समकालीन कथा यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Journey Of Contemporary Hindi Story By Dr (Miss) SHARAD SINGH
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गुरुवार, दिसंबर 09, 2021
मेरी सुखद स्मृति | मैं और मेरी मां | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
सोमवार, दिसंबर 06, 2021
एक ज़रूरी कहानी | 3 | यूकेलिप्टस और दूब | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
रविवार, दिसंबर 05, 2021
एक ज़रूरी कहानी | 2 | झींगुर और वह | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
शुक्रवार, दिसंबर 03, 2021
एक ज़रूरी कहानी | 1 | चींटा और पौधा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
गुरुवार, अगस्त 12, 2021
बेताल, मैंड्रेक और फ्लेश गॉर्डन कभी भुलाए नहीं जा सकते - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
रविवार, मई 30, 2021
शिखंडी | उपन्यास | डॉ शरद सिह | दैनिक प्रजातंत्र में प्रकाशित उपन्यास अंश
हार्दिक धन्यवाद दैनिक #प्रजातंत्र🙏
अपनत्व मित्र मंडली | कहानी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक नेशनल एक्सप्रेस में प्रकाशित
मंगलवार, फ़रवरी 16, 2021
तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला | कहानी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह
Tum Pr Vasan Kyon Nahi Aaya Ela, Story by Dr. (Miss) Sharad Singh
कहानी
तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कामदेव ! क्यों सचमुच ऐसी ही गोलमटोल काया और छोटे-छोटे पंखों वाला
होता है, कितना नुकीला है इसका बाण ! इला
ने हथेली पर रखे हुए डेढ़-दो इंच
के कामदेव की ओर देखते हुए सोचा । क्रिस्टल के इस पारदर्शी कामदेव के आरपार भी देखा जा
सकता है । इला ने कामदेव के बारे में इससे पहले
कभी इस प्रकार से नहीं सोचा था ।
यह कामदेव कितना ही
प्यारा और सुंदर क्यों न हो लेकिन उदय को यह कामदेव उपहार के रूप में इला
को नहीं देना चाहिए था । आखिर किसी अविवाहिता को ऐसा उपहार नहीं दिया जाना चाहिए, वह
भी किसी सहकर्मी द्वारा । वह इसे वापस कर देगी । इला
ने सोचा ।
‘इला, मेरी कमीज़ कहां है ? ज़रा देखना तो !’ भाई की आवाज़ सुन
कर इला हड़बड़ा गई। उसके मन के चोर ने उससे कहा, जल्दी छिपा इस कामदेव को, कहीं
भैया ने देख लिया तो? ‘तुम्हारी
भाभी जाने कब सीखेगी सामान को सही जगह पर रखना, उफ ! ’... और भैया सचमुच इला
के कमरे के दरवाज़े तक आ गए । इला ने कामदेव को झट से अपने ब्लाउज़ में छिपा लिया
।
‘आप नहाने जाइए,मैं शर्ट निकाल देती हूं ।’ इला उठ खड़ी हुई
। यद्यपि कामदेव का नुकीला बाण उसके वक्ष में चुभ रहा था ।
भैया का हो-हल्ला
मचाना इला के लिए कोई नई बात नहीं है । बिला
नागा प्रतिदिन सवेरे से यही चींख-पुकार मची रहती है । भाभी लड़कियों
के स्कूल में
पढ़ाती हैं । उनकी सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी रहती है । वैसे सच तो ये है कि भाभी ने
जानबूझ कर सुबह की शिफ्ट में अपनी ड्यूटी लगवा रखी है । इससे घर के कामों से बचत
रहती है । भैया इतने लापरवाह हैं कि वे अपने सामान भी स्वयं नहीं
सम्हाल पाते
हैं । लिहाज़ा, घर सम्हालने से ले
कर भैया के समान सम्हालने तक की जिम्मेदारी इला
पर रहती है । इला को अपनी इस जिम्मेदारी पर कोई आपत्ति भी नहीं है । वह अब
तक में जान चुकी है कि दुनिया में हर तरह के लोग
रहते हैं । भैया और भाभी भी ऐसे ही दो अलग-अलग प्रकार के व्यक्तित्व हैं ।
‘या रबबा ! तू कैसे
सब मैनेज कर लेती है ? भैया-भाभी
की गृहस्थी भी सम्हालती है और दफ्तर भी समय पर पहुंच जाती है ... कमाल करती है तू तो !’ सबरजीत कौर अकसर इला
से कहा करती है । विशेष रूप से उस दिन जिस दिन सबरजीत कौर को दफ्तर पहुंच ने में
देर हो जाती है । सबरजीत कौर को अकसर देर हो जाया करती है । वह अपने पति, बच्चों
और सास-ससुर के असहयोग का रोना रोती रहती है ।
‘काश ! तेरे जैसी
ननद मुझे मिली होती तो मैं तो उसकी लाख
बलाएं लेती ! ’ प्रवीणा शर्मा को इला
की भाभी से ईर्ष्या होती और वह अपनी इस ईर्ष्या को सहज भाव से इला
के आगे व्यक्त भी कर दिया करती।
‘तुझे क्या अपनी
गृहस्थी नहीं बसानी है इला?’ लेकिन साथ में वे इला
से यह भी पूछती रहतीं ।
‘करूंगी अलग
से गृहस्थी बसा कर? भैया-भाभी
की गृहस्थी भी तो मेरी ही गृहस्थी है ।’ इला शांत भाव से उत्तर देती ।
हां ! अब इस उम्र
में तो यही सोच कर संतोष करना होगा ।’ इला
से चिढ़ने वाली कांता सक्सेना मुंह बिचका कर कहती । कांता सक्सेना की टिप्पणी सुन कर बुरा नहीं लगता
इला को । आखिर
शराबी पति की व्यथित पत्नी की टिप्पणी का क्या बुरा मानना ? यूं भी इला
के मन में कभी अपनी निजी गृहस्थी बसाने का विचार दृढ़तापूवर्क
नहीं आया । जब वह किसी के विवाह समारोह में जाती तो उसे लगता
कि अगर उसकी शादी होती तो वह भी इस दुल्हन की तरह सजाई जाती .... लेकिन
विवाह समारोह से वापस घर आते तक उसे भैया-भाभी की गृहस्थी ही याद रह जाती ।
भैया-भाभी की
गृहस्थी की जिम्मेदारी किसी ने उस पर थोपी नहीं थी वरन् इला
ने स्वत: ही अपने ओढ़ ली थी । अब कोई जिम्मेदारी ओढ़ना ही चाहे तो
दूसरा क्यों मना करेगा ? भाभी
ने कभी मना नहीं किया । संभवत: उन्होंने कई बार मन ही मन प्राथर्ना भी की हो कि इला
के मन में शादी करने का विचार न आए । इला चली जाएगी तो उनकी बसी-बसाई गृहस्थी की चूलें
हिल जाएंगी
। वे तो इस घर में आते ही आदी हो गई थीं इला की मदद की । इला
को भी लगता है कि उसकी भाभी उसकी मदद की बैसाखियों के बिना एक क़दम
भी नहीं चल सकती
हैं ।
भाभी तो भाभी-भैया
को भी इला के सहारे की जबदर्स्त आदत पड़ी हुई है । भैया इला
से चार साल बड़े
हैं लेकिन इला ने छुटपन में जब से ‘घर-घर’ खेलना
शुरू किया बस, तभी से भैया इला पर निर्भर होते चले
गए । जब किसी व्यक्ति के नाज़-नखरे उठाने के लिए
मां के साथ-साथ बहन भी तत्पर हो तो परनिर्भरता का दुगुर्ण भैया में आना ही था । कई
बार ऐसा लगता गोया इला छोटी नहीं अपितु बड़ी बहन हो । भैया ने इला
की शादी के बारे में कभी गंभीरता से विचार नहीं किया । पहले
भैया पढ़ते रहे फिर नौकरी पाने की भाग-दौड़ में जुट गए । नौकरी मिलते
ही भैया की शादी कर दी गई । इला के बारे में कोई सोच पाता इसके पहले मां
का स्वगर्वास हो गया । मां के जाने के बाद भैया इला
में ही मां की छवि देखने लगे और रिश्तेदारों ने इस विचार से इला
की शादी की चर्चा खुल कर
नहीं छेड़ी कि कहीं उन्हें ही सारी जिम्मेदारी वहन न करनी पड़ जाए । आखिर लड़की
की शादी कोई हंसी-खेल नहीं
होती है, दान-दहेज में भी हाथ बंटाना होता है !
अपनी इस स्थिति के लिए
भला किसे दोष दे इला ? इला को दोष देना आता ही नहीं है। वह खुश है
अपनी परिस्थितियों के साथ ।
जाने क्यों उदय को इला का अकेलापन
नहीं भाता है । वह अपने साथ के द्वारा इला
के इस अकेलेपन को भर देना चाहता है । जब से उदय स्थानान्तरित हो कर इला
के दफ्तर में आया है, तभी से वह इला के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया । इला
उदय के बारे में अधिक नहीं जानती है और न उसने
कभी जानना चाहा किन्तु उदय ने थोड़े ही समय
में इला के बारे में लगभग सब कुछ जान लिया
। इला को इस बात का अहसास तब हुआ जब एक दिन उदय ने इला के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा - ‘ इला
जी, आपके बारे में अगर आपके भैया-भाभी ने नहीं सोचा तो आपको
चाहिए कि आप स्वयं अपने बारे में सोचें । ’
‘मैं समझी नहीं आपका
आशय ? ’ इला
सच मुच नहीं समझ पाई थी कि उदय क्या करना चाहता है । उसे अनुमान नहीं था कि
उदय उसके बारे में दिन-रात सोचता रहता है ।
‘मेरा मतलब यही
है कि आपको घर बसाने के बारे में स्वयं विचार करना चाहिए । आप आत्मनिर्भर हैं और
ऐसा कर सकती हैं ।’ उदय ने कहा था और मौन
रह गई थी इला ।
अब कल शाम को दûतर
से निकलते समय उदय ने उसे छोटा-सा पैकेट पकड़ाते हुए कहा था, ‘ यह
आपके लिए ! वसंत के आगमन पर ! प्लीज़ मना मत करिएगा । ’
घर आ कर इला
ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर के धड़कते दिल पर काबू पाते हुए उस पैकेट को खोल कर देखा । क्रिस्टल का बना हुआ एक नन्हा-सा कामदेव था पैकेट
में । भौचक रह गई थी इला । प्रथम दृष्टि में उसे उदय की ये हरकत
बुरी लगी....बहुत बुरी। किन्तु रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे
उसने उदय के बारे में गंभीरता से सोचा तो
उसे लगा कि उदय को क्षमा
किया जा सकता है। लेकिन क्या उसके संकेत को स्वीकार किया जा सकता है जो संकेत
उसने क्रिस्टल
के कामदेव दे कर किया है ? वह तय
नहीं कर पाई । रात को नहीं, सवेरे भी नहीं ।
इला
ने घर के काम जल्दी-जल्दी निपटाए और तैयार हो कर दफ्तर के लिए
निकल पड़ी
। दफ्तर से एक चौराहे पहले ही उदय
मिल गया
जो इला की प्रतीक्षा कर रहा था ।
‘इला
रूको !’ उदय ने इला
को रूकने का संकेत करते हुए आवाज़ दी । इला ने अपनी मोपेड रोक दी ।
‘आप यहां क्या कर
रहे है ? ’ इला
ने उदय से पूछा ।
‘तुम्हारी प्रतीक्षा
! मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारा क्या जवाब है ? ’ उदय ने उतावले
होते हुए पूछा।
‘जवाब ?’ इला
ने अनजान बनते हुए कहा ।
‘हां, क्या जवाब है
तुम्हारा ? ’
उदय अधीर हो उठा ।
‘लेकिन
फिर भी मैं कह रही हूं कि उम्र के जिस पड़ाव में हम हैं वहां किशोरों के उपहार मन
गुदगुदा तो सकते हैं किन्तु ठोस निर्णय नहीं करने में मदद नहीं कर सकते हैं । इस
उम्र में जीवन का हर निर्णय ठोस निर्णय होता है और वह किसी मेज पर आमने-सामने बैठ कर, गंभीरतापूवर्क चर्चा कर के ही लिया
जा सकता है । समझ रहे हैं न आप !’ इला ने पूरी गंभीरता के साथ कहा ।
उदय को इला से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी । वह अवाक्
रह गया । उसने तो दो ही प्रतिक्रियाओं की आशा की थी कि या तो इला
नाराज़ हो जाएगी और उसे बुरा-भला कहेगी या फिर हंस कर उसके मुजबंध स्वीकार कर लेगी
।
दफ्तर पहुंचते-पहुंचते
इला को लगने लगा
कि कहीं उसने उदय के साथ आवश्यकता से अधिक कठोरता तो नहीं बरत दी? यदि इला
के पर वसंत नहीं आया तो इसमें उदय का क्या दोष? अपने-आप पर झुंझलाती हुई इला
को लगा कि अगर वह इसी प्रकार सोच-विचार करती हुई अपनी कुर्सी पर
बैठी रहेगी तो दूसरे लोग उसकी प्रसाधन-कक्ष में उससे तरह-तरह के
सवाल करने
लगेंगे । वह कुर्सी से उठ कर प्रसाधन-कक्ष की ओर चल पड़ी ।
प्रसाधन-कक्ष में
पहुंचते ही इला का दर्पण में खुद से आमना-सामना हो गया । उसे ऐसा लगा
जैसे उसका प्रतिबिम्ब उससे पूछ रहा हो, ‘तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला ज़रा
सोचो ! वसंत तो किसी भी इंसान पर कभी भी आ जाता है फिर तुम पर क्यों नहीं ...? ’
पसीना-पसीना हो उठी,
इला । उसे अपना प्रतिबिम्ब अपरिचित लगने
लगा ...संभवत: प्रतिबिम्ब पर वसंत पूरी तरह आ चुका था जबकि इला
के मन में पतझर के सूखे पत्ते बुहार कर बाहर फेंके जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
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शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2021
टीवी चैनल आज तक के बुक कैफे में मेरे उपन्यास शिखण्डी पर चर्चा - डॉ शरद सिंह
प्रिय ब्लॉगर साथियों,
देश के चर्चित टीवी चैनल 'आजतक' के साहित्यिक कार्यक्रम BookCafe 'साहित्य तक' में 'आजतक' के साहित्यमर्मज्ञ, समीक्षक जयप्रकाश पाण्डेय जी ने बहुचर्चित पांच क़िताबों में मेरे उपन्यास 'शिखण्डी' पर भी विस्तृत चर्चा की है। इस पूरी प्रस्तुति को आप यू ट्यूब की इस लिंक पर देख सकते हैं -
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बुधवार, जनवरी 27, 2021
शिखण्डी उपन्यास | समीक्षा | समीक्षक शैलेंद्र शैल | सामयिक सरस्वती | उपन्यासकार शरद सिंह
रविवार, जनवरी 24, 2021
छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | कहानी संग्रह - बाबा फ़रीद अब नहीं आते
Chhutki, Dhoop Ke Tukade Aur Samvidhan - Story of Dr (Miss) Sharad Singh |
कहानी
छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
यूकेलिप्टस की डालियां हवा में धीरे-धीरे डोल रही थी। जिसके कारण आंगन में फैले धूप के टुकड़े-टुकड़े फुटकते हुए प्रतीत हो रहे थे। सात बरस की छुटकी को धूप के टुकड़ों को इस तरह फुदकते हुए देखना अच्छा लगता था। उस समय ये धूप के टुकड़े उसके काल्पनिक दोस्त बन जाते और छुटकी का मन भी उन्हीं धूप के टुकड़ों के साथ फुदकने लगता। अम्मा के पास इतनी फ़ुर्सत कभी नहीं रहती कि छुटकी का ध्यान रख सके। वह तो जब स्कूल जाने का समय होने लगता है तब अम्मा को छुटकी की सुध आती है।
‘‘चल री, पढ़ाई बंद कर और जल्दी से सपर-खोर ले। नें तो देरी हो जे हे।’’ अम्मा आवाज़ देती और छुटकी धूप के टुकड़ों का साथ छोड़कर झटपट उठ बैठती। जब वह चार बरस की थी तभी से उसने अपने हाथों नहाना-धोना सीख लिया था। अब तो कंघी -चोटी भी खुद ही कर लेती है। दरअसल, जब वह चार वर्ष की थी तभी अम्मा ने उसकी तीसरी बहन को जन्म दिया था। अम्मा की तबीयत दो-तीन माह ख़राब रही। उसी दौरान छुटकी में एक विशेष प्रकार की समझदारी आ गई। वह अपना काम तो निपटा ही लेती बल्कि अपनी छोटी बहन ननकी के बालों में भी कंघा फेर दिया करती। भले ही उसके इस अबोध प्रयास में ननकी के सिर की कोमल त्वचा खुरच जाती और ननकी बुक्का फाड़कर रोने लगती। ननकी का रुदन सुनकर अम्मा बिस्तर पर पड़ी-पड़ी चिल्ला उठती। छुटकी ननकी को चुप कराने जुट जाती। ज़िम्मेदारियों के बोझ तले छुटकी का बचपन कहीं दब-कुचल गया होता अगर इन धूप के टुकड़ों का साथ उसे न मिला होता।
स्कूल से लौटने पर उसे चाय बनानी पड़ती। अम्मा को चाय का प्याला देने के बाद बसी में चाय डाल-डाल कर ननकी को पिलानी पड़ती। ननकी जब सुड़प-सुड़प की आवाज़ें करती हुई चाय पीती तो छुटकी को उस पर बड़ा लाड आता। वह सोचने लगती कि यदि धूप के टुकड़े भी चाय पीते होते तो इसी प्रकार की आवाजें करते। उसकी यह बचकानी कल्पना उसे अजीब-सा सुख देती। तरह तरह के विचार उसके नन्हे मस्तिष्क में कौंधते रहते। कभी-कभी वह सोचती कि जब बादल की छाया को ‘बदली’ कहते हैं तो आदमी की छाया को ‘अदली’ क्यों नहीं कहते? अपने ऐसे सवाल जब कभी वह अम्मा से पूछ बैठती तो अम्मा झुंझलाकर कहती-‘‘मोय नाय पतो। अपनी मैडम जी से पूछ लइयो।’’
मैडम जी से पूछने की कभी हिम्मत नहीं हुई। अब कल की ही बात है मैडम जी ने बताया कि कल 26 जनवरी है। कल गणतंत्र दिवस मनाया जाएगा। छुटकी के मन में सवाल जागा कि ये गणतंत्र क्या होता है? वह मैडम जी से पूछना चाहती थी किंतु उसे लगा कि वह मैडम जी से पूछेगी तो वे उसे मारेंगी नहीं तो डांटेंगी ज़रूर। मैडमजी छुटकी की पट्टी पर बैठने वाली शालू को डांट चुकी है-‘‘बहुत पटर पटर करती हो, चुप बैठो।’’
शालू तो फिर भी पटर-पटर करती रहती मगर छुटकी की बोलती पूरी तरह बंद रहती है। मैडमजी के कक्षा में प्रवेश करते ही छुटकी की जुबान तालू से जा चिपकती है।
‘‘काय री छुटकी, स्कूल जाने के नाय? काय कितने बजे पहुंचने हैं?’’ अम्मा ने हाथ-मुंह धोती छुटकी को आवाज़ लगाई।
‘‘सात बजे लों पहुंचने है अम्मां।’’ छुटकी ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया। फिर छुटकी भीतर की ओर दौड़ पड़ी। उसने अपना गणवेश निकाला। स्कर्ट की दशा तो फिर भी ठीक थी किंतु कमीज की दशा देखकर छुटकी रुंआसी हो गई। मैडमजी ने कहा था कि सभी को धुली हुई, प्रेस की हुई ‘ड्रेस’ पहन कर आना है। कोई अगर कुछ बोलना चाहे- जैसे कविता, भाषण आदि तो बोल सकता है। फिर बूंदी बटेगी और फिर सब परेड ग्राउंड जाएंगे। कविता और भाषण क्या होते हैं, छुटकी को ठीक-ठीक पता भी नहीं है। भाषण तो शायद वही होता है जो प्राचार्य जी बोला करते हैं। वह भला छुटकी कैसे बोल सकती है? रहा सवाल कविता का, तो उसे एक ही कविता आती है-‘‘मछली जल की रानी है...’’। दूसरी कोई कविता उसे अब तक ठीक से याद नहीं हुई। यह कविता भी उसे इसलिए याद हो गई क्योंकि उसने कई-कई बार कल्पना की है कि यदि वह भी मछली होती तो छुटकी नहीं बल्कि ‘रानी’ कहलाती। छुटकी अपनी बहनों में सबसे बड़ी होकर भी अपनी बित्ता भर की कद-काठी के कारण छुटकी कहलाती है। उसने एक बार अपनी अम्मा से कहा भी था,‘‘हमाओ नाम रानी रख देओ।’’
‘‘अपने बापू से कहियो। बेई तो लिवा ले गए रहे स्कूल। पढ़बे की न लिखबे की, बाकी स्कूल के नाम से जी चुराबे खों खूबई मिल जाता है।’’ अम्मा ने हुड़क दिया था।
छुटकी सकपका कर चुप हो गई थी। लेकिन मन ही मन उसने तय कर लिया था कि जब वह अम्मा जितनी बड़ी हो जाएगी तो अपना नाम छुटकी से बदल कर रानी रख लेगी।
शायद आज पता चल जाएगा कि गणतंत्र क्या है?- छुटकी ने सोचा। छुटकी ने जब से स्कूल में दाखिला लिया है, तीन गणतंत्र दिवस पड़ चुके हैं। प्रत्येक गणतंत्र दिवस पर वह सवेरे से स्कूल गई है किन्तु आज तक उसकी समझ में यह नहीं आ सका है कि यह गणतंत्र दिवस है क्या? पिछले साल गणतंत्र दिवस पर प्राचार्य जी ने बताया था कि इसी दिन संविधान लागू किया गया था पर यह संविधान क्या है? इस बार वह ज़रूर पता लगाएगी कि यह संविधान है क्या बला? छुटकी ने मन ही मन निश्चय किया और कमीज पर हथेली फेर-फेर कर सिलवटों को दूर करने का प्रयास करने लगी।
‘‘काय री छुटकी, इते का कर रई है? स्कूल नई जाने का?’’ अम्मा ने छुटकी को चेताया।
‘‘अम्मा, जे बुश्शर्ट....।’’ छुटकी ने सफ़ाई देनी चाही।
‘‘हौ तो, चल, जल्दी कर!’’ अम्मा ने छुटकी की बात काटते हुए कहा,‘‘चाय पी ले, चैका में उतई ढंकी धरी है।’’
छुटकी ने फटाफट स्कर्ट और कमीज पहनी। चोटियां पहले ही गूंथ चुकी थी। जल्दी से चैका में पहुंची और ननकी की तरह सुड़प-सुड़प कर के चाय पीने लगी। चाय गरम थी। बसी ढूंढने का ‘टेम’ नहीं बचा था। गरमा-गरम चाय गले से उतारते समय छुटकी की जीभ चटाक से जल गई। आंखों में आंसू छलछला आए। किन्तु स्कूल पहुंचने की जल्दबाज़ी ने उसके कष्टों की पीड़ा की कम कर दिया। चाय ख़त्म करते ही उसने अपने दाहिने हाथ की हथेली के उल्टे भाग से अपना मुंह पोंछा और अम्मा को आवाज़ देती हुई बोली-‘‘अम्मा दरवाज़ा भिड़ा लइयो!’’
‘‘तुमई भिड़ात जइयो! मोए तो इते दम मारबे खों फ़ुरसत नइयां।’’ अम्मा ने पलट कर आवाज़ दी।
छुटकी ने बाहर निकल कर दरवाज़े के पल्ले उढ़काए और स्कूल की ओर भाग चली। उसके तेज-तेज उठते पैरों के साथ-साथ उसकी हवाई चप्पलें फटर-फटर आवाज़ें करती रही थीं। चप्पलों के कारण उड़ती धूल सरसों का तेल लगे उसके पैरों पर चिपकती जा रही थी। पर छुटकी को इसकी परवाह नहीं थी। बल्कि कहना चाहिए कि छुटकी का ध्यान अपने पैरों की ओर था ही नहीं।
स्कूल के दरवाज़े पर पहुंचते-पहुंचते छुटकी की सांसें भर आईं। वह हांफने-सी लगी। स्कूल का छोटा-सा मैदान लड़कियों से भरा हुआ था। झंडे वाले खंबे पर झंडा गुड़ीमुड़ी कर के बंधा था। प्राचार्य जी जब रस्सी खींच कर जब झंडे को खोलते हैं तो उसमें से गेंदा, गुलाब और चांदनी के फूल गिरते हैं। छुटकी की तीव्र इच्छा हुआ करती है कि वह झंडे के नीचे जा पहुंचे और सारे के सारे फूल बटोर ले।
आज भी घंटा बजते ही सबकी सब लड़कियां कक्षावार पंक्ति में खड़ी हो गईं। मैडमजी लोग और प्राचार्य जी झंडे वाले खंबे के पास आ कर खड़े हो गए। प्राचार्य ने रस्सी खींची। झंडा फहराने लगा। फूल ज़मीन पर आ गिरे। सब लड़कियां जोर-जोर से ‘‘जन गण मन’’ गाने लगीं। छुटकी भी सभी के साथ होंठ हिला रही थी। किन्तु उसका ध्यान ज़मीन पर बिखरे फूलों पर केन्द्रित था। उसके हाथ उन फूलों को उठा लेने के लिए कुलबुलाने लगे। इतने में गान समाप्त हो गया। प्राचार्य जी भाषण देने के लिए आगे आए। छुटकी चैकन्नी हो गई। वह ध्यान से भाषण सुनने लगी। छुटकी को लगा कि वह यह सब तो नहले भी सुन चुकी है। शायद पिछले साल या फिर इसी साल पंद्रह अगस्त को। उसी समय उसे सुनाई पड़ा प्राचार्य जी कह रहे थे कि -‘‘संविधान का मतलब होता है नियम-क़ायदा। हमें नियम-क़ायदे से रहना चाहिए। किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।’’
तो ये होता है संविधान, छुटकी ने सोचा। उसे खुशी हुई कि उसे संविधान का मतलब पता चल गया। उसने खुश हो कर इधर-उधर देखा। मैडमजी लोग प्राचार्य जी का भाषण सुनती हुई कुछ खुसुप-पुसुर कर रही थीं। प्राचार्य जी का भाषण समाप्त हुआ। मैंडमजी ने आगे बढ़ कर कहा। सग लड़कियां अपनी-अपनी जगह पर बैठ जाएं। अब दो-तीन लड़कियां गाना गाएंगी फिर बूंदी बांटी जाएगी। छुटकी भी बैठ गई। गाना ख़त्म होते ही बूंदी बंटनी शुरू हो गई। छुटकी की हथेली जितने छोटे-छोटे पैकेट में भरी हुई बूंदी। बूंदी ले कर सब लड़कियां परेड ग्राउंड चल दीं। छुटकी को घर लौटना था। अम्मा ने सीधे घर आने को कहा था। वह घर की ओर भागी।
घर के आंगन तक पहंुचते ही उसे ननकी का रोना और भीतर से गाली-गलौज़ की आवाज़ें एक साथ सुनाई पड़ीं। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बाबू अम्मा को मार रहे थे। रोज़ मारते हैं, गालियां देते हैं। अम्मा रोती है, चिल्लाती है और कुटती-पिटती रहती हैं। दरवाज़े पर रोती खड़ी ननकी को छुटकी ने उठा कर कइयां ले लिया। वह आंगन के उस कोने में पहुंच गई जहां धूप के टुकड़े फुदकते रहते हैं। उसने ननकी को कइयां से उतार कर ज़मीन पर बिठा दिया। खुद भी बैठ गई। और बूंदी का पैकेट खोलने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी ननकी की नन्हीं हथेली पर रख दी। ननकी रोना भूल कर बूंदी की ओर ताकने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी खुद फांक ली।
बूंदी की मिठास महसूस करती हुई छुटकी सोचने लगी कि आज प्राचार्य जी ने बताया कि संविधान का मतलब होता है, हमें लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। पढ़ना-लिखना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि संविधान पढ़ने-लिखने वालों के लिए होता है, अम्मा-बाबू के लिए संविधान नहीं होता, शायद। और इन धूप के टुकड़ों के लिए? ननकी के लिए? क्या सबके लिए नहीं होता संविधान? छुटकी अपने सवालों के जाल में उलझने लगी।
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( मेरे कहानी संग्रह ‘‘बाबा फ़रीद अब नहीं आते’’ से )
मंगलवार, जनवरी 19, 2021
दैनिक जागरण, नईदुनिया के सप्तरंग परिशिष्ट में मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ की वरिष्ठ समीक्षक राजेन्द्र राव जी द्वारा की गई समीक्षा - डाॅ शरद सिंह
दिनांक 18.01.2021 को दैनिक जागरण, नईदुनिया के सप्तरंग परिशिष्ट में मेरे उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ की वरिष्ठ समीक्षक राजेन्द्र राव जी द्वारा की गई समीक्षा प्रकाशित हुई है।
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ब्लाॅग पाठकों की पठन-सुविधा हेतु प्रकाशित समीक्षा लेख जस का तस मैं यहां टेक्स्ट रूप में प्रस्तुत कर रही हूं-
"डाॅ. शरद सिंह हिंदी के उन विरल कथाकारों में हैं, जो लेखन पूर्व शोध में संलग्न होते हैं। यह कृति विरल कथासागर महाभारत से एक अनोखे चरित्र के जीवन और संघर्ष को पर्त-दर-पर्त उद्घाटित करती है, एमदम नए नज़रिए और नए अंदाज़ से।
काशी नरेश की ज्येष्ठ पुत्री अंबा और उसकी दो बहनों का अपहरण भीष्म द्वारा बलपूर्वक किए जाने के और कुरु वंश के राजकुमारों से विवाह किए जाने को सहन न करने और प्रतिकार करने के बाद वह निस्संग और निरुपाय हो कर भी अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा करती है और इसके लिए उसे किस तरह तीन जन्म और स्त्री-पुरुष दोनों के चोले धारण करने पड़ते हैं, इसका उद्देश्यपूर्ण और रोचक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। अंत होते-होते इसका वैचारिक पक्ष सघन स्त्रीविमर्श के रूप में सामने आता है जो पाठक को सहज ही स्वीकार्य हो सकता है। यूं तो शिखंडी की कथा युग-युग से सुनी जाती रही है परंतु इसे मानवीय और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से कहा जाना एक अभिनव प्रयोग है।"
- राजेन्द्र राव
दैनिक जागरण (सप्तरंग), नईदुनिया (सतरंग) साहित्यिक पुनर्नवा, 18.01.2021
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हार्दिक धन्यवाद आदरणीय राजेन्द्र राव जी 🌹🙏🌹
हार्दिक धन्यवाद नईदुनिया 🌹🙏🌹
Shikhandi Novel of Dr (Miss) Sharad Singh |