकला का सौंदर्यात्मक अध्ययन) शिक्षित, सागर (मध्य प्रदेश) में रहने वाली विदुषी डॅा. (सुश्री) शरद सिंह का जन्म पन्ना में हुआ है.

उनकी प्रकाशित कृतियों मे शामिल है -  Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकनउपन्यास - 'पिछले पन्ने की औरतें', कहानी संग्रह- 'बाबा फ़रीद अब नहीं आते', 'तीली-तीली आग', साक्षरता विषयक- दस कहानी संग्रह, मध्य प्रदेश की आदिवासी जनजातियों के जीवन पर दस पुस्तकें, शोध ग्रंथ- खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व, न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियाँ, महामति प्राणनाथ: एक युगांतरकारी व्यक्तित्व। रेडियो नाटक संग्रह- 'आधी दुनिया पूरी धूप'। दो कविता संग्रह तथा अन्य कृतियाँ।

इसके अलावा उन्होंने कहानियों का पंजाबी, बुंदेली, उर्दू, गुजराती, उड़िया एवं मलयालम भाषाओं में अनुवाद भी करा है, साथ ही रेडियो, टेलीविजन एवं यूनीसेफ के लिए विभिन्न विषयों पर धारावाहिक एवं पटकथा लेखन। शैक्षणिक विषयों पर फ़िल्म हेतु पटकथा लेखन एवं फ़िल्म-संपादन।

उनको मिले पुरस्कार एवं सम्मानों में गृह मंत्रालय भारत सरकार का 'राष्ट्रीय गोवंद वल्लभ पंत पुरस्कार' पुस्तक 'न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियों पर', श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति पुरस्कार एवं 'दाजी सम्मान' - साहित्य सेवा हेतु, कस्तुरीदेवी चतुर्वेदी स्मृति लोकभाषा सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण तथा 'लीडिंग लेडी ऑफ मध्यप्रदेश' सम्मान आदि शामिल हैं।
मध्य प्रदेश लेखक संघ एवं जिला पुरातत्व संघ की सदस्य डॅा. (सुश्री) शरद सिंह स्वतंत्र लेखन एवं दलित, शोषित स्त्रियों के पक्ष में कार्य से जुड़ी हैं।

सम्पर्क:
पता: एम- 111, शान्ति विहार, रजाखेड़ी, सागर (म.प्र.)
. : sharadsingh1963@yahoo.co.in
मो. : 094 2519 2542

एक और सजा... - डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

 
 
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     ये तुमने अच्छा किया बड़ी ठकुराइन कि फुग्गन को खूंटे से बांध दिया...अब कम से कम छुट्टे सांड़-सा तो नहीं घूमेगा।’ नववधू के रूप में जगतरानी का गृहप्रवेश कराते समय एक ठसकेदार औरत ने जगतरानी की सास से ये बात कही थी।
    ‘छुट्टे सांड़-सा’ जगतरानी चौंकी थी। वैसे उसे कुछ-कुछ भनक तो अपने मायके में विवाह के पूर्व ही लग गई थी कि उसका होने वाला पति फुग्गन सिंह दिलफेंक है।
    ‘अरे, ठाकुरों का बेटा दो-चार जगह मुंह न मारे तो वो ठाकुर का बेटा कैसे हुआ?’ फुग्गन का रिश्ता ले कर आई चाची जी ने अपनी हथेली पर खैनी मलते हुए कहा था,‘खासा बांका-सजीला है। फिलिम का हीरो-सा दिखता है। हमारी जगत और फुग्गन की जोड़ी राम-सीता जैसी खूब जमेगी।
    उस समय किसी को भी इस बात का अंदेशा नहीं था कि फुग्गन राम निकलेगा या रावण।
    विवाह धूम-धाम से हुआ। अपनी हैसियत के अनुसार भरपूर दान-दहेज दिया जगतरानी के पिता ने। विवाह की धूम ऐसी कि चार गाँव तक जगतरानी के विवाह की चर्चा गूंजती रही। किन्तु जगतरानी को ससुराल में क़दम रखते ही पता चल गया था कि उसका पति फुग्गन अव्वल दर्जे का लम्पट इंसान है। मगर विवाह हो जाने के बाद इस जानकारी का कोई महत्व नहीं था। फुग्गन जैसा भी था, उसका पति बन चुका था और जीवन भर उसके साथ निर्वाह करना ही जगतरानी की नियति थी।
    ‘तू तो बड़ी ठंडी-सी है...ज़रा लटके-झटके तो दिखा...चल ये ले...गिलास में डाल कर मुझे पिला।’ फुग्गन ने सुहागरात को ही भविष्य की सारी रूपरेखा दिखा दी थी जगतरानी को।
    ‘मैं ठकुराइन हूं...ये सब करना है तो कहीं और जाओ!’ भड़क कर कहा था जगतरानी ने। वह भी दबने को तैयार नहीं हुई। यद्यपि उसे लगा था कि उसका पति इस पलट उत्तर पर उसे मारेगा-पीटेगा। लेकिन हुआ इसके उलट। फुग्गन डर गया। उसे लगा कि यदि जगतरानी ने उसकी बात सबको बता दी तो अम्मा और पिताजी तो डांटेंगे ही, बड़े दाऊ तो शायद गोली से ही उड़ा दें।
    ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था....आप तो बुरा मान गईं।’ ‘तुम’ से ‘आप’ पर आते हुए फुग्गन ने जगतरानी के आगे हथियार डाल दिए। लेकिन उसी रात यह भी सिद्ध हो गया कि फुग्गन और जगतरानी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहेगा।
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     समय व्यतीत होने के साथ जगतरानी दो बेटों की माँ बनी लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि उसने दाम्पत्य सुख पाया हो। एक कत्र्तव्य की भांति वह संबंध को निभाती रही और फुगग्न भी। अन्तर था तो बस इतना कि जगतरानी के पास फुग्गन का और कोई विकल्प नहीं था जबकि फुग्गन के पास जगतरानी के विकल्प ही विकल्प थे। पैसेवाले पुरुषों के लिए विकल्प के सभी रास्ते खुले रहते हैं। फुग्गन इस सच्चाई को जानता था इसीलिए उसे जगतरानी को घर और कुल-खानदान की शोभा बनाए रखने में कोई कठिनाई महसूस नहीं होती थी। उसे जिस तरह की शारीरिक भूख थी, उसके लिए पैसा फेंक-तमाशा देख वाला मंत्र उसे आता था। विवाह के पहले से ही वह तो इस रास्ते पर चल रहा था। विवाह के बाद तो और भी कोई कठिनाई नहीं थी क्योंकि अम्मा, पिताजी और बड़े दाऊ को ठाकुर कुल की बहू और खानदान का नाम आगे बढ़ाने वाले पोते मिल गए थे। ऊपर से देखने में फुग्गन सिंह का परिवार सबसे सुखी परिवार था। धन, धान्य, संतान आदि सभी कुछ तो था।
    भीतर की सच्चाई कुछ और थी। फुग्गन सिंह के परिवार में सबसे दुखी और असंतुष्ट कोई थी तो जगतरानी। कहने को घर की छोटी मालकिन किन्तु दो बेटों के पैदा होने के बाद से फुग्गन सिंह ने उसे हाथ लगाना भी छोड़ दिया था। बाहर से भर पेट खा कर आने वाले को घर का भोजन भला कहां रुचता?
    जगतरानी सारे व्रत, उपवास रखती। वट-सावित्री और करवाचैथ का निर्जला व्रत भी रखती।
    ‘देखना अगले सात जनम भी फुग्गन ही तुझे पति के रूप में मिलेगा!’ जगतरानी की सास गद्गद् हो कर कहती।
    सात जनम ! हुंह! जगतरानी का वश चलता तो उल्टे सात फेरे लेकर फुग्गन के वैवाहिक बंधन से आजाद हो जाती। मगर सब कुछ सोचने से थोड़े ही मिल जाता है? वह जानती थी कि अगले सात जन्म में फुग्गन मिले या न मिले किन्तु इस जन्म में तो उसी के साथ निभाना पड़ेगा।
    फुग्गन सिंह के किस्से जगतरानी के कानों तक जा ही पहुंचते। कल तक फलां से उसके संबंध बने हुए थे और आजकल फलां से संबंध चल रहे हैं। जगतरानी को पता रहता था कि फुग्गन सिंह देर रात तक कहां-कहां मुंह मारते रहते हैं। फिर भी वह अनभिज्ञ होने का नाटक करती। मुंहलगी नौकरानी और अधिक कृपा पाने की लालच में फुग्गन की जासूसी करती और जगतरानी को बताती रहती। जगतरानी यूं तो ध्यान से सुनती किन्तु प्रत्यक्षतः यही जताती कि उसे ऐसी किसी जानकारी में तनिक भी रुचि नहीं है। नौकारानी भी जानती थी कि मालकिन को रुचि है लेकिन अरुचि होने का दिखावा करती है। यह सूचना का एक ऐसा आदान-प्रदान था जो पूरी उत्सुकता के साथ लिया-दिया जाता किन्तु निस्पृह होने का नाटक करते हुए।
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    सब कुछ हमेशा की तरह चल रहा था कि उस दिन नौकरानी बदहवास-सी भागी आई और हांफती हुई बोली, ‘छोटी ठकुराइन! ग़ज़ब हो गओ! .....रामधई ग़ज़ब हो गओ, छोटी ठकुराइन!’
    ‘क्या हुआ कुसुमा?’ जगतरानी चैंकी थी। इससे पहले उसने अपनी मुंहलगी नौकरानी कुसुमा को इस तरह बदहवास नहीं देखा था। जगतरानी का मन घबरा उठा।
    ‘ठीक नई भओ...छोटी ठकुराइन...ठीक नई भओ....’ कुसुमा हिचकियां लेने लगी। उसका गला रुंधने लगा। वह नाटक कर रही थी या सचमुच रो पड़ी थी, कहना कठिन था।
    ‘कुछ बोल भी, क्या हुआ?’ जगतरानी खीझ उठी थी। उसी समय उसकी सास दहाड़े मार कर रोती हुई उसके कमरे में आई।
    ‘तेरे तो भाग फूट गए, बिन्ना!’ सास ने प्रलाप करते हुए कहा। तब तक घर की और औरतें भी जगतरानी के कमरे में इकट्ठी होने लगीं। जगतरानी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है? क्या बड़े ठाकुर लुढ़क गए? नहीं, ऐसा होता तो अम्मा जी मेरे भाग फूटने की बात क्यों कहतीं?
    ‘हमाए मोड़ा को जीने खाओ है हम ऊकी जान ले लेबी!’ अम्मा अपने माथे पर हाथ मारती हुई फर्श पर बैठ गईं। तब जगतरानी को समझ में आया कि बड़े ठाकुर को नहीं बल्कि उसके पति फुग्गन को कुछ हो गया है।
    ‘क्या हुआ उन्हें?....अम्मा! क्या हुआ उन्हें...?’ जगतरानी हड़बड़ा कर पूछने लगी। उसका गला सूख गया। घबराहट के मारे माथे पर पसीना चुहचुहा गया। उसका रक्तचाप गड़बड़ाने लगा।
    ‘तुमाओ सुहाग नहीं रहो बिन्ना!’ अम्मा विलाप करती हुई बोलीं।
    यह सुन कर जगतरानी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या ऐसा भी हो सकता है? अभी पांच-छः घंटे पहले तक तो फुग्गन सिंह घर पर थे और अब...अब इस दुनिया में नहीं हैं? ये कैसे हो सकता है?
    यह एक ऐसा सच था जिसे स्वीकार कर पाने में जगतरानी को कई घंटे लगे।
    पता चला कि गांव के ही किसी आदमी ने उसे कुल्हाड़ी मार दी जिससे घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। फुग्गन को मारने के बाद वह आदमी खुद ही थाने में पहुंचा और उसने बताया कि वह फुग्गन सिंह को घायल कर के आ रहा है। शायद उसे तब तक पता नहीं था कि उसके एक वार ने फुग्गन सिंह का जीवन समाप्त कर दिया है। उस आदमी ने फुग्गन को क्यों मारा? जगतरानी जानना चाहती थी। उसे यही बताया गया कि जिस आदमी ने फुग्गन सिंह को मारा है उसका नाम कीरत है। कीरत ने फुग्गन से कर्ज लिया था। जब फुग्गन ने कर्ज की रकम वापस मांगी तो कीरत देने से मुकर गया। फुग्गन ने पैसे वसूल लेने की धमकी दी तो तैश में आ कर कीरत ने फुग्गन के सिर पर कुल्हाड़ी दे मारी।
    यही पुलिस डायरी में लिखा गया। यही कीरत ने स्वीकार किया और आजन्म कारावास की सज़ा का भागीदार बना। लेकिन यह कहानी जगतरानी को हजम नहीं हुई। उसे लगता था कि मामला सिर्फ़ पैसे का नहीं हो सकता है। उसका मन कहता था कि इस पूरे मामले में किसी औरत की उपस्थिति अवश्य होगी। वह जानती थी कि फुग्गन सिंह सूदखोर से कहीं अधिक औरतखोर था।
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    ‘कुसुमा!’
    ‘जी छोटी ठकुराइन!’
    ‘तुम्हारे छोटे ठाकुर क्यों मारे गए?’ उसने एक दिन कुसुमा से पूछ ही लिया। वह जानती थी कि कुसुमा को सच पता होगा।
    ‘वो रकम की लेन-देन....’
    ‘सच बताओ कुसुमा...ये झूठा किस्सा मुझे नहीं सुनना है।’ जगतरानी ने स्पष्ट शब्दों में कहा।
    ‘....’
    ‘बोलो!’
    ‘ठकुराइन अगर किसी को पता चल गया कि मैंने आपको बताया तो....’
    ‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ जगतरानी की भृकुटी तन गई। कल तक जो कुसुमा उसके पति के किस्से उसे जानबूझ कर सुनाया करती थी, वही कुसुमा आज डरने का नाटक कर रही है? यानी सचमुच मामला कुछ और है।
    ‘देखो कुसुमा, सच्चाई तो मुझे पता चल ही जाएगी लेकिन तुम मुझे बताओगी तो मैं समझ जाऊंगी कि तुम आज भी मेरी वफ़ादार हो।’ जगतरानी ने जानबूझ कर रूखे ढंग से कहा।
    ‘आप नाराज़ मत हो छोटी ठकुराइन! मैं बताती हूं।’ कुसुमा ने वह सारी घटना कह सुनाई जो उसने सुखबाई से खोद-खोद कर जान ली थी।
    स्तब्ध रह गई जगतरानी। कोई पति अपनी पत्नी की इज्जत के लिए इस हद तक जा सकता है? वह भी एक ग़रीब पति? कहावत तो ये है कि ग़रीब की लुगाई, सबकी भौजाई.....कीरत ने अपनी पत्नी के लिए एक रसूखवाले की जान ले ली! क्या सचमुच यही हुआ है?
    जगतरानी को फुग्गन सिंह के रूप में जो पति मिला था उसकी तुलना में कीरत का चरित्र जगतरानी को कपोल कल्पित किस्से जैसा लगा। वह कीरत से मिलने को, उसे देखने को उत्सुक हो उठी। भले ही उसे पता था कि कीरत से मिल पाना किसी भी तरह संभव नहीं है। एक तो वह आजन्म कारावास भुगत रहा है और दूसरा वह उसके पति का हत्यारा है।
    सुखबाई कैसी दिखती है? बहुत सुन्दर होगी। तभी तो फुग्गन सिंह ने उसकी अस्मत पर डाका डालने की कोशिश की और उसका पति भी उस पर जान छिड़कता होगा। तभी तो वह फुग्गन की बदनीयती को सहन नहीं कर सका।
    कैसे मिले वह सुखबाई से? जगतरानी सुखबाई की एक झलक पाने को उत्सुक हो उठी। कुसुमा से कहे? मगर वह क्या सोचेगी? कुसुमा को कहीं यह न लगे कि मैं अपने पति के मरने पर खुश हूं। नहीं मैं इस मामले में कुसुमा की मदद नहीं ले सकती हूं। ईश्वर ने चाहा तो एक न एक दिन सुखबाई और कीरत दोनों को देख लूंगी। जगतरानी ने अपने आपको समझाया और सब कुछ समय पर छोड़ दिया।
    दूसरी ओर सुखबाई अपने ही दुख में डूबती-उतराती जीवन की धारा में बही जा रही थी।
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    पल भर में समय किस तरह मुंह फेरता है, यह सुखबाई से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? लगने को तो यूं लगता है मानो कल की ही बात हो, मगर गिनती करने बैठो तो पूरे बारह बरस गुज़र चुके हैं तब से अब तक। कीरत को लगता है कि सुखबाई सब कुछ भूल गई है। वह क्या जाने की कि सुखबाई को उस मनहूस घड़ी का एक-एक क्षण अच्छी तरह से याद है । वह तो बारह बरस की एक-एक घड़ी को भी नहीं भूली है । कैसे हुलस के सोचा करती थी वो कि जिस दिन कीरत घर लौट कर आएगा उस दिन वो देवी मैया के मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाएगी। कीरत के मन का खाना पकाएगी और अपने हाथों से उसे खिलाएगी। कीरत से विछोह के पूरे बारह बरस वह बारह पलों में मिटा देगी। वे दिन एक बार फिर लौट आएंगे जो मूरत, सूरत और दोनों बेटियों के पैदा होने के समय से भी पहले थे।
    सुखबाई को पहला झटका उस दिन लगा था, जिस दिन कीरत पहली बार जेल से घर आया था । दद्दा के क्रिया-कर्म के लिए कीरत को पेरोल पर छोड़ गया था।
    ‘दद्दा, कहाँ चले गए तुम! हाय रे !’ कीरत का यह बिलखना सुन कर सुखबाई को याद आया था कि उसने भी इसी तरह विलापा था, मन ही मन सही कि ‘हाय दद्दा! तुम उस दिन यहाँ क्यों नहीं थे!’
    काश ! उस दिन दद्दा रिश्तेदारी में दूसरे गांव न गए होते तो शायद वो अनहोनी होने से बच गई रहती। सुखबाई तो दद्दा की अनुपस्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पाई थी लेकिन खूब कोसा था दद्दा ने, सुखबाई को। सुखबाई की ननद ने तो सुखबाई को ‘डायन’ तक की उपाधि दे डाली थी, जो उसके भाई को खा गई थी। सबने अपने-अपने ढंग से अपने मन की भड़ास निकाली थी लेकिन उस समय किसी ने भी ये नहीं सोचा कि अब सुखबाई का जीवन कैसे कटेगा? एक तो चार बच्चों की जिम्मेदारी और उस पर भरी जवानी। यह जवानी ही तो उसकी दुश्मन बन गई थी।
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Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन   जिस दिन फुग्गन ने उसे पहली बार बिना घूंघट के देखा था, बस तभी से उसकी लार टपकने लगी थी। औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे। सुखबाई ने भी पहले-पहल अनदेखा ही किया। कीरत ने उसे बताया था कि फुग्गन रसूख वाला व्यक्ति है और जब-तब कीरत की मदद कर दिया करता है, पैसों के मामले में भी और धाक जमाने के मामले में भी। सुखबाई नहीं चाहती थी कि उसकी वज़ह से कीरत और फुग्गन के बीच कोई खाई पड़े। सुखबाई की इस सोच को स्वीकृति समझ कर फुग्गन ने अपनी क्रियाशीलता बढ़ा दी। वह हर दूसरे-तीसरे दिन घर आने लगा । कभी एक गिलास पानी का बहाना तो कभी चाय का बहाना, तो कभी नन्हीं भारती को उसकी गोद से अपनी गोद में लेने का बहाना, बस, वह सुखबाई को छूने का कोई न कोई बहाना खोज निकालता। सुखबाई को बड़ी घबराहट होती। अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसी-माज़ाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी।
    टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
    ‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
    ‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
Shabdankan kahani story Sushri Sharad Singh  कहानी शब्दांकन     ‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
    ‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियाँ काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
    कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है।
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इसे पूरा पनेे लिए ृपया ‘शब्दांकन ’ के इस लिंक पर क्लिक करें....  


 

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

लव एट फोर्टी प्लस



‘हंस’ पत्रिका के अप्रैल 2013 अंक में  मेरी  कहानी ‘लव एट फोर्टी प्लस’ प्रकाशित हुई है...


- डॉ. शरद सिंह



‘‘.........राजीव चला गया. सूनेपन ने मुझे घेर लिया. या यूं कहूं कि बुरी तरह जकड़ लिया. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं? कैसे अपना मन बहलाऊं? राजीव के जाने से बहुत पहले....बल्कि शादी के बाद राजीव के साथ गृहस्थी संवारने के दौर में ही मैंने आईने में अपने शरीर को देखना-परखना छोड़ दिया था। इसकी आवश्यकता मुझे अनुभव ही नहीं हुई. मेरे पति को मेरी देह से कोई शिक़ायत नहीं थी फिर भला मैं उसे क्यों देखती. ...’’
(यदि इनलार्ज करके पढ़ने में असुविधा हो तो इसे डाउनलोड कर के आसानी से पढ़ा जा सकता है। )






सोमवार, अप्रैल 01, 2013

सम्मान दांव पर लगाती‘पिछले पन्ने की औरतें’

पुस्तक समीक्षा - पिछले पन्ने की औरतें .... साभार ‘रचनाकार’ वेब पत्रिका

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स्थायित्व हेतु सम्मान दांव पर लगाती‘पिछले पन्ने की औरतें’
- डॉ.विजय शिंदे

http://www.rachanakar.org/2013/03/blog-post_2280.html#ixzz2NP08lGGQ

 
विविधताओं से संपन्न देश-भारत। विविध भाषा, धर्म, संस्कृति,आचार, विचार, परंपराएं....और बहुत कुछ। वैविधपूर्ण। वैसे ही विभिन्न आर्थिक स्थितियों के चलते असमानताएं और इन असमानताओं के चलते अपराध जगत् का वैविध्यपूर्ण होना। सीधे-सीधे अपराध, जो कानूनी तौर पर अपराध ठहराए जा सकते हैं और ऐसे कई निषिद्ध कार्य है जो सांस्कृतिक विविधता के साथ जुड़कर अपराध लगते नहीं परंतु मानवियता के नाते विचार करें तो घोरतम् अपराध लगेंगे। देश के भीतर कितनी जातियां हैं जिन्होंने आजादी का रस अभी तक चखा नहीं और भारतीय होने के नाते भारतीयत्व क्या है जाना नहीं। वह आज भी अपनी आदिम अवस्था में पौराणिक रीति-रिवाज एवं परंपराओं के साथ चिपके हैं; जहां से वे निकलना नहीं चाहते, सामाजिक स्थितियां उन्हें निकलने नहीं देती। जो परिवर्तन की धारा में कुदते हैं वे स्पर्धात्मक युग में पिछड़ जाते हैं और अपाहिज होकर परंपरागत निषिद्ध कार्य करने के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे ही कानूनी तौर पर निषिद्ध कार्य करनेवाले परंतु जातिगत परंपरा के नाते सही परंपरा का निर्वाह करनेवाले‘बेडिया’जाति की स्थितियां है। मध्यप्रदेश में जन्मी शरद सिंह हिंदी के आधुनिक कथा साहित्य का सितारा हैं। उनके लेखन में जबरदस्त क्षमता है और अनछुए विषयों को उजागर करने की तड़प है।‘पिछले पन्ने की औरतें’उप न्यास हिंदी साहित्य के भविष्य को नया आयाम देगा। ऐसा नहीं ऐसे उपन्यास पहले लिखे नहीं गए; लिखे गए परंतु उनमें एक कथात्मकता रहा करती थी जो कल्पना का आधार लेकर पाठकों को मनोरंजनात्मक तुष्टि दे सकती थी। शरद सिंह द्वारा लिखित‘पिछले पन्ने की औरतें’चिंतनात्मक-समीक्षात्मक-समाजशास्त्रीय-खोजपरख उपन्यास है जिसे पढ़कर पाठकों का मुंह खुला का खुला रह जाता है। आज भी भारत में ऐसी जनजातियां हैं जो अस्तित्व के लिए झगड़ रही है, जिनकी वास्तविकता प्रगति की ओर ताकतवर कदम उठा रहे भारत देश के चेहरे पर काला धब्बा लगा देती है। लगभग तीन दर्जन बेड़नियों का चित्रण एवं उल्लेख करते-करते शरद सिंह ने बेड़नियों के सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों पर प्रकाश डाला और अपने देश में औरतों की दशा (औकात!) को भी उजागर किया है। रामायण-महाभारत तथा ऐत्यासिक स्त्री पात्रों का समीक्षात्मक मूल्यांकन भी किया है और कहा उन्हें भी बेड़नियों जैसा इस्तमाल कर फेंक दिया गया। बेड़नियों के जीवन पर प्रकाश डालते-डालते लेखिका कहती है, औरत बरसात के पानी जैसी है, उसे न जमीन चुनने का अधिकार होता है न अपनी प्यास बुझाने का।(पृ.100) औरत बस पान की तरह है, जिसे जब चाहा मुंह में डालकर चबाया,स्वाद लिया और जब चाहा थूक दिया।(पृ.110) एक आम स्त्री की दशा बाडे में बांधकर रखी जानेवाली गाय के समान है होती जिसे यदि किसी दिन घूमने-फिरने के लिए बाडे से बाहर जाने दिया जाए तो कोई भी व्यक्ति सहजता से उसके गले में अपनी रस्सी डालकर घर ले जा सकता है। ....वह अपनी अनिच्छा के मामूली प्रदर्शन के बाद रस्सी की दिशा में खिंचती चली जाती है, क्योंकि उसे रस्सी का सबल एवं प्रबल प्रतिरोध सीखने का कभी अवसर ही नहीं दिया गया।(पृ.165) शरद जी की यह टिप्पणियां झकझोर देती हैं, सोचने को मजबूर कर देती हैं कि न केवल भारत संपूर्ण दुनिया औरत एवं पुरुष के होने से परिपूर्ण बनी है तो फिर औरतों को पिछले पन्नों में क्यों दबाया जाता है? उनकी अस्मिता-अधिकारों क्यों नकारा जाता है? और औरतें भी यह सबकुछ क्यों सहन करती है? वह मुक-बधिर-अंधी-अपाहिज है? उन्हें हाशिए पर छोडे जाने की स्थितियों का पता नहीं?
महादेवी वर्मा ने औरतों के दुखों को बदरी मानकर वर्णित किया। खैर औरतों के दुःखों को मिटाने के लिए ईश्वर तो अवतरित होंगे नहीं? महाभारत में कृष्ण का द्रौपदी की लाज बचाने के लिए अवतरित होना चाहे काल्पनिक हो या वास्तविक, वर्तमान में कोई कृष्ण अवतरित नहीं होगा। हां कोई पुरुष अवतरित हो भी गया तो दलाली जरुर करेगा....! महादेवी ने लिखा तो था-

"मैं निरभरी दुःख की बदली !
× × × ×
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना।
परिचय इतना इतिहास यहीं,
उमडी कल थी मिट आज चली !"

"ठीक है बदली,....बदली है और उसका विस्तृत नभ में कोई कायम कोना रहेगा भी नहीं। उसका मिटना स्वीकारा जाएगा परंतु बदली को औरत से जोडकर उसका अधिकार छिनना और उसे मिटने के लिए मजबूर करना अन्याकारक है। खुद औरत भी ध्यान रखें, अब अफ़सोस करने का वक्त गुजर चुका, अस्मिता-अस्तित्व और अधिकार की लडाई खुद लडनी पडेगी। अफ़सोस से निरंतर शोषण होता रहेगा। औरतें सामाजिक संस्थाओं में उपस्थित तो हैं परंतु उनको संवेदनात्मक अनुभूति नहीं। उन्हें समाज के पिछले पन्नों में फेंका जाता है। ऐसे ही पिछले पन्नों में दबी औरतों के वास्तविक पिडाओं का रेखांकन शरद सिंह ने किया है।


1.वर्तमान स्थिति -
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में शरद सिंह ने मध्यप्रदेश में स्थित पथरिया, लिधोरा, लुहारी हबला, फतेहपुर, बिजावर, देवेंद्रनगर.... जैसे कुछ गांवों का जिक्र किया है जहां बेडिया समाज रहता है। इन परिवारों के आय का मूल स्रोत उस परिवार की औरत होती है जिसे बाकायदा बेड़नी बनाया जाता है, उस एक बेड़नी पर दस-बीस जनों का परिवार निर्भर रहता है। हजार भर की आबादी वाले बेडिया गांव में लगभग पचास के आसपास बेड़नियां रहती है; जो नृत्य और शरीर विक्रय कर अपने सारे कुनबे-परिवार का पालनपोषण करती है। इनकी सामाजिक स्थिति का वर्णन करते लेखिका संपूर्ण नारी जाति की स्थिति पर सावधानी से प्रकाश डालती है। सावधानी से इसीलिए कि यह समाज औरत-पुरुष से बना है, वह एक दूसरे के दुश्मन नहीं, दोस्त है। एक नाजुक रिश्ता इन दोनों में है जो एक दूसरे के अस्तित्व के लिए पुरक है लेखिका लिखती है,"मैं पुरुषों की विरोधी नहीं हूं, किंतु उस विचारधारा की विरोधी हूं जिसके अंतर्गत स्त्री को मात्र उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है।"(पृ.7) पुरूष भीड़ में भी और सुनसान जगह पर भी स्त्री को दबोचकर अत्याचार करने की मानसिकता रखता है। कोई चिकोटी काटता है तो कोई पुरुषांगों के भद्दे स्पर्श से अपमानित करता है या कोई उसे प्रत्यक्ष भोगने की स्थिति में नहीं पाता तो शब्दों और आंखों से भोगना शुरू करता है। "क्या स्त्री-पुरुष के संबंधों का अंतिम सत्य संभोग ही होता है? लेकिन अधिकांश भारतीय स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को समान रूप से भोगते ही कहां है? पुरुष भोगता है और स्त्री भोग्या बनी रहती है।"( पृ.12) लेखिका द्वारा इसे लिखना भारतीय औरतों की वर्तमान स्थिति को बेपरदा करता है।
बेडिया समाज में कोई स्त्री जानबूझकर शरीर विक्रय नहीं करती, न ही रखैल बनना चाहती है और न ही नृत्य करना चाहती है। इनकी पिछडी स्थिति, अशिक्षा, आर्थिक विपन्नता एवं परंपराएं इन्हें इस ओर लेकर जाती है जो सहजता से होता है। परंपरा से ऐसे ही हो रहा है इसीलिए इसमें उन्हें कुछ गलत भी नहीं लगता। जिन ठाकुरों, जमिनदारों, पैसे वालों एवं ताकतवरों.... की वे रखैल होती हैं वह बेड़नियों को औरत का दर्जा तो देता है पर दूसरी पत्नी का नहीं, चाहे वह औरत कितनी भी ईमानदारी से उससे जुडी हो। उसे हमेशा अपमानित कर पिछले पन्नों में दबाने के लिए तत्पर होता है। अपनी जांघों की ओर इशार कर बडे बेशर्मी से, भद्देपन से कहेगा कि‘हम और हमारा ये तो तुम्हें ही ठकुराइन मानते हैं।(पृ.28) देश की आजादी को सालों गुजर चुके परंतु बेड़नियों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया उनका नृत्य और रखैल बनाए जाना धनिकों के लिए गौरव की बात होती है। गांव की कोठियां, मत्रियों के बंगलों पर नाच के लिए बेड़नियों को आमंत्रित किया जाता है। वहीं पर उनका चुनाव शरीर भोग के लिए होता है। वेश्या, गणिका, नगरवधु, बेड़नी, राजनर्तकी, देवदासी, मुरली, लोकनाट्य तमाशों में काम करती औरतें, लावनी अदाकार, बारियों में नृत्य करती औरतें, बार बालाएं, आयटम गर्ल्स....और रंगिन चष्में चढाकर लाईट,कट एवं ओके की चकाचौंध में फंसी औरतों को चटखारे के साथ चर्चाओं में लाया जाता है और मेजों पर, पलंगों पर सजाया जाता है। हाथी-घोडों के समान बेड़नियों को जानवर मानकर पाला जाना वर्तमान वास्तव है। समाज के भीतर मौजुद खूबसूरत स्त्री के के चेहरे की मुस्कराहट लपकने-लिलने के लिए पुरुषों का झूंड़ तैयार रहता है यह अच्छी स्थिति नहीं है। आज जो औरतें लीड कर रही है वह अपवाद स्वरूप है, उन्हें सलाम तो करना ही पडेगा। परंतु बहुसंख्य औरतों का मूलाधार पुरुष है जो उन्हें भीख स्वरूप नेतृत्व देता है जो अच्छा नहीं माना जाएगा। "समाज में स्त्री की स्थिति अब पहले से अधिक जटिल है। एक ओर स्त्री को अपेक्षित रखा जाता है तो दूसरी ओर उपेक्षित बनाकर रखा जाता है। सत्ता, समाज, संपत्ति पर उसका अधिकार है भी, और नहीं भी। न्याय की पोथियों में ये तीनों अधिकार स्त्री के नाम लिखे गए हैं, लेकिन यथार्थ पोथियों के बाहर पाया जाता है।.... न्याय दिलाने वाले से लेकर उसे एक ग्लास पानी पिलाने वाले भी दया और सहानुभूति के नाम पर लार टपकाने से नहीं चूकते है।"(पृ.261)
2.सरकारी भूमिका -
भारत एक आजाद देश है और यहां लोगों से चुनी सरकार काम करती है। अर्थात् सरकार द्वारा लोकहित में कार्य किया जाना अपेक्षित है परंतु ऐसा होता है या नहीं? पूछा जाए तो उत्तर स्वरूप कुछ आवाजें‘हां’में तो कुछ ‘ना’में उठेगी और कुछ ‘चुप्पी’साधे बैठेगी।‘हां’वाली सरकार समर्थक, ‘ना’वाली सरकार विरोधक और‘चुप्पी’वाली सरकार को न जानने वाली, आजादी से कोसों दूर वाली मानी जाएगी। बेडिया समाज‘चुप्पी’का हकदार है पर धीरे-धीरे उनमें भी सरकार के विरोध में नाराजगी का स्वर उठ रहा है। उसका कारण है उनके घरों में पहुंचा टी.वी. और टी.वी. के विभिन्न चैनल्स, खबरें। थोडे-बहुत चेतनाएं पा रहे हैं वे सालों-साल की अकर्मण्यता से उठने का नाम नहीं ले रहे हैं। उन्हें लगता है सरकार हमारे घरों में नोटों की गड्डियां फिकवाएं या अनाज की बोरियां डाले। खुद योजनाओं का लाभ लेकर हाथ-पैर चलाने की मानसिकता नहीं। इसमें जितना दोष बेडियों का उतना सरकार का भी है क्योंकि जितनी गंभीरता से इनकी स्थितियों पर सोचना चाहिए उतना सोचा नहीं जाता, कारण हजार-पांच सौ के मतदाताओं से उनके लिए कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता बेडिया समाज को पिछडी अनुसूची में समाविष्ट किया गया परंतु इससे भी उनकी सामाजिक स्थितियों में अंतर नहीं आया। लेखिका लिखती है,"शायद यह अंतर बहुत बारीक था, अंतर के पाए जाने का भ्रम था जो किसी छलावे की तरह कभी आभासित होता तो कभी ऐसे अदृश्य हो जाता जैसे हो ही नहीं, क्योंकि मैंने पाया कि बेड़नियां तो अभी भी नाच रही है – वर्तमान सांमतों के सामने ! वे अभी भी परोस रही है अपनी देह को किसी‘बुके की मेज’पर व्यंजन की तरह।(पृ.64)" सरकार उदासिन, सरकारी योजनाओं का लाभ इन तक नहीं पहुंचना, इनके नाम से अलॉट की गई राशियां एवं सहुलतें बीच में ही गुम हो जाती है, अतः आर्थिक तंगी और विपन्नता से परेशान बेड़नियां जो परंपरा से दायित्व निभा रही है आगे आती है और परिवार का पोषणकर्ता बनती है; कुलमिलाकर बेडिया समाज की औरतें स्थायित्व पाने के लिए अपने स्त्रीत्व के सम्मान एवं अधिकार को दांव पर लगाती है और परिवार एवं साथियों के आर्थिक सुरक्षा का जिम्मा उठाती है। खूबसूरत और राई नृत्य में निपुण कुछ बेड़नियां शासकीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रतिनिधित्व के नाते रूस, अमरिका, जापान आदि देशों की यात्रा भी कर चुकी है परंतु वापसी पर वहीं विपन्नता एवं संघर्ष जारी रहता है। इनके गांवों में स्कूलों की स्थिति दयनीय है, न इमारत, न अध्यापक। बच्चे स्कूल कैसे जाएंगे, जाए तो पढाए कौन, बैठे कहां? हजारों सवाल। और अंतिम सवाल पढ़-लिखकर स्पर्धात्मक युग में दौडे कब तक? ऐसी स्थिति में बच्चों को स्कूलों में बिना भेजे पुश्तैनी धंधों से जोडा जाए तो किसे दोष दें?
सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाएं सरकार के साथ मिल कर कई योजनाओं को गावों में चलाती हैं जिसके चलते बेडियों की स्थिति बदले। परंतु बेडियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में संदेह-असंमजस है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं। बीच में खाई है, जुडाव नहीं।"यह दरार इस बात की है कि न जाने कितने लोगों ने, समाजसेवी और उद्धारकर्ता के रूप में इन बेडियों से छल किया है.... न जाने कितने लोग इनकी लड़कियों को बहला-फुसलाकर दूसरे शहरों में ले जाकर बेच देते हैं।"(पृ.218) इसीलिए शासन की ओर से बेडियों के उद्धार के लिए चलाई जा रही‘जाबाली योजना’जैसी तमाम योजनाएं विफल हो गई। सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं के लिए बेड़नियों के मुंह से‘वे अपना बदन बना रही है’जैसी अविस्वासभरी’टिप्पणी इन्हीं संदेहास्पद स्थिति के कारण निकलती है।

3.आत्मविश्वास की कमी, परंपरा एवं सामाजिक दबाव -
बाहरी समाज में जैसे स्त्री-पुरुष वैसे ही बेडियां समाज में स्त्री-पुरुष है परंतु दोनों की मानसिकता में बडा अंतर है। सामाजिक स्थितियां, दबाव ,परंपराएं और आत्मविश्वास की कमी, इन पुरुषों और औरतों को दयनिय स्थिति से उभरने नहीं देते। बेडियां जाति का पुरुष पूर्णतः अकर्मण्य है वह अपनी बीवी, बहन, मां, बेटी से कमाया खाना खाएगा, केवल खाएगा नहीं अपितु शराब एवं अन्य गतिविधियों में उसकी कमाई रकम को उडाएगा। उसका मन कभी भी मेहनत और स्वाभिमान की जिंदगी नहीं चाहता। उसके परोपजीवि अस्तित्व को ढोते-ढोते औरतें थक जाती है पर कभी भी दायित्व से पलायन नहीं करती। बेड़नियां ठाकुर, जमींदार एवं धनिकों से परिवार के पालन-पोषण के लिए धन तो पाती ही है साथ ही जमीनें भी पाती है। लेकिन बेडिया पुरुष और न औरत अपनी खेती में पसिना बहाकर ईमान की रोटी खाना चाहते हैं। केवल औरत का शरीर बेचकर आराम से पैसा कमाने की आदत उनको सुख भोगी बनाती है मेहनत-मशक्कत कर दस-बीस रुपए कमाने की अपेक्षा थोडे समय में हजारों रुपए कमाने का शॉर्टकट पुरुष व औरतें चुनती है जो उने आत्मविश्वास की कमी को दिखाता है।
बेडिया समाज में सालों से देह विक्रय ,चोरी एवं नृत्य से जीवनयापन की परंपरा है, उसे छोड़ कर नवीन जीवन शैली अपनाने की उसकी इच्छा नहीं है। यह जनजाति अपराधी प्रवृत्ति की है और अपराध पैसौं के लिए किया जाता है। जहां पर इन्हें पैसा उपलब्ध होता है वहां अपराध और जीवन की सुरक्षा भी मिलती है; अतः बेड़नियां ताकतवर-धनिकों की रखैल बन कर रहना पसंद करती है। वैसे उनके रीति-रिवाज में विधिवत‘सिर ढकने’की प्रक्रिया कर बाकायदा रखैल बनने की इजाजत भी दी जाती है। परंपरा, आर्थिक दबाव एवं सामाजिक दबाओं के चलते वह देह व्यापार करती है। बेड़नियों ने पाया कि "उनके अपने समुदाय के पुरुष न तो उनका सहारा बन पाते हैं और न उन्हें सुरक्षित जीवन दे पाते हैं तो उन्होंने पूंजिपतियों की संपत्ति के रूप में जीना स्वीकार किया। वे जानती थी कि एक धनवान अपने धन की रक्षा हर हाल में करता है। उन्हें यह सौदा महंगा नहीं लगा क्योंकि उन्हें बदले में रहने के लिए एक निश्चित स्थान, जीवनयापन के लिए आर्थिक स्रोत और सुरक्षा के लिए एक संरक्षक मिल रहा था।"(पृ.139.) इन सारी स्थितियों के बावजूद बेड़नियां संसार और धनिकों को लूटने की मंशा नहीं रखती। देह व्यापार उन पर थोपा गया है, जिससे बाहर निकलना उनके लिए बहुत मुश्किल है।

4.बाजारवाद -
आधुनिक युग में खरीद-फरोख जोर-शोर से शुरू है। लोग अपनी संस्कृति, देश, सभ्यता, आत्मा.... को बेचने पर उतारू है। पैसों की ताकत बढ़ती जा रही है और उसके लिए कोई कुछ भी करने के लिए तत्पर है। अर्थात् बाजारवादी प्रवृत्ति हर कहीं देखी जाएगी। बेडिया समाज को भी अपने पेट को पालने के लिए और कुछ भौतिक सुविधाओं को जुटाने के लिए पैसों की जरूरत होती है। उनके पास न जमीन-जायदाद, न नौकरी, न शिक्षा, न सत्ता.... पैसा पाए तो कैसै पाए? पैसा पाने के इनके जरिए अपराध की परिधि में आते हैं पर इन्होंने इसे परंपरा मान किया, कर रहे हैं। नृत्य, शरीर विक्रय, चोरी और कभी-कभार झूठी गवाहियां इनके आय का स्रोत हैं। इसमें भी प्रथम तीन ही इनकी पैसों की नैया को पार लगा सकते हैं। नृत्य के पश्चात् देह विक्रय और चोरी पकडी जाए तो देह परोसकर छुटकारा पाना इनकी तकनिक है। बात घुम-फिरकर शरीर विक्रय तक पहुंचती है। हर बेड़नी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष इस धंधे में लिप्त है और पैसा कमाना चाह रही है। धनिक पैसा फेंक इन पर यौनत्याचार करते हैं तथा अनैसर्गिक यौन संबंध रखते हैं। योनी मैथुन, गुदा मैथुन, मुख मैथुन करने की इजाज़त देती बेड़नियां नरम बिस्तर से लेकर चलती गाडियों में भी यौनत्याचार सहन करती है; केवल पैसों के लिए। इन संबंधों से जो बच्चे जन्मते हैं उनके बाप नहीं होते, जो असली बाप है वह इन्हें अपने बच्चे नहीं मानता। यहां तक असली बाप का बेड़नियों को पता भी नहीं होता। उनका कहना है, "का जाने.... पतो नईं! बाकी जब हमने अपने मोडा खों नांव सकूल में लिखाओ रहो सो उसे मोडा को बाप को नांव सोई लिखाने परो....सो हमने ऊ को नांव रुपैया लिखा दयो....।"(पृ.155) बच्चों के बाप का नाम रुपैया और पैसा कितनी बडी विड़बना है आजाद भारत देश के आजाद देसवासियों की।
बाजारवादी संस्कृति में हमेशा व्यवसायी व्यक्ति लाभ में रहता है परंतु यहां व्यावसायिक विरोधाभास दिखाई देगा। "अन्य व्यवसाय में विक्रेता प्रथम दर्जे में तथा ग्राहक दोयम दर्जे में होता है, किंतु इस व्यवसाय में ग्राहक रूपी पुरुष प्रथम दर्जे में तथा विक्रेता रूपी स्त्री दोयम दर्जे में होती है।"(पृ.226)

5.बेटी के जन्म का स्वागत -
जिस देश की तमाम जनता इधर स्त्री भ्रूण हत्या करने पर तुली है उसी देश की एक जनजाति बेडिया स्त्री जन्म का स्वागत बडी खुशी के साथ करती है। उसका कारण है इस जाति में लड़की ही परिवार का मुख्य आधार और पालनकर्ता होती है। इनमें पुरुष शराबी, जुआरी, अकर्मण्य रहा है; अतः उसे नकारा जाता है और लड़की का स्वागत किया जाता है। शरद सिंह को इनके वास्तव का जब पता चलता है तब वे चकित होती हैं। और इसे पढ़ पाठक के नाते हम भी दंग रह जाते हैं। भारतीय समाज में "सच तो यह है कि स्त्री का जन्म एक अवांछित घटना होती है। समाज की व्यापारिक बुद्धि स्त्री के जन्म को साहूकार के खाते में चढे हुए एक ऐसे कर्ज के रूप में देखती है जिस पर ब्याज-पर-ब्याज लगते जाना है।"(पृ.163) कहां आम भारतीय समाज और कहां बेडिया। वैसे बेडियां परिवार में मुख्य आर्थिक स्रोत लड़कियों की खूबसूरती-यौवन से जुड़ने के कारण यह दृष्टिकोण है। जो भी हो इससे खुशी होती है कि कहीं तो स्त्री जन्म का स्वागत हो रहा है। पर स्वागत के कारणों को खंगालने से पीडा और दुःख होता है। इससे यह सीख मिल सकती है कि बेटी को जिंदा रखना है, नारी जाति का अस्तित्व बनाए रखना है, स्त्री-पुरुष समानता लानी है तो औरत ही आगे आकर वह परिवार के आर्थिक स्रोतों का भार वहन करें, ईमानदारी से, और परिवार में इज्जत पाए। ऐसी स्थिति में नारी सम्मान का सूरज उग सकता है। लेखिका ने बेडिया समाज में जन्मी लड़की के स्वागत के कारणों पर प्रकाश डाला है,"आज एक बेड़नी उस समय फूली नहीं समाती जब वह एक स्त्री शिशु को जन्म देती है। वह और उसके परिवार जन स्त्री-शिशु के जन्म पर खुशियां मनाते हैं। इसका सबसे बडा कारण यह है कि एक बेड़नी को अपने बेटी के भविष्य में ही अपना सुरक्षित भविष्य दिखाई देता है।"(पृ.167)

6.क्या किया जाए ?
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास को पढ़ने के पश्चात् कोई भी नहीं चाहेगा कि भारत में ऐसी जनजातियां बची रहें। अपेक्षा की जाएगी बदलाव की। ऐसे जातिगत लोगों के जीवन में सूरज की किरणें उगे और यह भी राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल होकर आजाद देश के निवासी होने के नाते आजादी-अधिकारों को चखें। इन परिवारों के बच्चे जब पढ़-लिख कर आगे बढेंगे तभी यह संभव होगा। पर इनके लिए पढाई का रास्ता आसान नहीं और स्पर्धात्मक युग में टिक पाना मुश्किल भी है। परंतु आज सरकारी नौकरियों की कमी तथा प्रायव्हेट नौकरियों की बढोत्तरी आशावादी चित्र दिखा रही है। इन बच्चों के लिए सरकारी तौर पर पढाई के लिए हर सुविधा मुहैया की जाए जिससे वे शिक्षा की चरम को छूकर अपने टैलेंट के बल पर विभिन्न क्षेत्रों में झंडे गाढ़ सके। प्रायव्हेट क्षेत्र में टैलेंट को तराशा जाए तो एक से दो, दो से चार, चार से आठ.... में परिवर्तन की लहर उठ सकती है।
शरद सिंह ने‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में बेडिया समाज में औरतों द्वारा देह व्यापार करने के कुल पांच प्रेरक तत्वों का जिक्र किया है -
1. देह व्यापार की परंपरा,
2. वातावरण एवं सामाजिक दशाएं,
3. पुरुषों की अकर्मण्यता,
4. कमजोर आर्थिक स्थिति,
5. कमाई के आसान रास्ते के प्रति रुझान।
लेखिका द्वारा दिए गए इन पांच तत्वों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यह उपन्यास सरकार एवं सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाओं के लिए मार्गदर्शक तत्वों को बताता है। कुछ सरकार, कुछ समाज और कुछ बेडियां एक-दूसरे के प्रति विश्वास से हाथ बढाए तो परिस्थितियां बदल सकती है। पिछडी जनजातियां लगन विश्वास से शिक्षा प्राप्त करें बडी आसानी से अपने-आपको परिवर्तित कर सकते हैं। पिछले पन्नों में दबे सामाजिक हिस्से को जब तक मुखपृष्ठ पर लेकर नहीं आएंगे तब तक इन्हें मनुष्य माना नहीं जाएगा; अतः उठकर मुखपृष्ठ की ओर चलने का सफर शुरू करना अत्यंत आवश्यक है।

उपसंहार -
‘पिछले पन्ने की औरतें’शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला खोजपरख उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में गई औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास में कोई नायिका नहीं, हर हिस्से में स्त्री पात्र बदलता है। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। औरतों को अपने अस्तित्व की तलाश करनी होगी। पुरुष उसे तलाशने में मदत करने का नाटक कर भटका सकता है, अतः उसकी मदत के बिना‘आधी दुनिया’होने के नाते वे अपनी‘आधी दुनिया’की हकदार है, उसे पाए। औरत का अस्तित्व पुरुष के समकक्ष है इसे कभी न भुले।
‘पिछले पन्ने की औरतें’उपन्यास में चित्रित संपूर्ण औरतों के मन में सादगी भरा जीवन जीने की मंशा है। उन्हें भी लगता है कि उनका भी एक पति और घर हो, उनके बच्चों को उनके पिता के नाम मिले, वे पढे-लिखे। बच्चों की प्रगति अपनी आंखों से देखें। लड़की और लड़कों की शादी अच्छे घरों में हो....। इन मंशाओ-इच्छाओं को पूरा करने के लिए बेड़नियां प्रयासरत रहती है परंतु उपन्यास से यह भी तथ्य बाहर निकलता है कि सारे प्रयासों के बावजूद उनके बच्चे उसी दलदल में दुबारा फंस जाते हैं। इतिहास और परंपरा उनका पीछा नहीं छोड़ती। उनकी स्थिति सूरदास के पंछी जैसे होती है-
"अब मेरा मन अनंत कहां सुख पावै।
जैसे उडि जहाज पै पंछी, फिर जहाज पर लौट आवै।"
शरद सिंह ने पात्रों का दुबारा दलदल में फंसने का वर्णन किया है परंतु कुछ पात्र सलामति से दबाओं और परंपराओं को तोड़कर आत्मविश्वास से उडान भरने में सफलता हासिल करने का भी चित्रांकन किया है। जीवन में पिछले पन्नों से मुखपृष्ठों पर स्थान पाना है तो जीवट, पेशन्स, आत्मविश्वास, ईमानदारी और ज्ञान की जरूरत है; अगर बेड़नियां यह सब कुछ पाए तो वे‘पिछले पन्नों की औरतें’नहीं कही जाएगी।
आधार ग्रंथ –
पिछले पन्ने की औरतें (उपन्यास) - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण - 2010
पृष्ठ संख्या - 304, मूल्य-395 रुपए
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डॉ.विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.
फोन 09423222808
ई-मेल drvtshinde@gmail.com

मंगलवार, मार्च 12, 2013

सुआ पढ़ाए पींजरा....

(कहानी)
‘साहित्य नेस्ट’ पत्रिका के जनवरी 2013 के ‘सृजनकुंभ’ विशेषांक में प्रकाशित मेरी कहानी
(यदि इनलार्ज करके पढ़ने में असुविधा हो तो इसे डाउनलोड कर के आसानी से पढ़ा जा सकता है। )

- डॉ. शरद सिंह


































































































































































































































































































गुरुवार, जनवरी 10, 2013