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शुक्रवार, नवंबर 04, 2022

कहानी | सोचा तो होता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | "जनसत्ता" दीपावली विशेषांक 2022 में प्रकाशित

देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्र "जनसत्ता" के वार्षिक अंक "दीपावली 2022" में अपनी कहानी "सोचा तो होता" को प्रकाशित देख कर जो प्रसन्नता हो रही है, उसे आप सब से साझा कर रही हूं। 
   🌷हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार  Mukesh Bhardwaj जी तथा Surya Nath Singh जी 🙏
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कहानी
सोचा तो होता
  - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

‘‘क्या जरूरत थी झगड़ा करने की? है!‘‘ आरती पुकारते हुए बोली उसके मन में दबी हुई चिंगारी अचानक भड़क उठी। उसे लगने लगा कि वह कृष्णा को मार- मार कर अधमरा कर दे। इस मुए ने ऐसा लांछन लगवाया है कि पिछली जिंदगी के सारे बही खाते एक बार फिर खोल कर रख दिए गए।
आज दोपहर से आरती का मन खराब हो चला था और इसका जिम्मेदार था उसका अपना बेटा कृष्णा। आरती को यूं भी आए दिन सत्रह तरह की बातें सुननी पड़ती हैं। आरती ने ब्याह के बाद जिस दिन, जिस घड़ी इस घर में पांव रखा था उसी दिन से बल्कि उससे भी पहले से उसके साथ कई ताने जुड़ गए थे। ब्याह पक्का होने के साथ ही उसे यह जता दिया गया था की आरती जैसी लड़की को अपने घर की बहू बनाने जा रहे उसके सास-ससुर देवतुल्य उदार हैं। वरना कोई भी उसे अपने घर की बहू बनाना स्वीकार न करेगा। सारे गांव समाज के साथ साथ आरती की मां और मामा भी आरती के ससुराल पक्ष के कृतज्ञ थे जिन्होंने उनके कलंकित घर की लड़की को बहू के रूप में स्वीकार किया था।
‘‘संभल के रहियो, लल्ली! कहीं यह भी अपने बाप जैसी निकली तो समझो हो गया कल्याण तुम्हारे कुल-खानदान का!‘‘ आरती की मुंह दिखाई की रस्म के समय किसी औरत ने लल्ली यानी आरती की सास को सचेत करते हुए कहा था। इस चेतावनी का स्वर इतना ऊंचा था की कम से कम आरती तो साफ-साफ सुन ही ले। कलेजा कट कर रह गया था आरती का। लेकिन वह कर ही क्या सकती थी? यह सब तो उसके भाग्य में उसके पिता ने ही लिख दिया था। वह सिर झुकाए अपने पैरों के मेहंदी रची अंगूठों को इस प्रकार आंखें गड़ाए देखती रह गई थी, जैसे दोनों अंगूठों की मेहंदी में कोई अंतर तलाश रही हो। या फिर, अंगूठे से धरती को कुरेदते हुए इतना गहरा गड्ढा कर लेना चाहती हो कि उसमें समा सके। आसान नहीं होता है सरेआम कोई लांछन सुनना और सहना। घूंघट के भीतर आरती की काजल रची आंखें आंसुओं से भर गई थीं। वह रोना नहीं चाहती थी लेकिन रोना तो उसके भाग्य में लिखा जा चुका था, कम से कम वह तो यही मानती थी।
‘‘नहीं री, भुजना की मां! यह सब घर के माहौल की बात होती है। हमारे यहां सब ठीक रहेगा।‘‘ आरती की सास ने उस औरत अर्थात भुजना की मां को ढाढस बंधा ते हुए कहा।
‘‘बुरा मत मानियो लल्ली, मगर वो कहते हैं न कि ऐसी चीजें इंसान के खून में रहती है जैसा बाप वैसे बच्चे। आखिर ये भी है तो कीरत की ही बेटी।‘‘ भुजना की मां तो मानो आरती को नीचा दिखाने की कसम खाकर आई थी। गोया आरती से उसकी कोई जाती दुश्मनी थी। आरती भुजना की मां से पूछना चाह रही थी कि तुम्हारी मुझ से क्या दुश्मनी है? क्यों मेरे पीछे पड़ी हो? यह तो ठीक था कि आरती की सास आरती का पक्ष ले रही थी भले ही अहसान जताने की मुद्रा में।
‘‘यह बात बेटों पर जाती है, बेटियों पर नहीं! बेटी तो पैदा ही होती हैं दूसरे के घर के लिए.... और फिर ऐसे घर की बेटियों का कोई उद्धार न करें तो क्या होगा इन बेचारियों का? आखिर इसमें इनका क्या दोष? यह क्यों भुगते अपने बाप के कुकर्मों को? आरती की सास ने भुजना की मां को जवाब देते हुए अपने बड़प्पन को भी बड़ी सरलता से स्थापित कर लिया।
आरती के भीतर उमड़ता घुमड़ता क्रोध और विवशता का दबाव इस तरह एकाकार हो गया की आंखों से आंसू बह निकले। घूंघट की ओट में आंसू बहाती रही।
‘‘अरे भौजी तो रो रही हैं!‘‘ पास बैठी एक बालिका का ध्यान आरती के आंसुओं की ओर गया और वह बोल उठी।
‘‘पीहर की याद आ रही होगी।‘‘ एक अन्य स्वर सुनाई पड़ा।
वैसे यह अनुमान गलत था। आरती अपने पीहर को याद भी नहीं करना चाहती थी। करें भी क्यों? उसे अपने पीहर से जीवन भर का कलंक ही तो मिला है, कोई खजाना तो नहीं मिला। मां और भाइयों ने भी झेला है उस कलंक को और झेल भी रहे हैं। काश! बापू ने ऐसा न किया होता।


मुंह दिखाई की रस्म का एक-एक पल एक एक युग के समान बीता था। उसी समय से आरती के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था कि जाने अब क्या होगा? उसके इस भय नहीं उसे अपने ससुराल में कभी सिर उठाकर जीने नहीं दिया। आरती सिर उठाती भी तो किसके भरोसे? पहली रात को ही उसके पति ने उससे यही बोला था कि तुम तो हमारा सिर नहीं फोड़ोगी न!
अपने पति से यह सुनकर आरती फफक कर रो पड़ी थी।
‘‘अरे? हम तो मजाक़ कर रहे थे। तुम तो रोने लगीं।‘‘ आरती के पति ने उसे बहलाते हुए कहा था। लेकिन आरती के मन में चुभी फांस चुभी ही रह गई थी। यह भी कोई मजाक है? उसका पति उससे मजाक न करता, बदले में उसे कानी, कुबड़ी, बदसूरत, काली-कलूटी - कुछ भी कह लेता। वह हंसकर सुन लेती। मगर ऐसा मजाक, जैसे कोई हंसिए से दिल चीर कर रख दे।
   

आरती भरसक प्रयास करती कि उसे किसी भी बात पर गुस्सा न आए, मगर वह भी इंसान है, कभी गुस्सा आ ही जाता है। एक बार उसे अपने छोटे देवर पर किसी बात पर गुस्सा आ गया था। गुस्से में आकर आरती ने अपने छोटे देवर की बांह पकड़ कर उसे झकझोर दिया था। उसका छोटा देवर उस समय 10 बरस का था। छोटे देवर ने बुक्का फाड़ कर रोते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया था, ‘‘अम्मा! बचाओ ! भौजी हमें मारे डाल रही हैं।‘‘
‘‘हाय रे! क्या हुआ? क्या हुआ रे छुटके?‘‘ आरती की सास बदहवास सी दौड़ी चली आई थी मानो आरती छोटे देवर को सचमुच मार डालेगी। बात जरा- सी थी, लेकिन देखते ही देखते तिल का ताड़ बन गई।
‘‘मेरी ही मति मारी गई थी जो मैं एक हत्यारे की बेटी को बहू बना के लाई।‘‘ आरती की सास ने विलापना और कोसना शुरू कर दिया और अपने माथे पर हाथ मारते हुए बोली, अब तो जन्म भर यही डर बना रहेगा कि यह कहीं किसी रोज हम में से किसी को निपटा न दे।
आरती रोती रही, बस रोती! कर भी क्या सकती थी वह रोने के सिवा। उसके भीतर का लावा आंसू बनकर ही निकलता था। खारा-खारा, लावे से कहीं ठंडा। किसी को भी भस्म नहीं कर सकता था। भीतर से खौलती और बाहर से रोती आरती अपने दुर्भाग्य के साथ जी रही थी कि आज उसके बेटे कृष्णा ने उसके घावों को बहुत गहरे कुरेद डाला।

‘‘तूने ऐसा क्यों किया रे कृष्णा?‘‘ आरती ने कृष्णा की दोनों बाहें पकड़कर उसे हिलाते हुए पूछा।
‘‘तो और क्या करता? उसने मुन्नी को छेड़ा था।‘‘ कृष्णा ने पलट कर जवाब दिया,‘‘ कोई मेरी बहन को छेड़े और मैं मुंह बाए देखता रहूं, मुझसे यह ना होगा।‘‘
कृष्णा का जवाब सुनकर सन्न रह गई आरती। क्या कृष्णा अपने नाना पर गया है? क्या भुजना की अम्मा ने सही कहा था कि यह सब इंसान के खून में रहता है? क्या उसके पिता का खून उसके शरीर से होता हुआ कृष्णा तक जा पहुंचा? आरती की पकड़ ढीली पड़ गई। कृष्णा आरती की पकड़ से छूटते ही घर से बाहर निकल गया। इधर आरती की आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठी। यूं उसे पता है कि अगर उसकी परिस्थितियां सामान्य होतीं तो कृष्णा की इस हरकत पर उसे गर्व होता। केवल वही नहीं, अपितु दूसरे लोग भी कृष्णा की प्रशंसा करते हुए कहते कि भाई हो तो ऐसा जो अपनी बहन के साथ छेड़छाड़ किए जाने को सहन नहीं कर सका और चार-पांच लफंगे लड़कों से अकेले ही जूझ पड़ा।
कृष्णा ने किसी और घर में जन्म लिया होता तो भी उसके इस साहस की तारीफ होती, लेकिन कृष्णा ने तो आरती की कोख से जन्म लिया है और आरती उस पिता की बेटी है जो हत्या के अपराध में आजन्म कारावास की सज़ा काट चुका है। इसलिए कृष्णा को उसके साहस पर बधाई कोई नहीं देगा बल्कि सभी यही कहेंगे कि कृष्णा की रगों में उसके नाना का खून दौड़ रहा है। एक हत्यारे का खून।
आरती की इच्छा होने लगी कि वह उसी समय अपने पिता के पास जाए और उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? क्या उसे एक पल को भी अपने बच्चों का ख्याल नहीं आया?
वैसे आरती को सब कुछ पता है। उसे पता है कि उसके पिता ने फुग्गन की हत्या क्यों की थी। फिर भी उसे क्षोभ है अपने पिता के कृत्य पर। इसलिए नहीं कि उसके पिता ने अपराध किया बल्कि इसलिए कि उसके पिता के इस कर्म की सज़ा उसे भी भुगतनी पड़ रही है।
बुरा समय शायद वहीं से शुरू हुआ जब से आरती के बापू कीरत और फुग्गन में दोस्ती आरंभ हुई। कहने को दोस्ती थी किंतु इसके पीछे सच्चाई कुछ और ही थी। आरती की मां सुखबाई को फुग्गन फूटी आंखों नहीं सुहाता था। उसने कीरत को इस बारे में चेताया भी था। यूं तो फुग्गन की नीयत पर कीरत को भी शंका थी। फिर भी कीरत अनदेखी करता रहा आखिर फुग्गन रसूख वाला आदमी था। किरत फुग्गन को आसानी से नहीं टाल सकता था। इसलिए उसने फुग्गन को टोंकने के बजाय अपनी बीवी सुखबाई को सचेत कर रखा था कि वह फुग्गन के सामने न निकला करें। सुखबाई को कौन- सी अटकी थी कि वह फुग्गन के सामने आती। वह तो स्वयं फुग्गन से डरी-डरी रहती थी। उसे केवल अपनी ही नहीं बल्कि अपनी दोनों बेटियों आरती और भारती की अस्मत की भी चिंता थी। हैवान आदमी का क्या भरोसा ऐसे आदमी औरतजात की उम्र नहीं देखते।
अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसीँमजाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर भाभी का बना रखा था। उसने टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन का सगर फोड़ने की नौबत आ गई। हुआ यह कि कीरत की अनुपस्थिति में आ टपका फुग्गन। पहले आंगन में बिछी चारपाई पर पसर गया। फिर उसने सुखबाई को आवाज देकर उससे पीने को एक गिलास पानी मांगा। उस समय घर पर न तो दद्दा थे और न बच्चे। दद्दा रिश्तेदारी में गए हुए थे और बच्चे बाहर कहीं खेल में मस्त थे। अब सुखबाई पानी के लिए मना कर नहीं सकती थी अतः झक मारकर सुखबाई को ही पानी लेकर फुग्गन के सामने आना पड़ा। उसने पानी का गिलास पकड़ने के बदले, सुखबाई की बांह पकड़ ली। उसने सुखबाई की अस्मत लूटने की कोशिश की। सुखबाई की चींख-पुकार के कारण फुग्गन अपने इरादे में सफल तो नहीं हो पाया, लेकिन सुखबाई दहशत से देर तक थर-थर कांपती रही। उसकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। अपमान और भय का मिलाजुला प्रभाव सुखबाई को गार रहा था।
जब कीरत घर आया तो सुखबाई उसे रोती हुई मिली। सुखबाई की हालत देखकर कीरत आपे से बाहर हो क्या और उसी समय चल पड़ा फुग्गन को खोजने। सुखबाई ने उसे रोकने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास आग में घी का काम कर गया था।
सुखबाई को बाद में खुद कीरत ने बताया था कि फुग्गन को देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव और पास में पड़ी कुल्हाड़ी उठाकर फुग्गन के सिर पर दे मारी। उस क्षण उसने सोचा भी नहीं था कि उसके हाथों एक हत्या होने जा रही है। उसने तो यह भी नहीं देखा था कि कुल्हाड़ी की धार किधर है?  संयोगवश कुल्हाड़ी की धार उल्टी थी, मगर उसकी कुल्हाड़ी का वार पड़ते है फुग्गन धराशयी हो गया था। उसने तत्काल दम तोड़ दिया था। यद्यपि कीरत को बहुत देर बाद थाने में पता चला था कि फुग्गन ने उसी समय दम तोड़ दिया था। सुखबाई को इस घटना का पता उस समय चला, जब गांव का ही एक आदमी दौड़ा- दौड़ा आया और उसने हांफते-हांफते बताया था कि कीरत पुलिस चौकी में है क्योंकि उसने फुग्गन को मार डाला है। यह सुनकर सन्न रह गई थी सुखबाई। हे भगवान ! यह क्या कर डाला कीरत ने। वह एक बार फिर थरथर कांपने लगी थी।
कीरत का मुकदमा बना उधार के लेनदेन के कारण हुई हत्या का। फुग्गन के परिवार वालों के वकील ने कहा कि पीड़ित ने फुग्गन से बड़ी रकम उधार ली थी। जब फुग्गन ने वह रकम वापस मांगी तो कीरत ने उसकी हत्या कर दी। कीरत ने भी सुखबाई वाले मामले को दबा रहने दिया। आखिर जोरू की इज्ज़त घर की इज्ज़त होती है। लोग तो यही मान बैठेंगे कि सुखबाई अपनी इज्जत नहीं बचाई बचा पाई। इससे बेटे-बेटियों का भविष्य भी चौपट हो जाएगा । ना कोई बहू देगा ना कोई बेटी लेगा। फिर भी उंगली उठाने वालों की कहीं कोई कमी होती है भला? तब कीरत  को कहां पता था की वह लाख प्रयत्न कर ले लेकिन उंगली उठाने वालों की उंगलियां वह नहीं रोक सकेगा। आजन्म कारावास की सज़ा भी उसके किए के परिणाम को बदल नहीं सकेगी। यह बात उसके छोटे बेटे सूरत की शादी के समय और भी स्पष्ट हो गई थी।
यह सारी बातें आरती को उसकी मां सुखबाई ने उस दिन स्वयं बताई थी, जिस दिन आरती पहली बार रोती हुई स्कूल से घर आई थी और चिल्लाने लगी थी कि ‘‘हमें नहीं जाना स्कूल। वहां सब लोग हमारी हंसी उड़ाते हैं। सब हमें हत्यारे की बिटिया कहते हैं, ऐसा क्यों किया बापू ने?’’
तब मां ने उसे उसके बापू की सच्चाई बताई थी किंतु आरती उस समय न तो समझ सकती थी और न समझ सकी। उसका स्कूल जाना अवश्य छूट गया। आरती स्कूल जाए या न जाए किसी को इस बात की चिंता नहीं थी। चिंता थी तो आरती के ब्याह की। नाते-रिश्तेदार भी यही सोचते थे कि ऐसे घर की लड़की को कोई अपनाएगा नही?
गांव में तो ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। शौच के लिए घर से बाहर निकली औरतों की अस्मत लूट ली जाती है या फिर सूने घर में घुस कर औरतों की देह को रौंदा जाता है। बात-बात पर हंसिए-दरांते और कुल्हाड़ियां चल जाती हैं। ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग अपना विवेक खो बैठते हैं। हर घटना का सार-समाचार होता है-‘‘आपसी रंजिश के चलते फलां ने फलां को मारा।’’ इसके पीछे का सच भला कौन टटोलता है? कोई नहीं! गांववाले भी नहीं!
कीरत सरकार की कृपा से सज़ा पूरी होने से पहले ही ज़ेल से छूट गया था, मगर उसके छोटे बेटे सूरत ने अड़ियल रवैया अपनाते हुए स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि उसके होने वाले ससुर नहीं चाहते हैं कि उसके बापू विवाह के समय घर पर रहें। इसलिए बेहतर है कि वे तीरथ पर चले जाएं।सूरत के बड़े भाई मूरत की घरवाली यानी सूरत की भौजी ने भी इसका समर्थन किया था। आरती भी अपने भाई और भौजी के पक्ष में जा खड़ी हुई थी।कीरत को जब इस बात का पता चला तो वह खून के आंसू रो दिया। उसने अपने बच्चों की इच्छााओं का ध्यान रखते हुए अपने दिल पर पत्थर रख लिया और तय किया कि वह तीरथ यात्रा पर चला जाएगा। सुखबाई भी अब अकेली क्या करती? कीरत को उसके बहू-बेटों ओर बेटी ने नई सज़ा सुना दी थी लेकिन इस बार सुखबाई इस नई सज़ा में अपने पति का साथ देने सुखबाई भी हो ली। दोनों ने अपनी गठरी-मोठरी बांध ली।
‘‘अम्मा तुम क्यों जा रही हो? तुम्हारे यहां होने से किसी को परेशानी नहीं है।’’ आरती ने झिझकते हुए सुखबाई से कहा थां। मूरत ने भी आरती की बात का समर्थन किया था। मगर सुखबाई नहीं मानी। आरती के मन में उस समय चोर आ बैठा था। वह चाहती थी कि अम्मा न जाएं। जाना है तो बापू ही जाएं। सबको बापू के रहने से परेशानी है, अम्मा के रहने से नहीं। मगर सुखबाई तो न जाने किस मिट्टी की बनी थी।
‘'मैंने और तुम्हारे बापू ने अलग-अलग रह कर बहुत सज़ा काट ली। अब जरा साथ-साथ रह कर भी सज़ा काट लें।’’ बड़ा चुभता उत्तर दिया था सुखबाई ने।
अम्मा का उत्तर सुन कर आरती के मन में कड़वाहट भर गई थी। बापू के लिए ऐसा ही दर्द का तो बापू को हत्या करनेे से क्यों नहीं रोका था?
सुखबाई और कीरत तीर्थ यात्रा पर चले गए। सूरत का विवाह धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। आरती अपनी ससुराल लौट आई। आरती ने अपने भाई की शादी में जी भर कर ढोलक बजाई थी। कृष्णा अपने मामा की बारात में खूब नाचा था। मुन्नी भी साथ गई थी। उसने भी ढोलक पर गाने गाए थे अपने मामा की शादी पर।
यूं तो मुन्नी साधारण नैन-नैक्श की थी लेकिन आवारा लड़कों को इससे क्या? उनके लिए तो मुन्नी का लड़की होना ही पर्याप्त था।
ज़रूर छेड़ा होगा उन लड़कों ने मुन्नी को, वरना कृष्णा उनसे यूं झगड़ा नहीं करता। आरती इतना सोच कर ही सकपका गई। उसे अपनी वह बात याद आ गई जो उसने अपनी मां को ताना मारते हुए कही थी-‘‘अच्छा!! हमारे पीछे तो कोई नहीं आता है, तुम्हारे पीछे फुग्गन क्यों पड़ा था?’’ बेटी आरती ने अपनी सच्चरित्रता को स्थापित करते हुए सुखबाई के चरित्र पर कीचड़ उछाल दिय था।
अब क्या यही बात वह अपनी बेटी मुन्नी से कह सकती है? उसी पल आरती को अपनी मां की परिस्थिति, पिता के क्रोध की सीमा और उनके द्वारा किए गए अपराध का औचित्य खुल कर सामने आ गया। दोष तो उसके बापू कीरत का भी नहीं था, यह बात आज उसकी समझ में आई। मगर अब हो भी क्या सकता था, उसकी अम्मा और बापू तो एक और सज़ा भुगतने घर से जा चुके थे। जबकि आरती और उसका बेटा एक अलग तरह की सज़ा काट रहे थे, जिसके मूल में एक ही बात थी कि -‘‘कृष्णा भी अपने नाना की तरह किसी दिन किसी की हत्या न कर दे।’’
‘‘हे भगवान, कृष्णा ऐसी गलती मत करना। मैं जीवन भर हर महीने पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगी, देवी मैया! तुम कृष्णा की रक्षा करना!’’ आरती बाहों में सिर दे कर सुबकने लगी।
कौन जानता था कि भावावेश में उठाया गया एक कदम इतने निर्दोष लोगों को जीवन भर कोई न कोई सज़ा भुगतने को विवश कर देगा।
आरती का मन चीत्कार कर उठा, ये सज़ा ओर कब तक भुगतनी पड़ेगी? वह आज भी अपने बापू को झकझोर कर कहना चाहती है कि कम से कम एक बार सोचा तो होता।
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