समकालीन कथा यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Journey Of Contemporary Hindi Story By Dr (Miss) SHARAD SINGH
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शनिवार, अप्रैल 05, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनी, रूपाली?" सुष्मिता सिंह के स्वर मेंDr (Ms) Sharad Singh story - Tum Muktakeshi Kyon Nahin Bani, Rupali? - in the voice of Sushmita Singh
शुक्रवार, मार्च 28, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "स्लेव मार्केट" सुष्मिता सिंह के स्वर मेंDr (Ms) Sharad Singh story - Slave Market - in the voice of Sushmita Singh
शनिवार, मार्च 22, 2025
डॉ. (सुश्री) शरद सिंह के उपन्यास "कस्बाई सिमोन" की समीक्षा प्रोफेसर एस वी एस एस नारायण राजू द्वारा यूट्यूब पर
गुरुवार, मार्च 20, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "गुड्डी, टिकली और हंगर वार" सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - "Guddi Tikali Aur Hunger War" - in the voice of Sushmita Singh
शनिवार, मार्च 15, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "बंद घड़ी" यूट्यूब चैनल साहित्य वाटिका पर
शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "एक और सज़ा" सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - Ek Aur Saza - in the voice of Sushmita Singh
मंगलवार, फ़रवरी 11, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "वह मदालसा का ऋतुध्वज था, सुमी !" सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - Voh Madalasa Ka Ritudhwaj Tha Sumi - in the voice of Sushmita Singh
लोकप्रिय साहित्यिक Youtube Channel "आज सुनिए कहानी" में सुष्मिता सिंह जी के मधुर स्वर में सुनिए मेरी कहानी
👇"वह मदालसा का ऋतुध्वज था, सुमी !" 👇
https://youtu.be/Yk8irfuTx3s?si=kM-j9ueoG2jwfxSA
सुष्मिता जी की बेहतरीन प्रस्तुति ने कथानक को जीवंत कर दिया है।
❗️यह कहानी एक प्रश्न उठाती है कि क्या पूरी बात जाने बिना कोई धारणा बना लेना उचित है❓ इसका उत्तर भी इसी कहानी में है 👇 जरूर सुनिए....
हार्दिक धन्यवाद प्रिय सुष्मिता सिंह जी 🌹🙏🌹
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सोमवार, फ़रवरी 03, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "मौना कब तुम कहां जाओगी?" सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - Maina, b tum khan jaogi? - in the voice of Sushmita Singh
लोकप्रिय साहित्यिक Youtube Channel "आज सुनिए कहानी" में सुष्मिता सिंह जी के मधुर स्वर में सुनिए मेरी कहानी
👇"मौना, अब तुम कहां जाओगी?" 👇
https://youtu.be/GJbJLKptkAQ?si=JHflSO0SazQe-OAe
सुष्मिता जी की बेहतरीन प्रस्तुति ने कथानक को चलचित्र की भांति जीवंत कर दिया है।
❗️यह कहानी एक ऐसी लड़की की है जिसे विवाह के नाम पर खरीद कर लाया गया, वह भी दूसरे प्रांत से। वह न वहां की भाषा जानती और न रास्ते .... क्या हुआ उस लड़की का फिर ? यह पता चलेगा कहानी सुनकर....❗️
हार्दिक धन्यवाद प्रिय सुष्मिता सिंह जी 🌹🙏🌹
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गुरुवार, जनवरी 30, 2025
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "प्रेम वाया एल. डी. आर." सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - Prem Via L.D.R. - in the voice of Sushmita Singh
डॉ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "पुराने कपड़े" सुष्मिता सिंह के स्वर में | Dr (Ms) Sharad Singh story - Purane Kapade - in the voice of Sushmita Singh
शनिवार, जनवरी 18, 2025
कहानी | गुड्डी, टिकली और हंगर वार | डॅा.(सुश्री) शरद सिंह | "नई धारा" में प्रकाशित
“नई धारा” (फरवरी-मार्च 2025) में प्रकाशित कहानी
गुड्डी, टिकली और हंगर वार
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
आज सुबह अचानक तारा का फोन आया। तारा यानी तारा शुक्ला बच्चों की काउंसलर है और एक एनजीओ के लिए काम करती है। वह मेरी सहेली तो नहीं लेकिन बहुत अच्छी परिचित है।
इन दोनों ठंड ने अपने आने की दस्तक देती है इसलिए सुबह कुछ अलसाई हुई सी लगती है। नल में पानी आने से पहले एक कप चाय और पानी भरने से खाना बनाने के काम से निवृत होने के बाद एक कप चाय और जरूरी हो जाती है। उसे पर अखबार पढ़ते समय पलकें भारी होने लगती है। मानो अखबार की ख़बरें न हों बल्कि नींद की दवा का डोज़ हो। एक अजीब उनींदापन। सुस्ती का आलम।
जब तारा का फोन आया तो उस समय मैं उनींदेंपन के दौर से गुज़र रही थी। तारा के फोन में न केवल मुझे जागृत अवस्था में लाया बल्कि उसकी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया। उसके स्वर में एक अज़ीब-सी उत्तेजना थी। उसने मुझे कहा- "श्वेता, जल्दी आओ! तुम जिस तरह का केस जानना चाहती थीं, उससे भी ज्यादा सनसनीखेज़ केस आज हमारे यहां आया है। बस दो-तीन घंटे का समय है इसलिए जितनी जल्दी हो सके आ जाओ!"
"दो-तीन घंटे का समय मैं कुछ समझी नही। वैसे केस क्या है?" मैंने उसे जानना चाहा। वाकई मुझे समझ में नहीं आया था कि वह क्या कह रही है? कौन सा केस? कैसा केस? और यदि कोई केस है तो उसमें दो-तीन घंटे का समय ही क्यों है?
"बातों में समय ख़राब मत करो, जितनी जल्दी हो सके आ जाओ।" तारा ने फिर उतावलेपन से कहा। लगभग डांटते हुए।
"ओके! ओके! आ रही हूं ! कहां पहुंचना है।" मैंने उससे पूछा।
"बाल सुधार गृह।" कहते हुए उसने तत्काल फोन बंद कर दिया। उसे डर लगा होगा कि कहीं मैं कोई और बात न पूछने लग जाऊं और घर से निकलने में देर कर दूं।
यूं भी बाल सुधार गृह मेरे घर से लगभग 14-15 किलोमीटर दूर है यानी शहर के दूसरे छोर पर। भले ही मुझे अपनी स्कूटी से जाना था लेकिन वहां तक पहुंचने में समय तो लगता ही। फिर रास्ते का ट्रैफिक भी काफी समय ले लेता है।
मैंने तत्काल कपड़े बदले। ट्राउजर और कुर्ता पहना। मोबाइल ट्राउजर की एक जेब में खोंसा। दूसरी ज़ेब में एक रूमाल रखा। स्कूटी की चाबी उठाई। बाहर निकल कर घर के दरवाजे पर ताला डाला और स्कूटी लेकर निकल पड़ी। बाल सुधार गृह के लिए।
यूं तो मेरा मानना है कि गाड़ी चलाते समय इधर-उधर की कोई भी बात सोचना नहीं चाहिए, सिर्फ ड्राइविंग पर कंसंट्रेशन रखना चाहिए। फिर चाहे वह टू व्हीलर हो या फोर व्हीलर। लेकिन इस समय मेरे दिमाग में न जाने कितनी बातें घूम रही थीं। तारा किस तरह के केस की बात कर रही थी? कौन-सा कैसे होगा? मैंने तो उससे कई विषयों पर चर्चा कर रखी है। मैंने भी बाल मनोविज्ञान और अपराध मनोविज्ञान दोनों पढ़ा है लेकिन फिर भी मैं उसे बिंदु को ठीक-ठाक जानना चाहती थी जिस बिन्दु से कोई बच्चा अपराध की ओर मुड़ जाता है। विशेष रूप से जब वह स्वयं अपराध में प्रविष्ट होता है, किसी के जबरदस्ती अपराधी बनने पर नहीं। आखिर बच्चों में तो इतनी समझ होती नहीं है कि वह कोई प्लानिंग करें या गहराई से सोचें और फिर किसी से बदला लेने की योजना बनाकर अपराध करें। लेकिन शायद किसी-किसी बच्चे में इस तरह की प्रवृत्ति होती हो। मैं इस गहराई को जानना चाहती थी कि ऐसी प्रवृत्ति जन्मजात होती है या परिस्थिति वश जन्म ले लेती है? और यह जानना मेरे लिए तभी संभव था जब मैं किसी विशेष बाल अपराधी से मिलूं और उससे बातचीत करूं उसके बारे में जानूं। यहां के सुधार गृह में यूं तो कई बच्चे हैं किंतु इस तरह के नहीं है जिन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो यानी हत्या की हो अथवा हत्या की कोशिश की हो। तो क्या इस तरह का कोई कैसे आया है? यह सोचते ही पल भर को मेरे शरीर में रोमांच की एक लहर दौड़ गई। यदि यह सच है तो कैसा होगा वह बाल अपराधी? किसी बच्चे को हत्या जैसे अपराध से जोड़कर देखना ही बड़ा अजीब लगता है।
पीछे से आ रही एक गाड़ी के हॉर्न ने मुझे चौंकाया। मैं सोच-विचार में डूबी हुई सड़क के लगभग बीच में जा पहुंची थी और निश्चित रूप से मेरे पीछे आ रही गाड़ी का चालक झल्ला कर हॉर्न पर हॉर्न बजाने लगा था। गलती उसकी नहीं, गलती सरासर मेरी थी। मैंने तत्काल अपनी स्कूटी को साइड में किया और बाजू से हो कर गुजरते उस चालक की ओर देखकर "सॉरी" बोला। उसने मुझे देखकर बुरा-सा मुंह बनाया। यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। यदि उसने बुदबुदाते हुए मुझे गाली भी दी हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। मैंने उसकी प्रतिक्रिया पर बुरा नहीं माना बल्कि स्वयं को चेताया की बस, अब होश-हवास में स्कूटी चलानी है और सही-सलामत, वन-पीस बाल सुधार गृह तक पहुंचना है।
वहां से लगभग 12 मिनट बाद में मैं बाल सुधार गृह के दरवाजे पर जा पहुंची। अभी मैं स्कूटी स्टैंड ही कर रही थी कि तारा तेजी से बाहर आई। वह किसी खिड़की से शायद मेरा रास्ता ही देख रही थी।
"जल्दी आओ! जल्दी चलो अंदर!" तारा हड़बड़ाती हुई बोली।
"ठीक है, ठीक है, अब आ तो गई हूं। बताओ तो आखिर मामला क्या है?" मैंने तारा को शांत करते हुए कहा।
" दरअसल बात ये है कि उसे यहां से होकर जबलपुर ले जा रहे हैं। यह लोग बस दो-तीन घंटे के लिए यहां रुके हैं। यह लोग पहले तो नहीं मान रहे थे लेकिन मैंने इन्हें जैसे-तैसे तैसे मान लिया है। तुम जल्दी से मिल लो और जो भी पूछना हूं जल्दी-जल्दी पूछ लेना। हालांकि वह कितना बात करेगी यह मुझे आईडिया नहीं है। बड़ी चुपचुप-सी है वो।" तारा ने कहा।
"करेगी यानी कोई लड़की है। कोई बच्ची?" मैं चौंक कर पूछा।
"यस, शी इज़ ओनली 9 ईयर ओल्ड। बट शी इज़ ब्रूटल मर्डरर।" तारा ने एक सांस में मुझे बताया।
"9 ईयर ओल्ड ब्रूटल मर्डरर?" मैंने तारा की बात को दोहराया मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि इतनी छोटी बच्ची एक जघन्य हत्यारी हो सकती है? तारा पल भर को ठिठकी। उसने मुझे एक सांस में, चंद पंक्तियों में उस लड़की के अपराध के बारे में बताया। मुझे विश्वास नहीं हुआ उसकी बात सुन कर।
"आओ, इस कमरे में है वो।" तारा ने मुझे बताया और फिर तुरंत बोली, " लेकिन ठहरो! पहले इंस्पेक्टर से तुम्हें मिलवा दूं जो उसके साथ आई है।"
तारा ने उस लेडी इंस्पेक्टर से मेरा परिचय कराया। वह बहुत मिलनसारिता से मिली। 27-28 साल से अधिक आयु नहीं रही होगी उसकी। गेंहुआ रंग। तीखे नयननक्श। एकदम चुस्त-दुरुस्त। उसके स्वर में भी मधुरता थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि उसने अपनी रिस्क पर मुझे उस लड़की से मिलने की अनुमति दे दी थी।
"जब ऐसे छोटे बच्चे अपराध की दुनिया में मिलते हैं तो मुझे भी बहुत आश्चर्य होता है।" वह इंस्पेक्टर बोली।
“जी ! यही तो मैं जानना चाहती हूं कि वह कौन सा पल होता है जो उन्हें अपराध करने को इतनी गहराई से प्रेरित करता है कि वे स्वयं को रोक नहीं पाते हैं।" मैंने उसे महिला इंस्पेक्टर से कहा।
"ठीक है आप उससे बात कर लीजिए अभी तो हमें कुछ देर यहां रुकना है।" उस इंस्पेक्टर ने मुझे औपचारिक अनुमति दे दी। हालांकि यह एक फेवर था कि बिना कोर्ट के परमिशन के, बिना किसी लिखा-पढ़ी के मुझे उस लड़की से मिलने दिया जा रहा था। शायद यह मानवता के आधार पर था। वैसे इसकी जिम्मेदारी एनजीओ के जरिए तारा ने अपने ऊपर ले ली थी। तारा जानती थी कि मेरी इस मुलाक़ात से किसी पर आंच नहीं आएगी। हो सकता है कि उसे लड़की के मानस पर इससे कोई सकारात्मक असर पड़े।
मैंने उस कमरे में कदम रखा जहां वह छोटी-सी लड़की कुर्सी पर एक मेज के पीछे बैठी थी। उसकी कद-काठी बिल्कुल मामूली थी। मेरी आहट पाकर उसने सिर उठाकर मेरी ओर देखा। बेहद मासूम चेहरा जैसाकि एक 9 साल की बच्ची का होना चाहिए।
यह बच्ची भला एक जघन्य हत्या कैसे कर सकती है? यह सोचते हुए मैंने उसकी आंखों में देखा। हल्का भूरा रंग लिए हुए उसकी काली आंखें भावहीन थीं। मुझे देखकर उन आंखों में न तो कोई कौतूहल जागा और न कोई झिझक। मानो उन आंखों के लिए मेरा वहां कोई अस्तित्व था ही नहीं। यह बात मुझे ज़रा अज़ीब लगी। उसकी आंखों की यह भावहीनता उसे एक आम लड़की से अलग कर रही थी।
लड़की का रंग साफ़ था। दुबली थी। इकहरे शरीर की। बालों की चोटी गुंथी थी, जिसके छोर पर रबरबैंड लगा था। उसकी छोटी अधिक लंबी नहीं थी फिर भी उसने अपनी गर्दन की एक ओर से उसे आगे कर रखा था।
"तुम्हारा नाम क्या है?" मैंने उसके सामने वाली कुर्सी में बैठते हुए उससे कोमलता भरे स्वर में पूछा।
"गुड्डी।" उसने पहली बार में ही तुरंत उत्तर दे दिया। उसके स्वर में भी उसकी आंखों जैसा सपाटपन था। गोया मेरे आमद के साथ ही वह समझ गई थी कि अब उससे उसका नाम पूछा जाएगा। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि अब तक उससे थाने से लेकर कोर्ट तक और कोर्ट से लेकर सुधार गृह तक कई लोगों द्वारा कई बार सबसे पहलेउसका नाम पूछा जा चुका होगा।
"बड़ा प्यारा नाम है।" मैंने उसके प्रति अपनी आत्मीयता स्थापित करने का एक छोटा-सा प्रयास किया। मेरे इस प्रयास पर भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
"ये लोग बता रहे हैं कि तुमने किसी को जान से मार दिया था। क्या ये सच है?" मैंने उससे पूछा।
उसने अपना सिर हिला कर हामी भरी। मुंह से कुछ नहीं बोला।
"किसको मारा था?" मैंने पूछा।
"टिकली को।" स्वर में वही सपाटपन।
"कौन थी टिकली?" मैंने पूछा।
"मुझे रोज मार पड़वाती थी। कमीनी।" पल भर को उसकी आंखों में एक चमक कौंधी। क्रूरता भरी चमक। पर दूसरे ही पल वही भावहीनता।
उसके मुंह से गाली का शब्द सुनकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। निचली बस्तियों में पलने वाले बच्चे बात-बात पर गालियां देने के आदी होते हैं। वे उन गालियों का अर्थ नहीं जानते, नहीं समझते, इसलिए मां-बहन की गालियां देने से भी हिचकते नहीं हैं। मैंने ऐसे बच्चों को क़रीब से देखा है। उनके परिवेश को गहराई से समझा है। इसमें उनका कोई दोष नहीं होता। वे जो अपने माता-पिता या बड़े भाई-बहन से सुनते हैं, वही सब बिना सोचे-समझे दोहराने लगते हैं।
"टिकली तुम्हें क्यों मार पड़वाती थी? क्या तुम दोनों के बीच कोई झगड़ा था? क्या तुम लोग साथ-साथ रहती थीं?" मैं गुड्डी से पूछा।
वह चुप रही। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
"तुम कहां रहती थीं? क्या टिकली तुम्हारी बहन थी?" मैं गुड्डी से पूछा।
"वह कुतिया मेरी बहन नहीं थी।" गुड्डी के स्वर में टिकली के लिए असीम घृणा थी। उसके इस जवाब से मुझे लगा कि अब मैंने सही दरवाजे पर दस्तक दी है। गुड्डी अब कुछ खुलकर बात करेगी।
"तो फिर कौन थी टिकली? तुम्हारे साथ क्यों रहती थी?" मैं फिर पूछा।
गुड्डी फिर चुप रही। वह अपनी दाएं हाथ की तर्जनी से मेज की सतह खुरचने लगी। यह देखकर मैं समझ गई कि वह इस उधेड़बुन में है कि वह कुछ बोले या न बोले।
"देखो गुड्डी जब मैं तुम्हारी उम्र की थी तब मुझे भी बहुत गुस्सा आता था। मैं उस समय स्कूल जाया करती थी। मेरे साथ एक लड़की पढ़ती थी जो मेरी चीज चुरा लिया करती थी। मुझे उस पर शक तो पहले से ही था लेकिन एक दिन मैंने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया। वह मेरे बस्ते से मेरी पेंसिल चुरा रही थी। यह देखकर मुझे बहुत गुस्सा आया और मैंने उसकी चोटी पकड़ कर उसे जमीन पर गिरा दिया। शायद मैं उसे खूब पीटती लेकिन तब तक टीचर आ गईं और उन्होंने मुझे रोक लिया। सही में, जब आपकी कोई चीज कोई चुराता है तो बहुत बुरा लगता है। बहुत गुस्सा आता है। हम ऐसे लोगों से मारपीट भी कर लेते हैं लेकिन किसी को जान से मार देना बहुत बड़ी बात होती है। क्या तुमने सचमुच टिकली को जान से मार दिया या ये लोग झूठ बोल रहे हैं?" मैंने एक झूठा- मूठा किस्सा सुनाते हुए गुड्डी से उसके दिल की बात निकलवानी चाही।
तीर निशाने पर लगा।
"उस कुतिया ने मेरा जीना हराम कर दिया था। जब तक वह नहीं आई थी तब तक नाथू दादा मुझे सबसे ज्यादा चाहते थे। मेरी तारीफ करते थे। वह मुझे भरपेट भोजन देते थे। लेकिन जब से गिट्ठे भाई उस कुतिया टिकली को लेकर आए तब से मुझे खाना भी कम दिया जाने लगा।" गुड्डी बताने लगी। मैंने देखा उसकी निर्भाव आंखें क्रोध से जलने लगी थीं।
"यह नाथू दादा कौन थे?" मैंने पूछा।
"अड्डे के मालिक हम सब नाथू दादा के अड्डे पर ही रहते थे।" गुड्डी ने बताया।
"कैसा अड्डा? तुम्हारे मां-बाप भी तुम्हारे साथ रहते थे?" मैं गुड्डी से पूछा।
"मैं नहीं जानती अपने मां-बाप को। सब बताते थे कि जब मैं दो बरस की थी तो नाथू दादा के अड्डे पर आ गई थी। कैसे पहुंची मुझे नहीं पता। नाथू दादा ने और गिट्ठे भाई ने मुझे टिरेनिंग दी।" गड्डी ने बताया।
"काहे की ट्रेनिंग?" मैंने पूछा। यद्यपि गुड्डी के कमरे में मुझे भेजने से पहले बहुत संक्षेप में तारा ने मुझे उसके बारे में थोड़ी जानकारी देती थी लेकिन मैं गुड्डी के मुंह से ही सब कुछ सुनना चाहती थी।
"भीख मांगने की। हम सब लोगों को रोज कम-से-कम 100 रुपये कमाने पड़ते थे। जो 100 रुपए या उससे ज्यादा भीख लाता उस बच्चे को भरपेट खाना दिया जाता। मैं भी सौ, सवा सौ, डेढ़ सौ रुपए तक रोज कमा लेती थी। नाथू दादा मुझे बहुत खुश रहते थे। मुझे भरपेट खाना देते थे। मेरी तारीफ भी करते थे और दूसरे बच्चों से कहते थे की एक गुड्डी को देखो जो रोज 100 रुपए से ज्यादा कमा लेती है और एक तुम लोग हो निकम्मे के निकम्मे। तुम लोगों को तो हाथ-पैर तोड़कर सड़क के किनारे बिठा दिया जाना चाहिए। तब तुम ज्यादा कमा सकोगे।" गुड्डी ने बताया।
"बाप रे! नाथू दादा ऐसा कहते थे?" मैं जरा डरने का अभिनय किया।
"हां, उन्होंने तो एक लड़के का हाथ तोड़ भी दिया था।" गुड्डी ज़रा शान से बताया।
"लेकिन क्यों? क्यों तोड़ दिया था हाथ?" मैंने पूछा।
"उस भोंदू से भीख मांगते बनती ही नहीं थी। नाथू दादा के कहने पर मैंने भी उसे सिखाया लेकिन उसकी बुद्धि में कुछ आया ही नहीं। मुश्किल से 10-15 रुपए कमा पाता था। नाथू दादा उसको डांटे हुए कहते भी थे कि कहां से ये कचरा आ गया है? इसे तो कोई कबाड़ी भी नहीं खरीदेगा। इसे तो मार के किसी नाले में फेंक देना चाहिए। नाथू दादा उसे मार देते लेकिन गिट्ठे भाई ने उन्हें सलाह दी कि इसका एक हाथ तोड़ दो तब लोग इस पर दया करेंगे और इसे ज्यादा भीख मिलेगी। और फिर भी नहीं मिलेगी तो इसकी आंखें फोड़ देंगे। तब नाथू दादा ने उसका एक हाथ तोड़ दिया था। वो बहुत रोया था। बहुत चिल्लाया था। हम लोग खूब हंसे थे।" उस पुराने दृश्य को याद करके गुड्डी के चेहरे पर पल भर के लिए मुस्कराहट तैर गई। जबकि वह सब सुनकर मेरा मन कांप उठा। लोग इतने क्रूर कैसे हो जाते हैं? गुड्डी या उसके जैसे और बच्चे ऐसा दृश्य देखकर कैसे हंस सकते हैं? यह तो अमानवीय है।
ये गुड्डी, ये भी तो उन्हीं में से एक है। तभी तो अपने साथ के एक बच्चे के हाथ तोड़े जाने की घटना को मजे लेकर, मुस्कुरा कर बता रही है।
"फिर उस लड़के को ज्यादा भीख मिलने लगी?" मैंने पूछा। लेकिन इसके साथ ही मुझे लगा कि मैं शायद अपने रास्ते से भटक रही हूं मुझे उसे लड़के के बारे में नहीं बल्कि गुड्डी के बारे में जानना है और मेरे पास उससे बात करने का समय कम है।
"हां पहले से तो ज्यादा कमाने लगा था लेकिन मेरे जित्ता नहीं। मैं बताऊं मैं कैसे मांगती थी?" यह कहते हुए गुड्डी ने मेरे आगे हाथ फैला-फैला कर, मेरी बाहों को पकड़-पकड़ कर मुझे पैसे मांगने शुरू कर दिए। मैं उसका अभिनय देखकर चकित रह गई। कुछ पल पहले तक जो लड़की चट्टान की तरह खामोश दिखाई दे रही थी, उसने अचानक अपना रंग बदल लिया था। वह उस समय एक बहुत ही ज़रूरतमंद लड़की लग रही थी। ऐसी लड़की जिसने चार दिन से अन्न का दाना भी न चखा हो। वह बार-बार अपने पेट पर हाथ फेर रही थी और खाना मांग रही थी।
"अरे वाह! गज़ब! तुम तो वाकई कमाल की लड़की हो!!" मैंने उससे वही कहा जो वह सुनना चाहती थी।
" नाथू दादा भी मुझसे यही कहते थे। मैं कमाल की लड़की हूं न!" गुड्डी ने फिर शान से कहा।
"लेकिन फिर टिकली कहां से आ गई?" मैं गुड्डी से पूछा।
"गिट्ठे भाई पता नहीं कहां से उसे उठा लाए थे। उसके भी हाथ-पैर तोड़कर, आंखें फोड़ कर, किसी नुक्कड़ पर बिठा दिया जाना चाहिए था।" गुड्डी के स्वर में एक अजीब क्रूरता की झलक मुझे पहली बार मिली। नौ बरस की छोटी-सी बच्ची और इतनी गहरी क्रूरता के भाव? मुझे यह महसूस करके विश्वास नहीं हो रहा था। मन सिहर उठा। मैंने एक से एक जिद्दी बच्चे देखे हैं लेकिन गुड्डी के समान क्रूर नहीं।
"कितनी बड़ी थी टिकली? तुमसे छोटी थी यह तुमसे बड़ी?" मैं गुड्डी से पूछा।
मैंने जानबूझकर टिकली का नाम लिया क्योंकि मैं समझ गई थी की टिकली का नाम सुनना गुड्डी को अप्रिय था। टिकली का नाम सुनकर उसका क्रोध जाग उठता था। वह क्रोध ही तो मुझे जगाना था ताकि गुड्डी उस अवस्था को बयां कर सके जिसमें उसने टिकली को जान से मार दिया था।
"मेरे बराबर थी, लेकिन मेरी जित्ती लंबी नहीं। नकचपटू थी। शकल की न सूरत की। नाथू दादा कहते थे कि इसको तो बेचने से भी ज्यादा पैसे नहीं मिलेंगे।" गुड्डी ने बताया। वह अपना कद ऊंचा बता रही थी जबकि वह औसत ऊंचाई की लड़की थी। शायद उसे अपने कद में अपने वर्चस्व का बोध था।
"तो टिकली से तुम्हारा झगड़ा क्यों हुआ?" मैंने पूछा।
"वो मेरी जगह लेना चाहती थी, मैं क्या उससे झगड़ती भी नहीं? मैंने उसको कई बार समझाया कि तू 100 रुपए से ऊपर मत कमाना। अगर ज्यादा मिल भी जाए तो मुझे दे देना। लेकिन वो मानती ही नहीं थी। मेरे ही चौराहे पर झपटती रहती और मुझे ज्यादा पा जाती। नाथू दादा भी उसकी तारीफ करने लगे थे। उसे पूरी थाली खाना दिया जाता। अब आप ही बताओ कि मेरे चौराहे पर अगर वो ज्यादा कमाती तो मुझे ज्यादा कहां से मिलता?" गुड्डी ने मुझसे पूछा।
"तुम सही कह रही हो। तुमने इस बारे में नाथू दादा से बात नहीं की?" मैंने उसकी बात का समर्थन करते हुए उससे पूछा। गुड्डी की बातों से इतना तुम्हें समझ गई थी कि टिकली घर से उठा कर वहां नहीं लाई गई थी बल्कि किसी और अड्डे से लाई गई थी, वरना आते ही वह गुड्डी को टक्कर कैसे देने लगती? एक अड्डे से दूसरे अड्डे बेंची-खरीदी गई थी वह टिकली नाम की बच्ची।
"मैं बोली थी लेकिन नाथू दादा की तो वह सगी हो गई थी। नाथू दादा मेरा मजाक उड़ाने लगे थे कि गुड्डी तो अब बुड्ढी हो गई। यह सुनकर मेरा खून खौल जाता। मेरा बस चलता तो उसी समय मैं उस कुतिया को काट कर रख देती।" एक बार फिर क्रोध की वही चमक गुड्डी की आंखों में तैर गई।
"तो इसीलिए तुमने उसे मार डाला?" मैं गुड्डी से पूछा।
"वह मेरा कहना मान लेती तो मैं उसे नहीं मारती। वह ज्यादा भीख कमा कर नाथू दादा की आंखों में चढ़ गई थी। उसे भरपेट भोजन दिया जाता और मेरी थाली से भोजन कम किया जाने लगा। एक टाइम तो ऐसा आया कि मुझे आधा पेट भोजन दिया जाने लगा।" गुड्डी ने बताया।
"अरे, ऐसा क्यों?" मैं आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा।
"वहां ऐसा ही था। जो 100 रुपए या उससे ज्यादा काम कर लाता उसे पूरी थाली मिलती। जो 100 रुपए से जितना कम कमाता उसे उतना ही कम खाना दिया जाता।" गुड्डी ने निर्भाव स्वर में कहा। यह उसके लिए कोई विशेष बात नहीं थी। मुझे लगा कि यह तो ग्लेडिएटर्स के जमाने की लड़ाई है। जिंदा रहने की लड़ाई भूख की लड़ाई। जो सशक्त है वह जिंदा रहे वह खाना पाएगा और जो कमजोर है वह पराजित होकर मर जाएगा और वह भी भूखे पेट। या फिर यह एक ‘हंगर वार’ भी कहा जा सकता है। भूख की एक ऐसी लड़ाई जो अमूमन अपने देश के हर चौराहे पर रोज़ लड़ी जाती है। चील-झपट्टा मारते हुए भिखारी बच्चे, जिन्हें हम देखकर झुंझलाते हैं खीझते हैं और फिर कुछ सिक्के उन्हें थमा कर सोचते हैं कि हमने बहुत बड़ी दयानतदारी दिखा दी। मैं समझ नहीं पाती हूं कि हमारे तेजी से प्रगति कर रहे शहरों के चौराहों पर भिखारी बच्चे क्यों हैं? सब उन्हें देखते हैं लेकिन उनके लिए कोई सही कदम नहीं उठाता है। चंद एनजीओ सब कुछ नहीं कर सकते हैं। फिर उनमें भी तो असली और नकली मौजूद हैं। असली कुछ काम करते हैं और नकली दिखावा करते हैं। इसीलिए हालात जहां के तहां हैं।
"और मान लो किसी दिन कोई कमा कर नहीं ला पाता तो क्या उसे खाना ही नहीं दिया जाता था?" मैं गुड्डी से पूछा।
"और क्या! उस टिकली के कारण मेरे साथ भी ये हुआ। कई बार मुझे रात को भूखा रखा गया। बरसात आई तो परेशानी और बढ़ गई । बरसात के कारण चौराहे पर लोग कम देर रुकते और जो रुकते उनसे टिकली पैसे झटक लेती। मुझे पैसे नहीं मिल पाते। तब नाथू दादा मुझे भूखा रखते। उनका तो यही नियम था कि जो जितना काम के लेगा उसको उतना खाना दिया जाएगा। कम से कम 50 रुपए रोज कमाना जरुरी था। टिकली के कारण मुझे 50 रुपए भी नहीं मिल पा रहे थे। तभी मैं सोच लिया था कि इस टिकली को अपने रास्ते से हटा के रहूंगी।" फिर वही क्रूर भाव गुड्डी के मासूम चेहरे पर कौंध गए। उसे पाल गुड्डी अपनी आयु से बहुत अधिक बड़ी लगी। किसी घाघ अपराधी की भांति।
"जिस दिन तुमने उसे मारा, उस दिन क्या तुम्हारा उससे झगड़ा हुआ था?" मैंने गुड्डी से पूछा।
"नहीं उस दिन नहीं उससे पहले।"
"कितने पहले?"
"कई दिन पहले।"
"क्यों?"
"एक तो मेरा चौराहा उसने हड़प लिया था और मुझे बुड्ढी-बुड्ढी कहकर चिढ़ाने लगी थी। उसने तो मुझे यह भी कहा था कि वो मेरे हाथ-पैर तुड़वा देगी और अड्डे से बाहर फेंकवा देगी।" गुड्डी ने मुंह बनाते हुए कहा।
"क्या वह सही में ऐसा कर पाती?" मैंने पूछा।
"हां ! वो नाथू दादा से कहती तो नाथू दादा मेरे हाथ पैर तोड़ देते और मुझे अड्डे से बाहर फेंक देते। नाथू दादा उसी की सुनने लगे थे। गिट्ठे भाई भी टिकली-टिकली करते रहते थे। उन्हें इसी बात की शान थी कि वह इतनी अच्छी भीखमंगन लेकर आए हैं।" गुड्डी ने कहा उसके स्वर में रोष झलक रहा था। उसकी बातें सुनकर मुझे लग रहा था कि मैं किसी और ही दुनिया की बात सुन रही हूं। क्या इस धरती पर, अपने देश में, अपने शहरों में सही में ऐसा हो रहा है? यक़ीन करना कठिन हो रहा था। यह सच अविश्वसनीय था और बेहद कड़वा भी।
"लेकिन कम कमाने के कारण उस लड़के का भी तो हाथ तोड़ा गया था। और तुम लोग उसे रोता-चींखता देखकर हंसे थे।" मैं गुड्डी को याद दिलाया।
"वह तो भोंदू था भोंदू। चार रुपए भी नहीं कमा पाता था।" गुड्डी सामान्य भाव से बोली। जैसे उस लड़के का हाथ तोड़ा जाना कोई उसके लिए विशेष घटना नहीं थी। गोया, वह लड़का हाथ तोड़ा जाना ‘डिज़र्व’ करता था। उफ़! यह मानवीय भावनाओं का कितना विकृत रूप है।
"लेकिन टिकली के आ जाने से तुम भी तो उस लड़के की तरह भोंदू साबित होने लगी थीं।" मैंने गुड्डी की मनोदशा को भांपते हुए सीधे उसके मन पर चोट की।
"मैं भोंदू नहीं थी।" गुड्डी ने अचानक भड़क कर कहा और मैंने देखा कि उसने क्रोध से भरकर अपनी तर्जनी के नाख़ून से मेज पर एक लकीर-सी खींच दी । जैसे किसी चाकू से मेज की धरातल पर स्क्रैच कर दिया गया हो। उसकी यह जुनूनी ताक़त देखकर मैं इस स्तब्ध रह गई।
"लेकिन वहां सबको तो यही लगता रहा होगा कि तुम भोंदू हो गई हो।" मैंने उसे और उकसाया।
"हां लगता था न! मुझे कई-कई दिन तक के भूखा रखा जाने लगा था। सब मुझ पर हंसते। सब मेरा मज़ाक उड़ाते।और वह कुतिया टिकली मुझे चिढ़ाती थी। इसीलिए तो उस दिन मैंने उसे ठिकाने लगा दिया।" किसी पेशेवर अपराधी की तरह गुड्डी ने कुटिलतापूर्वक कहा।
स्पष्ट था कि "कुतिया", “रास्ते से हटाना", "ठिकाने लगाना" जैसे शब्द गुड्डी ने अपने अड्डे पर ही सीखे होंगे, जहां नाथू दादा और गिट्ठे भाई बात-बात पर गालियां देते रहे होंगे और मार डालने की बातें करते रहे होंगे। गुड्डी तो जब दो बरस की अबोध आयु में उस अड्डे पर लाई गई होगी तब उसके दिमाग का काग़ज़ बिल्कुल कोरा रहा होगा। उस अड्डे पर उसके दिमाग के काग़ज़ पर जो कुछ लिखा गया वहीं उसकी जुबान पर चढ़ता गया। उसे यह शिक्षा भी वही मिली होगी कि जो तुम्हें पसंद नहीं है, उसे मौत के घाट उतार दो।
"तुमने कैसे मारा टिकली को?" मैं गुड्डी से पूछा। इस बारे में तारा मुझे विस्तार से नहीं बता पाई थी बस, उसने इतना ही बताया था कि इस लड़की ने अपनी हम उम्र लड़की की हत्या कर दी थी, वह भी बहुत वीभत्स तरीके से।
"तुमने कैसे मारा था उसे?" मैंने अपना प्रश्न दोहराया।
"उस दिन भी वह चौराहे पर दौड़-दौड़ कर मेरी भीख हड़प रही थी। मुझे लगा कि यदि यह इसी तरह मेरी भीख हड़पती रही तो मुझे फिर भूखा रहना पड़ेगा। तब मैंने उसे उल्लू बनाया। मैंने उससे कहा कि एक औरत ने मुझे मिठाई दी है। चल, तुझको भी खिलाती हूं। पहले तो उसे शक हुआ लेकिन मैंने अपनी फ्रॉक में लपेटा हुआ पत्थर ऊपर से दिखा दिया। उसे लगा कि वह मिठाई है और वह लालच में पड़ गई। लालची कुतिया। मैं उसे चौराहे से दूर नाले के पास ले गई। वहां मैंने उसे जमीन पर पटक कर खूब मारा। इस पर वह भी मेरे बाल नोंचने लगी। तो मुझे जोर से गुस्सा आ गया और मैंने एक पत्थर उठाकर उसके सिर पर पटक दिया। मैं तब तक उसका सिर कुचलती रही जब तक वह नागिन मर नहीं गई। मेरी फ्रॉक गीली हो गई थी उसके गंदे खून से। लेकिन मैंने उसे मार डाला।" यह कहते हुए गुड्डी के चेहरे पर विजय के भाव चमकने लगे। निश्चित रूप से उसके मानस में वह दृश्य जाग उठा होगा क्योंकि विजय के साथ एक तृप्ति का भाव भी उसके चेहरे पर झलक रहा था। कहीं कोई पछतावा नहीं। कोई अफ़सोस नहीं। मानो, जो उसने किया वह सही किया।
“फिर?” मैंने पूछा।
“किसी ने हमें देख लिया था। इसलिए वहां भीड़ लग गई। फिर पुलिस आई और पुलिस ने मुझे पकड़ लिया।” गुड्डी ने बेझिझक बताया।
"तुम्हें टिकुली को मारते हुए डर नहीं लगा था?" मैंने उससे पूछा।
"काहे का डर?" उसने उल्टे आश्चर्य प्रकट करते हुए मुझसे पूछा।
"यही कि पुलिस तुम्हें पकड़ लेगी और जेल भेज देगी।" मैंने कहा।
"उस समय इतना कौन सोचता? मैंने तो कभी जेल देखी भी नहीं थी। और अच्छा है पुलिस ने मुझे पकड़ लिया अब भरपेट खाना तो मिलता है। लेकिन पुलिस ने मुझे जेल में नहीं रखा है।" गुड्डी ने इस ढंग से कहा जैसे उसे जेल न देख पाने का मलाल हो। मुझे उससे इस उत्तर की आशा नहीं थी। ज़़िदा रहने के लिए खाना ज़रूरी है लेकिन खाने के लिए किसी से उसकी ज़िंदगी छीन लेना क्या यह भी ज़रूरी हो सकता है?
"तुम्हें नहीं लगता कि यदि तुम टिकली को नहीं मारतीं तो आज वह ज़िदा होती।" मैं गुड्डी से पूछा।
"मैं उसे नहीं मारती तो वह मुझे मार देती।" गुड्डी ने निर्णायक स्वर में कहा।
"तो अब तो तुम्हें भरपेट खाना मिलता है। अब तो तुम्हें पहले जैसा गुस्सा नहीं आता होगा? अब तो तुम किसी को नहीं मरोगी न?" मैं गुड्डी से पूछा।
"गाय से उसकी रोटी छीनो तो वह भी सींग मारती है। कुत्ते से उसकी हड्डी छीनों तो वह भी काटने लगता है। वह मुझसे मेरी रोटी छीन रही थी, तो मैंने उससे उसकी ज़िंदगी छीन ली। हिसाब बराबर।" उसने अपने दोनों हाथ झाड़ते हुए कहा।
तभी सुधार गृह का चपरासी हम दोनों के लिए कुल्हड़ चाय लेकर आ गया। गुड्डी ने लगभग झपटते हुए चाय का कुल्हड़ उठाया और गरमा-गरम चाय सुड़क-सुड़क कर पीने लगी। मैंने देखा की भूख और सलीके का आपस में कोई रिश्ता नहीं रह जाता है। उसे पता था कि यहां उसकी चाय उससे कोई छीनने वाला नहीं है लेकिन झटपट सब कुछ हलक से नीचे उतार लेने की आदत गुड्डी में रच-बस गई थी।
गुड्डी वर्चस्व का महत्व भी जानती थी। क्या बाल सुधार गृह में वह इस वर्चस्व के मोह से बाहर निकल सकेगी? या अपने विरुद्ध सर उठाने वाले का सिर कुचल देने का अपराध फिर से करेगी? इन चुनौतियों से काउंसलर्स को निपटाना पड़ेगा। वही प्रशस्त कर सकते हैं गुड्डी के जीवन का सही रास्ता।
मेरी चाय खत्म होने से पहले इंस्पेक्टर और तारा कमरे में आ गईं।
"हो गई बात?" तारा ने मुझसे पूछा।
"हां, हो गई।" कहते हुए मैंने गुड्डी के चेहरे की ओर देखा। उसका चेहरा फिर वैसा ही निर्भाव था जैसे कमरे में प्रवेश करते समय मैंने पाया था।
"आपको क्या लगता है, ये लड़की कभी सुधरेगी?" उस महिला इंस्पेक्टर ने मुझसे धीमें स्वर में पूछा।
"अभी कुछ भी कह पाना कठिन है। इसके मन में वह अपराध अभी ग्लोरिफाइड है। जब तक इसे यह अहसास नहीं होगा कि इसने जो किया वह ग़लत था, तब तक गलती दोहराए जाने की संभावना अधिक है।" गुड्डी के बारे में मुझे जो लगा वह मैंने उस इंस्पेक्टर को बताया।
"बिल्कुल ठीक! यही मेरा भी ख्याल है। आपने सही पहचाना इसे। ऐसे बच्चों को तो सुधार गृह के बजाय जेल में होना चाहिए। वह भी बड़ों की जेल में। समाचारों में देखिए न, इसी की उम्र के लड़के बलात्कार तक करने लगे हैं। जब अपराध बड़ों के जैसा हों तो सजा भी बड़ों जैसी ही मिलनी चाहिए। मुझे तो यही लगता है।" इंस्पेक्टर ने अपनी राय प्रकट की। मैं भी इंस्पेक्टर की बातों से सहमत थी लेकिन मैंने कोई टिप्पणी नहीं की। यह मामला इतना आसान नहीं था। अभी तो गुड्डी सिर्फ 9 साल की है। अभी तो पूरे 9 बरस बाकी है उसके बालिग होने में। हो सकता है तब तक वह वे सारी बातें समझने लग, जो उसे समझना चाहिए।
"अच्छा लगा आपसे मिलकर।" कहते हुए इंस्पेक्टर ने अपना दायां हाथ मेरी ओर बढ़ाया। मैंने भी उससे हाथ मिलाया।
"अभी निकल रही हैं?" मैंने इंस्पेक्टर से पूछा।
"जी! फिर कभी यहां आई तो आपसे जरूर मिलूंगी।" उसने मुझसे कहा।
" जी अवश्य! मुझे भी आपसे मिलकर खुशी होगी।" मैं इंस्पेक्टर से कहा। इसी के साथ मेरे मन में यह विचार कौंधा कि क्या गुड्डी से फिर कभी भेंट होगी?
हम सभी कमरे से बाहर निकल आए। इंस्पेक्टर की गाड़ी तैयार खड़ी थी। उसके साथ चल रहे सिपाही भी गाड़ी पर सवार हो चुके थे। गुड्डी और इंस्पेक्टर के गाड़ी में सवार होते ही ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी।
गाड़ी अभी थोड़ा आगे बढ़ी ही थी कि अप्रत्याशित रूप से गुड्डी ने खिड़की से बाहर हाथ निकाल कर मेरी ओर हिलाया। जबकि वह एक सिपाही के बाजू में बैठी थी। खिड़की से परे। मैंने भी जवाब में उसकी ओर देखकर अपना हाथ हिला दिया। बस, वही उसकी आखिरी झलक थी, इसके बाद गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई।
मैं भारी मन से वही खड़ी रही। ऐसा लग रहा था जैसे कोई परिचित अभी विदा हुआ हो। लेकिन यदि कोई मुझसे पूछे कि क्या गुड्डी को तुम अपने साथ रखना चाहेगी तो मेरा ईमानदार उत्तर होगा “नहीं!” क्योंकि शायद गुड्डी को अपने साथ रखते हुए मुझे भी इस बात की शंका बनी रहेगी कि न जाने कब गुड्डी के भीतर की अपराधिक भावना जाग उठे। यदि एक छोटी बच्ची को अपने साथ की लड़की को कुचल- कुचल कर मारते समय हाथ नहीं कांपे तो यह चिंता का विषय है। दरअसल, उसे मनोचिकित्सा की जरूरत है। उसे इस एहसास की जरूरत है कि उसने जो किया ग़लत किया। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। भले ही लड़ाई भूख की थी लेकिन पेट भरने का रास्ता किसी की मौत से होकर नहीं गुज़रना चाहिए था।
"मिल गई तुझे स्टोरी? मुझे तो बस यह बता कि यह लड़की जन्मजात क्रिमिनल है या परिस्थितिवश? मैंने तो जब सुना कि उसने अपनी साथी लड़की को किस तरह मारा, तो मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए। इतनी छोटी बच्ची और उसने इतना बड़ा अपराध किया वह भी सोच समझकर यह कैसे कर डाला उसने?" तारा ने मुझसे पूछा।
"कैसी स्टोरी? इतनी छोटी बच्ची और इतना बड़ा अपराध! इस बचपन में वह बड़ों जैसी मानसिकता के साथ जी रही है। उसका भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही मुझे अजीब लग रहा है। वह जन्म से अपराधी मानसिकता की नहीं है लेकिन अपराध की भावना ने उसके मन में जन्म ले लिया है। उसने न कभी परिवार जाना, न रिश्ते, न कभी कोई आत्मीय संबंध। उसने यदि कुछ जाना तो सिर्फ भूख को। भूख इंसान को क्या से क्या बना देती है?" मैंने तारा से कहा।
हम दोनों बहुत देर तक गुड्डी के बारे में बातें करती रहीं। फिर मैंने तारा से विदा ली और वापस अपने घर की ओर चल पड़ी।
बाल सुधार गृह जाते समय मैंने तय किया था कि मैं अब एकाग्रता से स्कूटी चलाऊंगी। लेकिन लौटते समय मुझे वह प्रयोगात्मक कहानी याद आने लगी जो मैंने मनोविज्ञान के अंतर्गत पढ़ी थी। उसे कहानी में कुछ शिशुओं को चुना गया और उनमें से कुछ को ज्ञानवान शिक्षकों के साथ रखा गया तथा कुछ को बुरी आदतों वाले चोर बदमाशों के साथ रखा गया। थोड़े बड़े होने पर देखा गया कि उन बच्चों में उसी तरह की आदतें विकसित हुईं जिस तरह के माहौल में उन्हें रखा गया था। शिक्षकों के साथ रहने वाले बच्चे अच्छी भाषा बोलने लगे थे जबकि चोर- बदमाशों के साथ रहने वाले बच्चे गाली गलौंच करने लगे थे। सचमुच बच्चों की जीवन की दिशा उनके माहौल पर निर्भर करती है। यह सब सोचते-सोचते कब चौराहा आ गया मुझे पता ही नहीं चला।
चौराहे पर रेड सिग्नल था। मुझे स्कूटी रोकनी पड़ी। वहां गाड़ियां रुकते ही भीख मांगने वाले बच्चों का एक दल तेजी से झपटा। यह दृश्य मेरे लिए कोई नया नहीं था। जब भी मैं उस चौराहे से गुज़रती हूं तो उन भीख मांगने वाले बच्चों को देखती हूं। लेकिन आज मेरा दृष्टिकोण बदल गया था मैं उन बच्चों के चेहरे को पढ़ना चाह रही थी कि कहीं उनमें भी कोई गुड्डी या कोई टिकली तो नहीं है? कल के अखबार में इनमें से किसी की खबर पढ़ने को तो नहीं मिलेगी?
अब उस चौराहे पर मैं सिर्फ़ चार रास्ते मिलते हुए नहीं देख रही थी, रंग बदलती ट्रैफिक लाई् बल्कि मैं देख रही थी उसे अदृश्य युद्ध को जो उस चौराहे पर कुछ नन्हे बच्चों के द्वारा लड़ा जा रहा था। भूख का युद्ध। इस युद्ध में किसी दिन रक्तपात भी हो सकता है, क्या यह जानते हैं उनकी हथेली पर सिक्का रखने वाले? नहीं, भूख का युद्ध लड़ने वाले भी ख़ुद नहीं जानते। सिग्नल लाल से हरे में बदल गया। मैंने अपनी स्कूटी आगे बढ़ा दी। लेकिन मेरा मन उसी चौराहे पर चस्पा होकर रह गया था। मुझे मालूम है कि कई दिन तक मेरे सपनों में गुड्डी, टिकली और वह हाथ टूटा लड़का दिखाई देते रहेंगे और मेरे चेतन और अवचेतन में मुझे बेचैन करते रहेंगे।
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