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शुक्रवार, जुलाई 08, 2011

कहानियां जो सोचने को विवश करती हैं.....पहली कहानी- खोल दो

 कुछ कहानियां पढ़ने के बाद मन-मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं। कुछ ऐसी ही कहानियां मैं आपसे साझा करना चाहती हूं। इस क्रम में पहली कहानी प्रस्तुत है सआदत हसन मन्टो की कहानी ‘खोल दो’...... 

खोल दो (कहानी)

लेखकः सआदत हसन मन्टो

प्रस्तुतिः डॉ. शरद सिंह

सआदत हसन मन्टो
(लेखक परिचयः 11 मई, 1912 – 18 जनवरी, 1955.... उर्दू के मशहूर लेखक, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, काली सलवार, ठंडा गोस्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध थे। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो प्ले के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।
कहानी में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। इनके कुछ कार्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।)


बंटवारे की त्रासदी का दस्तावेज़ी छायाचित्र
   अमृतसर से स्पेशल ट्रेन दोपहर दो बजे चली और आठ घंटों के बाद मुगलपुरा पहुंची। रास्ते में कई आदमी मारे गए। अनेक जख्मी हुए और कुछ इधर-उधर भटक गए।
      सुबह दस बजे कैंप की ठंडी जमीन पर जब सिराजुद्दीन ने आंखें खोलीं और अपने चारों तरफ मर्दों, औरतों और बच्चों का एक उमड़ता समुद्र देखा तो उसकी सोचने-समझने की शक्तियां और भी बूढ़ी हो गईं। वह देर तक गंदले आसमान को टकटकी बांधे देखता रहा। यूं ते कैंप में शोर मचा हुआ था, लेकिन बूढ़े सिराजुद्दीन के कान तो जैसे बंद थे। उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उसे देखता तो यह ख्याल करता की वह किसी गहरी नींद में गर्क है, मगर ऐसा नहीं था। उसके होशो-हवास गायब थे। उसका सारा अस्तित्व शून्य में लटका हुआ था।
       गंदले आसमान की तरफ बगैर किसी इरादे के देखते-देखते सिराजुद्दीन की निगाहें सूरज से टकराईं। तेज रोशनी उसके अस्तित्व की रग-रग में उतर गई और वह जाग उठा। ऊपर-तले उसके दिमाग में कई तस्वीरें दौड़ गईं-लूट, आग, भागम-भाग, स्टेशन, गोलियां, रात और सकीना...सिराजुद्दीन एकदम उठ खड़ा हुआ और पागलों की तरह उसने चारों तरफ फैले हुए इनसानों के समुद्र को खंगालना शुरु कर दिया।
         पूरे तीन घंटे बाद वह सकीना-सकीनापुकारता कैंप की खाक छानता रहा, मगर उसे अपनी जवान इकलौती बेटी का कोई पता न मिला। चारों तरफ एक धांधली-सी मची थी। कोई अपना बच्चा ढूंढ रहा था, कोई मां, कोई बीबी और कोई बेटी। सिराजुद्दीन थक-हारकर एक तरफ बैठ गया और मस्तिष्क पर जोर देकर सोचने लगा कि सकीना उससे कब और कहां अलग हुई, लेकिन सोचते-सोचते उसका दिमाग सकीना की मां की लाश पर जम जाता, जिसकी सारी अंतड़ियां बाहर निकली हुईं थीं। उससे आगे वह और कुछ न सोच सका।
                
      सकीना की मां मर चुकी थी। उसने सिराजुद्दीन की आंखों के सामने दम तोड़ा था, लेकिन सकीना कहां थी , जिसके विषय में मां ने मरते हुए कहा था,
'मुझे छोड़ दो और सकीना को लेकर जल्दी से यहां से भाग जाओ।'
         सकीना उसके साथ ही थी। दोनों नंगे पांव भाग रहे थे। सकीना का
दुपट्टा गिर पड़ा था। उसे उठाने के लिए उसने रुकना चाहा था। सकीना ने चिल्लाकर कहा था,' अब्बाजी छोड़िए!' लेकिन उसने दुपट्टा उठा लिया था।....यह सोचते-सोचते उसने अपने कोट की उभरी हुई जेब का तरफ देखा और उसमें हाथ डालकर एक कपड़ा निकाला, सकीना का वही दुपट्टा था, लेकिन सकीना कहां थी?
         
         सिराजुद्दीन ने अपने थके हुए दिमाग पर बहुत जोर दिया, मगर वह किसी नतीजे पर न पहुंच सका। क्या वह सकीना को अपने साथ स्टेशन तक ले आया था?- क्या वह उसके साथ ही गाड़ी में सवार थी?- रास्ते में जब गाड़ी रोकी गई थी और बलवाई अंदर घुस आए थे तो क्या वह बेहोश हो गया था, जो वे सकीना को उठा कर ले गए?
सिराजुद्दीन के दिमाग में सवाल ही सवाल थे, जवाब कोई भी नहीं था। उसको हमदर्दी की जरूरत थी, लेकिन चारों तरफ जितने भी इन्सान फंसे हुए थे, सबको हमदर्दी की जरूरत थी। सिराजुद्दीन ने रोना चाहा, मगर आंखों ने उसकी मदद न की। आंसू न जाने कहां गायब हो गए थे।
       छह रोज बाद जब होश-व-हवास किसी कदर दुरुस्त हुए तो  सिराजुद्दीन उन लोगों से मिला जो उसकी मदद करने को तैयार थे। आठ नौजवान थे, जिनके पास लाठियां थीं, बंदूकें थीं। सिराजुद्दीन ने उनको लाख-लाख दुआऐं दीं और सकीना का हुलिया बताया, गोरा रंग है और बहुत खूबसूरत है... मुझ पर नहीं अपनी मां पर थी...उम्र सत्रह वर्ष के करीब है।...आंखें बड़ी-बड़ी...बाल स्याह, दाहिने गाल पर मोटा सा तिल...मेरी इकलौती लड़की है। ढूंढ लाओ, खुदा तुम्हारा भला करेगा।
       रजाकार नौजवानों ने बड़े जज्बे के साथ बूढे¸ सिराजुद्दीन को यकीन दिलाया कि अगर उसकी बेटी जिंदा हुई तो चंद ही दिनों में उसके पास होगी।
         आठों नौजवानों ने कोशिश की। जान हथेली पर रखकर वे अमृतसर गए। कई मर्दों और कई बच्चों को निकाल-निकालकर उन्होंने सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। दस रोज गुजर गए, मगर उन्हें सकीना न मिली।
 
        एक रोज इसी सेवा के लिए लारी पर अमृतसर जा रहे थे कि छहररा के पास सड़क पर उन्हें एक लड़की दिखाई दी। लारी की आवाज सुनकर वह बिदकी और भागना शुरू कर दिया। रजाकारों ने मोटर रोकी और सबके-सब उसके पीछे भागे। एक खेत में उन्होंने लड़की को पकड़ लिया। देखा, तो बहुत खूबसूरत थी। दाहिने गाल पर मोटा तिल था। एक लड़के ने उससे कहा, घबराओ नहीं-
'क्या तुम्हारा नाम सकीना है?'
       लड़की का रंग और भी जर्द हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन जब तमाम लड़कों ने उसे दम-दिलासा दिया तो उसकी दहशत दूर हुई और उसने मान लिया कि वो सिराजुद्दीन की बेटी सकीना है।
         आठ रजाकार नौजवानों ने हर तरह से सकीना की दिलजोई की। उसे खाना खिलाया, दूध पिलाया और लारी में बैठा दिया। एक ने अपना कोट उतारकर उसे दे दिया, क्योंकि दुपट्टा न होने के कारण वह बहुत उलझन महसूस कर रही थी और बार-बार बांहों से अपने सीने को ढकने की कोशिश में लगी हुई थी।
          कई दिन गुजर गए- सिराजुद्दीन को सकीना की कोई खबर न मिली। वह दिन-भर विभिन्न कैंपों और दफ्तरों के चक्कर काटता रहता, लेकिन कहीं भी उसकी बेटी का पता न चला। रात को वह बहुत देर तक उन रजाकार नौजवानों की कामयाबी के लिए दुआएं मांगता रहता, जिन्होंने उसे यकीन दिलाया था कि अगर सकीना जिंदा हुई तो चंद दिनों में ही उसे ढूंढ निकालेंगे।
        एक रोज सिराजुद्दीन ने कैंप में उन नौजवान रजाकारों को देखा। लारी में बैठे थे। सिराजुद्दीन भागा-भागा उनके पास गया। लारी चलने ही वाली थी कि उसने पूछा-
'बेटा, मेरी सकीना का पता चला?'
      सबने एक जवाब होकर कहा, 'चल जाएगा, चल जाएगा।' और लारी चला दी। सिराजुद्दीन ने एक बार फिर उन नौजवानों की कामयाबी की दुआ मांगी और उसका जी किसी कदर हलका हो गया।
 
          शाम को करीब कैंप में जहां सिराजुद्दीन बैठा था, उसके पास ही कुछ गड़बड़-सी हुई। चार आदमी कुछ उठाकर ला रहे थे। उसने मालूम किया तो पता चला कि एक लड़की रेलवे लाइन के पास बेहोश पड़ी थी। लोग उसे उठाकर लाए हैं। सिराजुद्दीन उनके पीछे हो लिया। लोगों ने लड़की को अस्पताल वालों के सुपुर्द किया और चले गए।
       
    कुछ देर वह ऐसे ही अस्पताल के बाहर गड़े हुए लकड़ी के खंबे के साथ लगकर खड़ा रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अंदर चला गया। कमरे में कोई नहीं था। एक स्ट्रेचर था, जिस पर एक लाश पड़ी थी। सिराजुद्दीन छोटे-छोटे कदम उठाता उसकी तरफ बढ़ा। कमरे में अचानक रोशनी हुई। सिराजुद्दीन ने लाश के जर्द चेहरे पर चमकता हुआ तिल देखा और चिल्लाया- 'सकीना!'
      डॉक्टर, जिसने कमरे में रोशनी की थी, ने सिराजुद्दीन से पूछा,
'क्या है?'
सिराजुद्दीन के हलक से सिर्फ इस कदर निकल सका, 'जी मैं...जी मैं...इसका बाप हूं।'
     
        डॉक्टर ने स्ट्रेचर पर पड़ी हुई लाश की नब्ज टटोली और सिराजुद्दीन से कहा, 'खिड़की खोल दो।'
      सकीना के मुर्दा जिस्म में जुंबिश हुई। बेजान हाथों से उसने इज़ारबंद खोला और सलवार नीचे सरका दी। बूढ़ा सिराजुद्दीन खुशी से चिल्लाया, जिंदा है-
'मेरी बेटी जिंदा है?'



23 टिप्‍पणियां:

  1. यह कहानी मेरी पढी हुई थी,इसलिए बहुत देर तक हिम्मत न जुटा पाई कि एक बार फिर से पढूं.....

    लेकिन दुबारा भी पढ़ ही लिया....

    शायद इसी तरह संवेदनाएं सुन्न पड़ती हैं...नहीं ??

    जो लोग अमानवीय कृत्यों को अत्यंत सहजता से संपन्न करते हैं,उनमे भी तो एक ही चीज नहीं होती - संवेदना...!!!

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  2. मैंने पहली बार पढा है, कापी ही कर ली है, बार-बार पढूंगा।

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  3. ओह ........ कितनी वीभत्स स्थिति रही होगी ... वाकयी कभी कभी कुछ पढ़ा हुआ दिमाग पर कितना असर करता है ...

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  4. वाकई सोचने पर विवश करने वाली कहानी.वाकई सोचने पर विवश करने वाली कहानी.

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  5. डॉ .शरद सिंह जी १९७० के दशक में यह कहानी "सारिका "में पढ़ी थी .कमलेश्वर जी उन दिनों विशेषांक निकाल रहे थे विदेशी भाषा के कहानी कारों की अनूदित रचनाएं भी थीं ,मंटो साहब की करीब करीब सभी कहानी ,कथा साहित्य तब भी पढ़ा था .उस वक्त उम्र भी २५ -की ही रही होगी .आज इस कहानी ने नए सन्दर्भ ओढ़े.आज भी तो यह समकालीन नारी की असुरक्षा और इस दौर के वहशी पन की ही बखिया उधेड़ रही है .समाज की कथित "सिविलिती "पर यह एक बड़ा सा पैवंद है .

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  6. मंटो साहब की यह अच्छी कहानी है !
    पुन:पढवाने के लिए धन्यवाद !
    जय हो !

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  7. सिर्फ़ एक बार नहीं बल्कि मैंने दुबारा पढ़ा कहानी ! शानदार प्रस्तुती!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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  8. कुछ समझ नहीं आ रहा की क्या जवाब दूँ मुझे तो सोचने पर ही मजबूर कर दिया

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  9. सम्मानिया शरद जी
    नमस्कार !
    aap ki choti choti prabhavi kavitaon ki tarah aap ki pasand bhi prabhavi hai . kahani ek baar padhne ke baad sochniya mudraa me baith gaya ki aaj ki sthithi aur us samay ki sthithi me kitna fark hai .. bas parivesh badlaa hua hai . aahar . manto ko padwane ke liye . is prakaar any aap ki pasand ko padnaa achcha lagegaa . ye main manta hoo .
    sadar

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  10. डॉ.शरद सिंह जी
    सादर अभिवादन
    बहुत ही बढ़िया कहानी बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर बहुत-बहुत आभार

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  11. आपको गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर सुगना फाऊंडेशन मेघलासिया जोधपुर और हैम्स ओसिया इन्स्टिट्यूट जोधपुर की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं.

    आपको गुरु पूर्णिमा की ढेर सारी शुभकामनायें..

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  12. बहुत सुन्दर काम है शरद जी,इसी प्रकार और भी महत्वपूर्ण कहानियों की प्रस्तुति करती रहें। शुभकामनाएँ। जरा सोचिए स्त्री विमर्श कहाँ से शुरू होता है और किधर को जा रहा है?... यह कहानी पचास साठ साल पहले की स्त्री और हमारे समय की स्त्री के शोषण में और पुरुषवादी सोच में ज्यादा फर्क नही करती। बहुत समकालीन है यह जितनी बार पढें सोचने के लिए विवश करती है।

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  13. मंटो लिखता कहां था वो तो तलवार से काट देता था...बस्स

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  14. jindagi kaisi hai paheli haaye ,manto sahab ki kahani dil ko chhoo gayi ,aapki koshish se hame ye avasar mila iske liye shukriyaan .marmsparshi .......

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  15. कहानी पढ़ी हुई लगी मगर दुबारा पढ़ कर भी अंखे नाम हो गयीं...सच में कुछ कहानियाँ दिलो दिमाग पर अपनी निशानी छोड़ जाती है ....

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  16. बहुत सुंदर, ऐसी कहानियां कभी कभी पढने को मिलती हैं।
    शुभकामनाएं.

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  17. पहले से पढ़ी कहानी ...फिर उतनी ही झकझोर गई...

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  18. यह कहानी कई वर्ष पहले पढ़ी थी. आज भी उतनी ही पीड़ा देती है. भारत विभाजन की विभीषिका पर लिखी कई कहानियाँ ऐसी मानवीय त्रासदी को कहती हैं. मांटो मांटो है.

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  19. घूमते घामते आपके ब्लॉग पर आ गया.. आ गया तो मंटों की कहानी से फिर मुलाकात हो गई. मंटो की इस त्रासद कहानी की याद दिला दी. बधाई... लमही कहानी विशेषांक में आपकी कहानी 'सोचा तो होता !' पढ़ी. जीवन में एक गलती कितनी जिंदगियों को मुश्किल में डाल देती है इसे बखूबी आपने प्रदर्शित किया है.. इसके लिए भी बधाई.. प्रसंगवश इस विशेषांक में मैं भी हूं.. हो सके तो देखिएगा और साथ ही हंस के मई 2012 में भी.. पुनः बधाई - प्रदीप जिलवाने

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  20. 1. http://bairang.blogspot.in/2011/01/blog-post_8993.html

    2. http://bairang.blogspot.in/2011/02/blog-post_09.html

    3. http://bairang.blogspot.in/2011/03/blog-post_29.html

    4. http://bairang.blogspot.in/2011/07/blog-post.html

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