‘हंस’ पत्रिका के अप्रैल 2013 अंक में मेरी कहानी ‘लव एट फोर्टी प्लस’ प्रकाशित हुई है...
- डॉ. शरद सिंह
‘‘.........राजीव चला गया. सूनेपन ने मुझे घेर लिया. या यूं कहूं कि बुरी तरह जकड़ लिया. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं? कैसे अपना मन बहलाऊं? राजीव के जाने से बहुत पहले....बल्कि शादी के बाद राजीव के साथ गृहस्थी संवारने के दौर में ही मैंने आईने में अपने शरीर को देखना-परखना छोड़ दिया था। इसकी आवश्यकता मुझे अनुभव ही नहीं हुई. मेरे पति को मेरी देह से कोई शिक़ायत नहीं थी फिर भला मैं उसे क्यों देखती. ...’’
(यदि इनलार्ज करके पढ़ने में असुविधा हो तो इसे डाउनलोड कर के आसानी से पढ़ा जा सकता है। )
Bahut khub,,,,,,,,,,,,,
जवाब देंहटाएंशब्द नही। बहुत सुंदर। न कोई मोड़, न कोई क्लाईमैक्स न कोई अंत। कहानी इसी को कहते हैं। सपाटबयानी। बेहतर शिल्प
जवाब देंहटाएंएक महान ओर सम्माननीय नारी को सलाम ;
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कहानी साफगोई के साथ.
जवाब देंहटाएंprem hai jo aap ko khaniyo ko jodti hai
जवाब देंहटाएंIts good. no word for your story.
जवाब देंहटाएं---एक व्यर्थ की कथा है ....
जवाब देंहटाएंशरद जी.... यह नारीत्व की खोज आदि नहीं अपितु एक भटकन है ....नारीत्व के ( और पुरुष के लिए भी ) वास्तविक अहसास के लिए निश्चय ही इस उम्र में अनेकों कार्य व कृतित्व निकल आते हैं एवं निकाले जा सकते हैं, निकाले जाने चाहिए ...इसे ही वानप्रस्थ अवस्था कहते हैं जब स्वयं के लिए सोचना छोड़कर समाज के लिए सोचना व करना होता है, स्वयं को शरीर मानना छोड़कर आत्मा मानना होता है, बहुत सी हस्तियाँ यह करती भी हैं .... हंस आदि पत्रिकाएं ऐसी ही व्यर्थ की कथाओं आदि को प्रगतिशील मानने में लगीं हैं ....कथा के साथ के चित्रों एवं मुखपृष्ठ के अश्लील चित्र से ही इस पत्रिका के स्तर(स्तरहीनता का) का ज्ञान होता है .....
purush dohri maansikta rakhte hain jabki aurat jo sochti hai wahi kahti hai ...........some men are more image concious and live false life
हटाएंek sach,jise likhna har kisi ke bus ki baat nahi,is bebaki ko salaam.......
जवाब देंहटाएंmujhe ise sahi dhang se poora padhana hai di ....:(
जवाब देंहटाएंExcellent story ! Please keep it up. And don't take negative comments to heart. (like the one above)This story is inspirational. The pics too are nice.Looks the guy above with negative criticism, hasnt seen his mom.
जवाब देंहटाएंmahila avm purush katha-karo ke kratit-b vishleshan me yah samanya antar hai,purush kahanikar antarangta ke gahraiyo par nahi jate.kahani sarthak,bhavuk avm hraday se chalkar sharir ko chou jati hai,kahanikar ke s-vyam ke prashth-bhumi,uske dwara baniye samajik dharatal,arthik stambh ......kahani ko parinam dete hai.
जवाब देंहटाएंबधाई। यह जीवन का सच ही है। पुराने पत्ते टूटते हैं और नये आते हैं। टूटने और टूटने से पहले के मध्य जो ठहराव है यदि उसमें पेड़ और शाख पत्ते से अनमना व्यवहार करे तो यही होगा। कथा सधी हुई है। देशकाल आधुनिक है। चरित्र-चित्रण भी सुन्दर है। नायिका कहीं बागी नहीं है। कहीं दुश्चरित्रा नहीं है। हां नायक ने खुद को और नायिका को इस प्रगतिशील व्यवहार करने की छूट दी है। भाषा सरल सहज है। कहीं कोई अति रंजना नहीं न ही अति साहित्यिकता है। बस जीवन की नियति है। इसे जितनी जल्दी स्वीकारा जाना चाहिए, स्वीकार लेना चाहिए। आखिर खुद की संतुष्टि खुद का वजूद भी तो मायने रखता है। बधाई।
जवाब देंहटाएंachi kahaani ke liye shukriya..............aaj samay badal gaya hai ..................jo nahi badlte wo karte kuch hai kahte kuch hai aur sochte kuch aur hain ...........samaaj humne banaya hai na ki samaaj ne hume ...............jo samay aur haalaat ke mutaabik acha lage aur dil ko sakoon de use jinda rahne ke liye kar lena chahaiye.............sharad ji ko khuli maansikta ke liye badhaai .............
जवाब देंहटाएंशरद जी जैसे प्रभावशाली शब्द तो नहीं है परन्तु औरत के मन और दुविधा को दर्शाती मेरी इसी तरह की कुछ कहानियाँ मेरे ब्लॉग पर है जिसका लिंक है :
जवाब देंहटाएंhttp://alkasainipoems-stories.blogspot.in/2012/06/blog-post.html#comment-form
ईमानदारी के साथ कही यह कहानी प्रभावित कर गयी डॉ शरद !
जवाब देंहटाएंबधाई आपको !
शरद जी कहानी सुंदर है। कहानी के साथ सारी टिप्पणियां भी पढी। जैसे लेखक को कहानी लिखने का अधिकार वैसे पाठक को अपनी टिप्पणी देने का। बेबाक टिप्पणी देने का भी। डॉ. श्याम गुप्त जी के अलावा सारी टिप्पणियां प्रशंसावर्धक है इनसे आपको ऊर्जा मिलेगी पर मै कहूं कि श्याम जी की टिप्पणी से आप दुगुनी ऊर्जा पा सकती है। श्याम जी की टिप्पणी उनका नजरिया है, उनके नजरिये का सम्मान भी हो। 'हंस' में क्या छपता है और क्या छापा जाएगा वह तो संपादक तय करेंगे पर हिंदी साहित्य और भाषा के लिए हंस के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। जिन लेखकों को लेखक के नाते 'हंस' ने मंच दिया वह अमूल्य है। समय अब रूकने वाला नहीं श्लिल अश्लिल के परे जा रहा है भविष्य में जाएगा। इंसान कपडों के पीछे नंगा होता है और अपने मन के आंखों में भी नंगा होता है। मन में जो आ रहा है वह अभिव्यक्त किया और उसको किसी पत्रिका में छापा गया तो वह अश्लिल नहीं होता और बखवास भी नहीं। अभिव्यक्ति किए बिना मन में जो अश्लिलता और बखवास चल रही होती है उसका क्या करें भाई। कम से कम प्रकट होने से मन के भीतर का मवाद तो बाहर निकलता है, विरेचन होना कभी भी लाभप्रद होता है। शरद जी आपने जो लिखा, 'हंस' में जो छपा या राजेंद्र जी ने जिसे छापने की अनुमति दी वह उनकी नहीं तो समाज के भीतर दबी भावनाओं की अभिव्यक्ति है। आदमी मशिन तो नहीं, बटन दबाए चले और बटन दबाए रूके। वह मन के हिलोरे पर डोलने वाला पत्ता है, उसका कंपन तो होगा ही।
जवाब देंहटाएंडॉ. श्याम जी यह वैचारिक प्रकटिकरण है। यहां मैं न शरद जी, न हंस और न आपका पक्ष ले रहा हूं। अपका नाम श्याम है बिल्कुल आप कृष्ण के नजदीक पहुंचेगे। मुझे आपसे ज्यादा बात करने की जरूरत पडेगी भी नहीं। श्याम के रासों में, प्रेम में श्लिल अश्लिल के परे की अभिव्यक्ति रही है। शायद आप मेरी कुछ बातों से सहमत हो रहे होंगे। रही असहमति आपका नजरिया और मेरा नजरिया। बस और कुछ नहीं।
ashleel kahani hai madam.....is kahani se aapki mansikta evm kamna pata chalti hai....
जवाब देंहटाएंbhut hi sundar kahani hai
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