इंदौर से प्रकाशित दैनिक प्रजातंत्र में आज 30.05.2021 को मेरे उपन्यास "शिखंडी" का अंश प्रकाशित हुआ है आपसे साझा कर रही हूं ....
हार्दिक धन्यवाद दैनिक #प्रजातंत्र🙏
समकालीन कथा यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Journey Of Contemporary Hindi Story By Dr (Miss) SHARAD SINGH
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रविवार, मई 30, 2021
अपनत्व मित्र मंडली | कहानी | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | दैनिक नेशनल एक्सप्रेस में प्रकाशित
मित्रो, दिल्ली से प्रकाशित दैनिक "नेशनल एक्सप्रेस" ने आज मेरी कहानी "अपनत्व मित्र मंडली" प्रकाशित की है।
हार्दिक आभार #नेशनलएक्सप्रेस एवं हार्दिक आभार गिरीश पंकज जी 🙏
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कहानी
अपनत्व मित्र मंडल
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
‘‘हैलो, मैं सिया बोल रही हूं.... नहीं-नहीं राकेश जी, आप अपने आपको अकेला न समझें हम सभी आपके साथ हैं। खाने के पैकेट्स तो आपको मिल रहे हैं न? नहीं-नहीं, संकोच मत करिए हम सभी आपके मित्र भी हैं, भाई भी, बहन भी। हम सब आपका परिवार हैं। जो भी ज़रूरत हो निःसंकोच बताइए...।’’
‘‘दूधवाला नहीं आया! ओके मैं व्यवस्था करती हूं दूध का पैकेट भिजवाने की। आप चिंता न करें! मैं फिर कह रही हूं... आप अपने आप को अकेला महसूस न करें...हम हैं न आपके साथ।’’
लगभग पच्चीस मिनट बात हुई राकेश नामक उस व्यक्ति से जिसने चार दिन पहले ही अपनी बहन और माता-पिता को कोरोना में खोया था। हर व्यक्ति को अपना दुख सबसे बड़ा लगता है। व्यथित राकेश सिया से कह बैठा कि ‘‘आप मेरी पीड़ा नहीं समझ सकती हैं। जो अपनों को खोता है, वही जानता है कि अपनों के बिना जीना कितना कठिन होता है।’’ सिया ने राकेश को समझाया-बुझाया। लेकिन फोन बंद करते ही सिया की अपनी पीड़ा जाग उठी। उसे वह रात याद आ गई जिस रात उसके जीवन ने अकेलेपन की पहली दस्तक दी थी।
उस रात वह गहरी नींद में थी कि उसे मां ने आवाज़ दी। वह हड़बड़ा कर उठी। लाईट जलाते समय सोफे से उसके दाएं पांव का अंगूठा जा टकराया। मगर अपनी पीड़ा की परवाह न करती हुई वह मां के कमरे की ओर लपकी। उसने मां के कमरे की भी लाईट जलाई। मां अपने हाथों से अपना सीना मल रही थी और उनका चेहरा काला-सा पड़ गया था। यह देख कर सिया बौखला उठी। उसे कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करे।
‘‘कैसा लग रहा है मां? ठीक तो हैं न आप?’’ सिया ने मां के सीने पर हाथ रखते हुए पूछा।
‘‘घबराहट लग रही है। बैचेनी हो रही है। हार्टबीट भी तेज है।’’
ठीक है मां, उठो, ले पानी पियो थोड़ा। अभी सब ठीक हो जाएगा। शायद गैस्ट्रिक ट्रबल होगा।’’ सिया ने मां को सहारा दे कर बिठाया और दो घूूंट पानी पिलाया। मां की बैचेनी फिर भी कम नहीं हुई। ऐसा लगा जैसे उनकी देह शिथिल पड़ती जा रही है। यह देख सिया घबरा उठी। उसने तत्काल एम्बुलेंस के लिए फोन लगाया।
‘‘जी, इस पते पर फौरन एम्बुलेंस भेंंंंौौज दीजिए। यहां पेशेंट की हालत सीरियस है। जी, महिला पेशेंट है।’’ सिया ने अनुरोध किया। लेकिन उसे जवाब मिला कि अभी अस्पताल में एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं है। एक ही प्रायवेट अस्पताल का नंबर उसे मालूम था। अच्छा ईलाज प्रायवेट अस्पाल में ही मिल सकता है, इसी सोच के चलते सिया शहर के उस नामी अस्पताल में मां को ले जाना चाह रही थी। मगर एम्बुलेंस के बिना वहां पहुंचना संभव नहीं था।
सिया ने घबरा कर पड़ोसी भाई साहब के घर की काॅलबेल बजाई। सुबह साढ़े तीन बजे का समय यूं भी गाढ़ी नींद का समय माना जाता है। दो-तीन बार काॅलबेल बजाने पर पड़ोसी भाई साहब की नींद खुली। घबराई हुई सिया को सामने पर कर भाई साहब भी स्थिति की गंभीरता समझ गए और उन्होंने तत्काल अपनी कार निकाली। सिया की मां को सहारा दे कर काम में बिठाया और उस प्रायवेट अस्पताल की ओर चल पड़े।
‘‘इनका तो ऑक्सीजन लेबल बहुत कम है और हमारे पर ऑक्सीजन नहीं है। आप इन्हें किसी और अस्पताल ले जाइए।’’ नर्स ने अस्पताल के बाहर ही ऑक्सीमीटर से लेबल जांच कर टका-सा उत्तर दे दिया।
मां की हालत गिरती जा रही थी। भाई साहब काल तेजी से दौड़ाए जा रहे थे। दूसरे निजी अस्पताल में पहुंचने पर वही उत्तर मिला कि ‘‘हमारे पास ऑक्सीजन नहीं है।’’
‘‘मेडिकल काॅलेज में है। कल ही दो टैंकर वहां आए हैं।’’ अस्पताल के गार्ड ने सिया को बताया।
एक बार फिर भाई साहब ने कार दौड़ा दी। लगभग दस किलोमीटर की दूरी तय कर के मेडिकल काॅलेज पहुंचे। न स्ट्रेचर और न व्हीलचेयर। भाई साहब ही कहीं से ढूंढ-ढांढ कर एक घिसा-पिटा स्ट्रेचर धकेल लाए।
‘‘डाॅक्टर अंदर हैं। उनका कहना है कि वे बाहर नहीं आ सकते हैं, हमें मां जी को ही उनके पास ले जाना होगा।’’ कोई विकल्प नहीं था। सिया और भाई साहब ने मिल कर मां को स्ट्रेचर पर लिटाया और डाॅक्टर की ओर चल पड़े।
‘‘इनका ऑक्सीजन लेबल बहुत कम है। इन्हें फौरन कोविड वार्ड में भर्ती करना पड़ेगा।’’ डाॅक्टर की यह बात सुन कर सिया के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। मां कोरोना संक्रमित? सिया के लिए विश्वास करना कठिन था।
‘‘मगर डाॅक्टर साहब, मां को न तो बुखार आया, न खांसी, न सर्दी। यहां तक कि गंध और स्वाद में भी कोई फ़र्क़ नहीं आया फिर कोरोना कैसे संभव है? आप श्योर हैं न?’’ सिया ने अविश्वास भरे स्वर में पूछा।
‘‘जी, मैं श्योर हूं! कितने परसेंट इन्फेक्शन है, यह अभी एक्सरे से पता चल जाएगा। ’’डाक्टर ने कहा। उसके लिए यह रोज़मर्रा का मामला था। इन दिनों, दिन भर में न जाने कितने कोरोना पेशेंट्स वह देख रहा था लेकिन सिया तो विश्वास नहीं कर पा रही थी कि मां को कोरोना संक्रमण हो चुका है।
‘‘ये नोसिम्टोमेटिक हैं। इसीलिए सिम्टम्स नहीं दिखे। आप इनके साथ रहती हैं तो ज़रूरी है कि आप भी अपना टेस्ट करा लीजिए।’’ डाॅक्टर ने सलाह दी।
‘‘मगर मुझे कोई प्राॅब्लम नहीं है।’’ सिया ने कहा।
‘‘फिर भी आपको टेस्ट कराना ज़रूरी है।’’ डाक्टर ने कहा और वह उठ कर कोविड वार्ड की ओर चल दिया जिस ओर मां को ले जाया जा चुका था।
एक बार कोविड वार्ड में भर्ती होने के बाद मां से मिलना संभव नहीं था। बस, मोबाईल फोन ही था जो मां-बेटी के बीच संवाद सूत्र था। सिया की रिपोर्ट भी ‘‘पाॅज़िटिव’’ आई और उसे होम आईसोलेशन में रहना पड़ा। चौदह दिन का यह समय सिया के लिए चौदह साल के समान रहा। न वह घर से बाहर निकल सकती थी और न उससे मिलने कोई आ सकता था। इसी बीच पांचवे दिन मां कोरोना के साथ संघर्ष हार गईं। फोन पर मिली इस सूचना ने सिया को मानो तोड़ कर रख दिया। होम आईसोलेशन के कारण कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं आ सकता था। उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे ढाढस नहीं बंधा सकता था। घर की दीवारों के बीच अकेले रोना और अपना ही रुदन सुनना सिया की नियति बन गया था। बस, कुछ परिचित, पड़ोसी ऐसे थे जिन्होंने ऐसे कठिन समय में उसका साथ दिया। सुबह-शाम उसके घर के दरवाज़े पर खाने के पैकेट्स रख जाते। दवा समय पर ली या नहीं, फोन कर के पूछते रहते।
चौदह दिन बाद सिया ‘‘निगेटिव’’ ज़ोन में आ गई। यद्यपि कोरोना कर्फ्यू के कारण उसका किसी से भी मिलना-जुलना या कहीं भी आना-जाना बंद था। ऐसे अकेले दौर में ही सिया को यह महसूस हुआ कि ऐसे पीड़ा से गुज़रने वाली वह अकेली नहीं है। न जाने कितने लोग होंगे जो उसकी तरह अकेलेपन से जूझ रहे होंगे। सिया ने अपने कुछ परिचितों के साथ मिल कर एक संवाद सेवा शुरू की जिसका नाम रखा ‘अपनत्व मित्र मंडली’। कोरोना के कारण अपनों को खोने वाले व्यक्तियों से संवाद करना और स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके बारे में बता कर उनके लिए दवा, खाना, फल आदि बुनियादी वस्तुएं पहुंचाने के लिए कहना, यही काम था उसकी संवाद सेवा का। घर बैठे यदि किसी के दुख का भागीदार बन कर उसके दुख को कम किया जा सकता हो तो, इससे बढ़ कर और कोई काम नहीं हो सकता है। अब तक वह अकेली लगभग पैंतीस लोगों से संवाद कर के उनका दुख बांट चुकी है। यही काम कर के सिया अपने दुखों को भी भुलाए रखती है और दूसरों के काम आने की भावना उसमें सकारात्मकता का संचार करती रहती है। सिया से जुड़ने वाले लोग भी अब समझते जा रहे हैं कि कोरोना आपदा के इस कठिन दौर में जीवन को आसान बनाना असंभव नहीं। चौदह दिनों तक गुमसुम रहने वाली सिया के मन में आत्मघाती कदम उठाने जैसे नकारात्मक विचार भी आए थे लेकिन दूसरे के दुखों को साझा करने के प्रयास में अब वह कभी-कभी मुस्कुरा भी लेती है और हंस भी लेती है। आखिर अपनत्व से बढ़ कर दुख की दवा और कोई नहीं होती।
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