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बुधवार, सितंबर 30, 2020

मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद - डाॅ. शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh, Author

मात्र कथाकार नहीं, समाजशास्त्री भी थे प्रेमचंद

       - डाॅ. ( सुश्री ) शरद सिंह

          drsharadsingh@gmail.com


प्रेमचंद के कथापात्र आज भी हमारे गांव, शहर और कस्बों में दिखाई देते हैं। दृश्य बदला है लेकिन इन पात्रों की दशा में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के कर्ज तले दबा हुआ था तो आज का किसान भी कर्ज के बोझ से आत्महत्या करने को विवश हो उठता है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के निजी बहीखाते में बंधुआ था, तो आज का किसान कर्ज़माफ़ी के सरकारी बहीखाते में बंधुआ है। शराबी पिता-पुत्र के परिवार की बहू के रूप में इकलौती स्त्री ‘कफ़न’ कहानी में तड़प-तड़प कर मरती दिखाई देती है, तो आज झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली स्त्रियों की दशा इससे अलग नहीं है। प्रेमचंद ने समाज का एक समाजशास्त्री की भांति आकलन किया और सुधार के मार्ग सुझाए। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कथासाहित्य के माध्यम से उजागर किया ताकि लोगों का उस ओर ध्यान आकृष्ट हो और समाज सुधार के क़दम उठाए जा सकें। उन्होंने विधवा स्त्री से विवाह कर स्वयं इस दिशा में पहल की।

कथाकार प्रेमचंद हिन्दी साहित्य में ‘कथासम्राट’ कहे जाते हैं। 31 जुलाई 1880 को जन्मे प्रेमचंद का मूलनाम धनपत राय श्रीवास्तव था। इन्हें नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें ‘‘उपन्यास सम्राट’’ कहकर संबोधित किया था। जबकि के साथ कार्य करने के कारण लोग उन्हें ‘‘मुंशी प्रेमचंद’’ कहने लगे। यद्यपि स्वयं प्रेमचंद ने स्वयं को कभी ‘मुंशी प्रेमचंद’ नहीं लिखा। वस्तुतः प्रेमचंद के नाम के साथ ‘‘मुंशी’’ विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि ’हंस’ नामक पत्र प्रेमचंद एवं कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन में निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र ’मुंशी’ छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - ‘‘मुंशी, प्रेमचंद’’। किन्तु कालान्तर में ‘मुंशी’ और ‘प्रेमचंद’ शब्दों के बीच का अर्द्धविराम अनदेखा कर कुछ लोगों ने ‘मुंशी’ शब्द को प्रेमचंद के नाम के साथ जोड़ दिया। 

Kathakar Premchand

प्रेमचंद ने ‘‘नवाबराय’’ के नाम से उर्दू में साहित्य सृजन किया। यह नवाबराय नाम उन्हें अपने चाचा से मिला था जो उनके बचपन में उन्हें लाड़-प्यार में ‘‘नवाबराय’’ कह कर पुकारा करते थे। किन्तु अंग्रेज सरकार के कारण उन्हें अपना लेखकीय नाम ‘‘नवाबराय’’ से बदलकर ‘‘प्रेमचंद’’ करना पड़ा। हुआ यह कि उनकी ’सोज़े वतन’ (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियां तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर लीं। उर्दू अखबार “ज़माना“ के संपादक मुंशी दयानरायण निगम ने उन्हें सलाह दी कि वे सरकार के कोपभाजन बनने से बचाने के लिए ‘‘नबावराय’’ के स्थान पर ’प्रेमचंद’ लिखने लगें। इसके बाद वे ‘‘प्रेमचंद’’ के नाम से लेखनकार्य करने लगे। 

प्रेमचंद ने सन् 1918 सं 1936 के बीच कुल ग्यारह उपन्यास हिन्दी साहित्य को दिए। ये उपन्यास हैं-‘सेवासदन’ (1918), ‘वरदान’ (1921), ‘प्रेमाश्रम’ (1921), ‘रंगभूमि’ (1925), ‘कायाकल्प’ (1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘प्रतिज्ञा’ (1929), ‘गबन’ (1931), ‘कर्मभूमि’ (1932), ‘गोदान’ (1936), ‘मंगलसूत्र’। इनमें ‘मंगलसूत्र’ उपन्यास वे पूरा नहीं कर पाए।


प्रेमचंद ने भारतीय समाज की विशेषताओं और अन्तर्विरोधों को एक कुशल समाजशास्त्री की भांति गहराई से समझा। इसलिए उनके साहित्य में भारतीय समाज की वास्तविकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। स्त्रियों, दलितों सहित सभी शोषितों के प्रति प्रेमचंद ने अपनी लेखनी चलाई। प्रेमचंद मात्र एक कथाकार नहीं वरन् एक समाजशास्त्री भी थे। उनकी समाजशास्त्री दृष्टि सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक थी। इसीलिए वे उस सच्चाई को भी देख लेते थे जो अकादमिक समाजशास्त्री देख नहीं पाते हैं। उन्होंने जहां एक ओर कर्ज में डूबे किसान की मनोदशा को परखा वहीं समाज के दोहरेपन की शिकार स्त्रियों की दशा का विश्लेषण किया। प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में किसान के जीवन के विभिन्न पक्षों का विवरण मिलता है। किसान हमेशा देश का एक बड़ा और महत्वपूर्ण वर्ग रहा है क्योंकि हमारा देश कृषिप्रधान देश है। समाज के समस्त आर्थिक व्यवहार का मूल कृषि और किसान रहे। लेकिन यही किसान प्रेमचंद के पूर्व हिन्दी साहित्य में इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं पा सका था। 

‘प्रेमाश्रम’ को किसान-जीवन का आख्यान कहा जा सकता है। इस उपन्यास में किसानों के जीवन को समग्रता से वर्णित किया गया है। ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ ने किसानों के जीवन का मानो रेशा-रेशा खोल कर सामने ररख दिया। प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न की जड़ तक पहुंचे और उन व्यवस्थागत कारणों की तलाश की जो किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने किसानों के शोषकों के रूप में सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों को चिन्हित किया। प्रेमचंद ने इस तथ्य को समझा कर लिखा कि वे हैं। जिसके पास कम ज़मीन है, सीमांत किसान है। ऐसा किसान परिवार की मदद से खेती करता है। ऐसे कई किसान पांच बीघे के आसपास की खेती का वह मालिक भी होते हैं और श्रम करने वाला किसान भी होते हैं। वे कर्ज ले कर खेती करने को विवश रहते हैं। गांव की महाजनी पद्धति से उन्हें कर्ज़ मिलता है और वे साहूकार के मकड़जाल में फंस कर पीढ़-दर-पीढ़ी ब्याज ही चुकाते रह जाते हैं। ‘सवा सेर गेहूं’ में प्रेमचंद ने कर्ज़ की इस परम्परा के भयावह पक्ष को मार्मिक एंग से सामने रखा है। ‘‘दो बैलों की जोड़ी’’ में वह माद्दा है कि वह पाठकों की आंखों में आंसू ला देती है और किसानों की पीड़ा पर कराहने को मजबूर कर देती है। लेकिन यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी जरूरी है कि प्रेमचंद का किसान पीड़ित है, शोषित है लेकिन आत्महत्या के पलायनवादी कृत्य से बहुत दूर है। उसमें आक्रोश और विद्रोह भी है जो ‘‘धनिया’’ और ‘‘हल्कू’’ जैसे पात्रों के माध्यम से समय-समय पर मुखर होता है। यह तथ्य प्रेमचंद के भीतर मौजूद साम्यवादी विचारधारा को उभारता है। वे साम्यवाद का ढिंढोरा नहीं पीटते थे लेकिन समाज में समता की बात करते हुए साम्यवाद के पैरोकार हो उठते थे। 

प्रेमचंद ने अपने कथानकों में किसान के सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं किया। उनका किसान स्वाभिमानी रहा। उसने हाड़तोड़ परिश्रम किया फिर भी ‘मरजाद’ के प्रति सजग रहा। उनका स्वाभिमानी किसान परिश्रम करके फसल उगाना चाहता है और मेहनत कर के ही धन कमाना चाहता है। उसे कोई ‘शाॅर्टकट’ पसंद नहीं है। वह घबरा कर अन्यायी के सामने झुकने के बारे में सोचता भी नहीं है। लेकिन उसका स्वाभिमान कठोर नहीं है। वह ‘मरजादा’ के नाम पर अपने परिवार के सदस्य को मारने के बारे में नहीं सोचता है। तमाम अपमान, तिरस्कार एवं विपत्तियों के बाद भी उसके भीतर की मानवता मरी नहीं है। जैसे, होरी अपने पुत्र गोबर के प्रेम का सम्मान करते हुए गर्भवती झुनिया को अपने घर ले आता है। जो कि विधवा भी है। होरी झुनिया का तिरस्कार नहीं करता। उसे अपने परिवार का सदस्य घोषित करने का साहस करता है। होरी का यह कदम दमित किसान के भीतर जीवित मानवता का सुंदर उदाहरण है।  लेकिन समाज है तो सुपात्र और कुपात्र दोनों ही पाए जाएंगे। जहां होरी जैसा सुपात्र है वहीं दातादीन जैसा कुपात्र भी है। दातादीन अपने पुत्र की प्रेमिका सिलिया का सम्मान नहीं करता। मगर वह दोहरेपन में जीता है। वह अपने पुत्र के अवैध संबंध का विरोध नहीं करता लेकिन सिलिया की अवहेलना करता रहता है। कहने का आशय यही है कि प्रेमचंद के पात्र समाज में मौजूद चरित्र हैं, जिनमें अच्छे भी हैं और बुरे भी। वे झूठा आदर्श प्रस्तुत नहीं करना चाहते थे।


प्रेमचंद ने अपने स्त्रीपात्रों के जरिए उस समय की स्त्रियों की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए उनके प्रताड़ित होने, संघर्ष करने और साहस दिखाने का पक्ष समान रूप से रखा है। वे स्त्रियों को साहसी और अधिकार प्राप्त देखना चाहते थे। उनके स्त्रीपात्र अपने परिवार और समाज से विद्रोह नहीं करते बल्कि उन पर समाज द्वारा थोपी गई परिस्थितियों से विद्रोह का स्वर मुखर करते हैं। गोदान में ‘धनिया’ की दृढ़ इच्छाशक्ति, निडरता और धैर्य उसे अन्याय का विरोध करने का साहस देता है। वहीं के रूप में प्रेमचंद स्त्री-पुरुष के मध्य प्रेमसंबंध का मपोविज्ञान प्रस्तुत करते हैं। ‘झुनिया’ में वह साहस है कि जब उसका प्रेमी अपने प्रेम को उजागर करने का साहस नहीं दिखा पाता है तब वह आगे बढ़ कर सभी को अपने प्रेमसंबंध के बारे में खुल कर बता देती है। वही ‘झुनिया’ गर्भावस्था में ताड़ी पी कर आए ‘गोबर’ द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना को सहती है लेकिन जब ‘गोबर’ घायल हो जाता है तो प्राण-प्रण से उसकी सेवा करती है। अर्थात् एक स्त्री साहसी तो है, साथ ही अपने प्रेम के प्रति समर्पिता भी है। प्रेमचंद ने विधवा समस्या को अपने साहित्य में प्रमुखता से स्थान दिया। विधवाओं को जीवन के सभी सुखों से वंचित कर दिया जाता था। यह तत्कालीन समाज में दूषित व्यवस्था की तरह व्याप्त था। ‘गबन’ में विधवा रतन कहती हैं - “न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था कि पति के मरते ही हिन्दू नारी इस प्रकार स्वत्व-वंचिता हो जाती है।” इस दुरावस्था का बार-बार उल्लेख कर के प्रेमचंद इसके प्रति सबका ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे जिससे विधवाओं की स्थिति को सुधारा जाए।


प्रेमचंद के कथापात्र आज भी हमारे गांव, शहर और कस्बों में दिखाई देते हैं। दृश्य बदला है लेकिन इन पात्रों की दशा में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के कर्ज तले दबा हुआ था तो आज का किसान भी कर्ज के बोझ से आत्महत्या करने को विवश हो उठता है। प्रेमचंद का किसान साहूकार के निजी बहीखाते में बंधुआ था, तो आज का किसान कर्ज़माफ़ी के सरकारी बहीखाते में बंधुआ है। शराबी पिता-पुत्र के परिवार की बहू के रूप में इकलौती स्त्री ‘कफ़न’ कहानी में तड़प-तड़प कर मरती दिखाई देती है, तो आज झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली स्त्रियों की दशा इससे अलग नहीं है। प्रेमचंद ने समाज का एक समाजशास्त्री की भांति आकलन किया और सुधार के मार्ग सुझाए। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों को अपनी कथासाहित्य के माध्यम से उजागर किया ताकि लोगों का उस ओर ध्यान आकृष्ट हो और समाज सुधार के क़दम उठाए जा सकें। उन्होंने विधवा स्त्री से विवाह कर स्वयं इस दिशा में पहल की।

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शुक्रवार, सितंबर 25, 2020

पिछले पन्ने की औरतें | उपन्यास | लेखिका डॉ शरद सिंह | पुनर्पाठ | डॉ वर्षा सिंह

मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह दैनिक आचरण में "पुनर्पाठ" कॉलम लिखती हैं। आज उन्होंने अपने कॉलम में मेरे पहले उपन्यास "पिछले पन्ने की औरतें को जगह दी है... जो यहां साझा कर रही हूं...

Pichhale Panne Ki Auraten - Novel of Sharad Singh


सागर: साहित्य एवं चिंतन


       पुनर्पाठ: ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास

                          -डॉ. वर्षा सिंह

                            Email-               drvarshasingh1@gmail.com


इस बार पुनर्पाठ में मैं जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रही हूं उसका नाम है ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘। इस उपन्यास की लेखिका है डॉ. शरद सिंह। यह उपन्यास मुझे हर बार प्रभावित करता है इसलिए नहीं कि यह मेरी छोटी बहन शरद के द्वारा लिखा गया है बल्कि इसलिए कि इसे हिंदी साहित्य का बेस्ट सेलर उपन्यास और हिंदी साहित्य का टर्निंग प्वाइंट माना गया है। इसे बार-बार पढ़ने की ललक इसलिए भी जागती है कि इसमें एक अछूते विषय को बहुत ही प्रभावी ढंग से उठाया गया है। जी हां, इस उपन्यास में हाशिए में जी रही उन महिलाओं के जीवन की गाथा उनकी सभी विडंबनाओं के साथ सामने रखी गई है, जिन्हें हम बेड़नी के नाम से जानते हैं। समग्र हिन्दी साहित्य में स्त्रीविमर्श एवं आधुनिक हिन्दी कथा लेखन के क्षेत्र में सागर नगर की डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह का योगदान अतिमहत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने पहले उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ से हिन्दी साहित्य जगत में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराई। ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास का प्रथम संस्करण सन् 2005 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद अब तक इस उपन्यास के हार्ड बाऊंड और पेपर बैक सहित अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह न केवल पाठकों में बल्कि शोधार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय है। देश के अनेक विश्वविद्यालयों में इस उपन्यास पर शोध कार्य किया जा चुका है और वर्तमान में भी अनेक विद्यार्थी इस उपन्यास पर शोध कार्य कर रहे हैं।

हिन्दी साहित्य में ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ ऐसा प्रथम उपन्यास है जिसका कथानक बेड़नियों के जीवन को आाधार बना कर प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की शैली भी हिन्दी साहित्य के लिए नई है। यह उपन्यास अतीत और वर्तमान की कड़ियों को बड़ी ही कलात्मकता से जोड़ते हुए इसे पढ़ने वाले को वहां पहुंचा देता है जहां बेड़नियों के रूप में औरतें आज भी अपने पैरों में घंघरू बांधने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास ‘‘रहस्यमयी श्यामा’’ से लेखिका की मुलाकात से आरम्भ होता है। कहने को तो यह मामूली सी घटना है कि लेखिका को सागर से भोपाल की बस-यात्रा के दौरान एक महिला सहयात्री मिलती है। लेकिन कथानक का श्रीगणेश ठीक वहीं से हो जाता है जब लेखिका को बातचीत में पता चलता है उस स्त्री का नाम श्यामा है और वह एक बेड़नी है। श्यामा राई नृत्य करती है और नृत्य करके अपने परिजन का पेट पालती है। यहीं से आरम्भ होती है एक जिज्ञासु यात्रा। इसके बाद लेखिका बेड़िया समाज के इतिहास और पारिवारिक संरचना पर अपनी शोधात्मक दृष्टि डालती है। वह स्वयं उन गांवों में जाती है जहां बेड़नियां रहती हैं। उनसे बात करती है, उनके जीवन को टटोलती है और उनके साथ, उनके घर पर रह कर उनके जीवन की बारीकियों को समझने का प्रयास करती है। यह एक बहुत बड़ा क़दम था। वाचिक और लिखित स्रोतों और ज़मीनी कार्यों के बीच तालमेल बिठाती हुई लेखिका शरद सिंह उपन्यास की अंतर्कथा के रूप में लिखती हैं गोदई की नचनारी बालाबाई की मर्मांतक कथा। जब एक गर्भवती बेड़नी को भी देह-पिपासु पुरुषों ने भावी मंा नहीं अपितु मात्र स्त्रीदेह के रूप में ही देखा। यह कथा मन को विचलित कर देती है। उपन्यास आगे बढ़ता है चंदाबाई, फुलवा के जीवन से होता हुआ रसूबाई के जीवन तक जा पहुंचता है। स्त्री को मात्र देह मानने वालों के द्वारा स्त्री के सम्मान और स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने, उन पर अत्याचार करने वालों की दुर्दांत कुचेष्टाएं झेलती ये स्त्रियां। जिनके बारे में शरद सिंह कहती हैं कि ये वे औरतें हैं जिन्हें समाज अपनी खुशियों को बढ़ाने के लिए अपने पारिवारिक उत्सवों में नाचने के लिए तो बुलाता है लेकिन इन्हें अपने परिवार में शामिल करने से हिचकता है। वह इनकी खुशियों से कतई सरोकार नहीं रखना चाहता है।

Article on Novel Pichhale Panne Ki Auraten by Dr Varsha Singh

इस उपन्यास का एक और पहलू है कि यह उपन्यास परिचित कराता है उस औरत से जिसने अल्मोड़ा में जन्म लिया, लेकिन अपने जीवन का उद्देश्य बेड़िया समाज के लिए समर्पित करते हुए ‘बेड़नी पथरिया’ नामक गंाव में ‘सत्य शोधन आश्रम’ की स्थापना की। उसका नाम था चंदाबेन। इस उपन्यास की खांटी वास्तविक पात्र हैं चंदाबेन, जिन्होंने अपने जीवन के विवरण को इस उपन्यास का हिस्सा बनने दिया। वस्तुतः ’’पिछले पन्ने की औरतें‘‘ एक उपन्यास होने के साथ-साथ यथार्थ का औपन्यासिक दस्तावेज़ भी है। इसमें बेड़िया समाज का इतिहास है, बेड़नियों के त्रासद जीवन का रेशा-रेशा है, बेड़नियों के संघर्ष का विवरण है, उनकी आकांक्षाओं एवं आशाओं का लेखा-जोखा है। यही तो है सच्चा स्त्रीविमर्श कि जब किसी उपन्यास में जीवन की सच्चाई को पिरो कर उसे सच के क़रीब ही रखा जाए, इतना क़रीब कि इस उपन्यास को पढ़ने वाला पाठक बेड़नियों की त्रासदी से उद्वेलित हुए बिना नहीं रह पाए और उपन्यास के अंतिम पृष्ठ तक पहुंचते हुए बेड़नियों के उज्ज्वल भविष्य की दुआएं करने लगे।    


परमानंद श्रीवास्तव जैसे समीक्षकों ने उनके इस उपन्यास को हिन्दी उपन्यास शैली का ‘‘टर्निंग प्वाइंट’’ कहा है। यह हिन्दी में रिपोर्ताजिक शैली का ऐसा पहला मौलिक उपन्यास है जिसमें आंकड़ों और इतिहास के संतुलित समावेश के माध्यम से कल्पना की अपेक्षा यथार्थ को अधिक स्थान दिया गया है। यही कारण है कि यह उपन्यास हिन्दी के ‘‘फिक्शन उपन्यासों’’ के बीच न केवल अपनी अलग पहचान बनाता है अपितु शैलीगत एक नया मार्ग भी प्रशस्त करता है। शरद सिंह जहां एक ओर नए कथानकों को अपने उपन्यासों एवं कहानियों का विषय बनाती हैं वहीं उनके कथा साहित्य में धारदार स्त्रीविमर्श दिखाई देता है।

‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ शरद सिंह द्वारा लिखित उनका पहला शोधपरक उपन्यास है जिसमें सामाजिक स्तरों में दबी-कुचली और पिछले पन्नों में दर्ज कर भुला दी गईं औरतों को मुखपृष्ठ पर लाने का सफल प्रयास किया है। तीन भागों और सत्ताईस उपभागों में लिखे गए उपन्यास के स्त्री पात्र महत्वपूर्ण हैं। किसी स्त्री की वेदना एवं पीडा को रिर्पोताज शैली में लेखन करना लेखिका की कुशलता का परिचायक है। विभिन्न औरतों से होकर संपूर्ण भारतीय औरतों के अस्तित्व, अधिकार पर लेखिका ने प्रकाश डाला है। ’पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास में शरदसिंह ने समाज की आन्तरिक और बाह्य परतों को खोलने का प्रयास किया वे समाज के कुरूप सत्य को बड़े ही बोल्ड ढंग से प्रस्तुत करती हैं उनकी लेखकीय क्षमता की विशेषता है कि वे जीवन और समाज के अनछुए विषयों को उठाती हैं।

जब भी मैं इस उपन्यास को पढ़ती हूं तो मुझे सुप्रसि़द्ध समीक्षक स्व. परमानंद श्रीवास्तव का वह समीक्षा-लेख याद आने लगता है जो उन्होंने ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ के बारे में लिखा था - “ रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा ‘तीली-तीली आग’ कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे? विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था।......शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- ‘लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।’ शरद सिंह ने जैसे एक.सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है। ‘पिछले पन्ने की औरतें’’ उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं। शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति ‘पिछले पन्ने की औरतें’’। जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।”

निःसंदेह यह उपन्यास तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक औरतें समाज के पिछले पन्नों में क़ैद रखी जाएंगी। और अंत में मैं दे रही हूं बार-बार पढ़े जाने योग्य इस उपन्यास के आरम्भिक पन्ने में लिखी शरद सिंह की ही वे काव्य पंक्तियां जो एक नए स्त्रीविमर्श के पक्ष में आवाज़ उठाती हैं-

छिपी रहती है

हर औरत के भीतर

एक और औरत

लेकिन

लोग अक्सर

देखते हैं

सिर्फ बाहर की औरत।


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( दैनिक, आचरण  दि.19.09.2020)

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गुरुवार, सितंबर 24, 2020

मुनि क्षमा सागर की कविताओं में है दर्शन के तदर्थ प्रकृति | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | व्याख्यान-आलेख

Dr (Miss) Sharad Singh as Special Geust given Lecture on the Poetries of Muni Kshama Sagar, 13 March 2019  

 व्याख्यान-आलेख

मुनि क्षमा सागर की कविताओं में है

दर्शन के तदर्थ प्रकृति 

  

                             - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

                               एम-111, शांतिविहार, रजाखेड़ी,                           

                               मकरोनिया,सागर (म.प्र.) 470004 

                                 मोबाः 9425192542

                                Email : drsharadsingh@gmail.Com

Muni Kshama Sagar

      यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे मुनि क्षमा सागर से भेंट करने और उनसे चर्चा का अवसर मिला। प्रथम बार अपने शहर की अंकुर काॅलोनी में जहां उन्होंने कुछ समय वास किया था। इसके बाद खुरई में सुअवसर प्राप्त हुआ और फिर बीना बारहा में। बीना बारहा में मैंने उन्हें अपना दूसरा कहानी संग्रह ‘तीली-तीली आग’’ भेंट किया था। मैं नहीं जानती थी कि वे मेरा कहानी संग्रह पढेंगे भी या नहीं, किन्तु एक ललक थी अपनी पुस्तक उनके चरणों में प्रस्तुत करने की। अंतिमबार मैंने उनके दर्शन किए थे शाहपुर में। वे वहां वर्षावास कर रहे थे। उस समय उनका शरीर क्षीण हो चला था, एकदम कृषकाय। वे बोलने में असमर्थ हो चले थे। किन्तु उन्होंने संकेतों से जो उद्गार प्रकट किए वे उस समय में भी रोशनदान पर बैठी एक चिड़िया के प्रति लक्षित थे। चिड़िया को बिम्ब के रूप में चुन का मुनिश्री ने अनेक कविताएं लिखी हैं। 

चिड़िया ही क्यों? तितली अथवा कोई और पंखोंवाला प्राणी क्यों नहीं? इस बारे में मैंने कई बार सोचा। चिंतन-मनन किया और मुनिश्री की कविताओं को बार-बार पढ़ा। सन् 1992 को प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पगडंडी सूरज तक’’ से लेकर ‘‘मुक्ति’’ में संग्रह तक की कविताआं में चिड़िया मौजूद है। चिड़िया के रूप में उन्होंने एक अद्भुत बिम्ब तलाशा था। उनकी कविताओं की चिड़िया के मूल में गौरैया है। एक घरेलू पक्षी। जिसे मनुष्यों के बीच रहना है और अपनी अलग दुनिया बसाना है। गौरैया जो बहुत नन्हां, कोमल और असहाय-सा प्रतीत होने वाला सुंदर जीव है, अपनी कर्मठ प्रवृत्ति और लगन से सबको चकित करता रहता है। मुनि क्षमा सागर चिड़िया के बहाने बहुत गहन बात कह देते हैं। ‘‘विश्वास’’ शीर्षक की उनकी यह कविता देखें-

मैंने पूछा

चिड़िया से

कि आकाश 

असीम है

क्या तुम्हें अपने

खो जाने का

भय नहीं लगता

चिड़िया कहती है

कि वह

अपने घर

लौटना जानती है।


चिड़िया का यह घर लौटना सकल सांसारिकताओं के बीच रह कर भी मोक्ष के, कैवल्य के मार्ग की ओर लौटने जैसा है। वैसे, मुनि क्षमा सागर ने चिड़िया ही नहीं अपितु प्रकृति के जड़-चेतन सभी तत्वों से दर्शन के बिन्दु सहेजे हैं। 

उनकी की एक कविता है- “बोध“। जब मैंने पहली बार इस कविता को पढ़ा तो मुझे छान्दोग्य उपनिषद् (अध्याय 6, खंड 13) में संवाद रूप में दी गई ऋषि उद्दालक एवं उनके पुत्र श्वेतकेतु की वह रोचक कथा याद आ गई जिसमें श्वेतकेतु अपने पिता उद्दालक से काषाय का विनाश कर परमसत्ता में एकाकार होने अर्थात् मोक्ष पाने की युक्ति पूछता है।  श्वेतकेतु जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। उसने अपने पिता उद्दालक से प्रश्न किया कि -‘‘कोई व्यक्ति ईश्वरी शक्तियों में गुरु की सत्ता में या प्रकृति के निमित्तियों में कैसे समाहित हो सकता है? कैसे एकाकार हो सकता है?’’

ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने गुरु-गंभीर उदाहरण देकर यह बात समझ आनी चाहिए किंतु श्वेतकेतु को अपने प्रश्न का उत्तर शीघ्र पा लेने की उत्कंठा थी, जिसके कारण वह अपने पिता की गंभीर बातों को समझ ही नहीं पा रहा था। जब पिता उद्दालक ने देखा कि पुत्र को इस तरह से ज्ञान दे पाना तो कठिन है तो उन्होंने एक सरल उपाय निकाला और उन्होंने नमक की एक गली देते हुए श्वेतकेतु से कहा कि जाओ इसे एक कटोरा पानी में डाल दो। श्वेतकेतु ने ऐसा ही किया उसके बाद उद्दालक और श्वेतकेतु दूसरे विषयों के चिंतन-मनन में लिप्त हो गए। थोड़ी देर बाद, ऋषि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा कि -‘‘पुत्र जाओ और वह नमक की डली ले आओ जो कल मैंने तुम्हें कटोरा भर जल में रखने को दी थी। श्वेतकेतु गया उसने कटोरी के पानी में उंगली डालकर दिल्ली को ढूंढने का प्रयास किया किंतु डली तो रात भर में घुल चुकी थी। पानी में समाहित हो चुकी थी। एकाकार हो चुकी थी। अब श्वेतकेतु बड़ा चिंतित हुआ कि यह तो बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई पिता ने नमक की डली सहेजने के लिए दी थी और यहां तो डली है ही नहीं। अब क्या करूं ? अंततः वह अपने पिता के पास गया और उसने वस्तु स्थिति बताई। पुत्र की बात सुन कर ऋषि उद्दालक मुस्कुराए और उन्होंने कहा, ‘‘पुत्र मैं बताता हूं कि वह नमक की डली कहां गई है।’’ 

श्वेतकेतु ने हड़बड़ा कर कहा अगर वह मुझे नमक की डली फिर से मिल सकती है तो पिताजी शीघ्र बताइए कि वह कहां है?

उद्दालक ने कहा कि ठीक है जाओ वह पानी से भरा कटोरा ले आओ जिसमें कल तुमने नमक की डली डाली थी। श्वेतकेतु गया और वह कटोरा उठा लाया। उद्दालक ने उस कटोरे के पानी में उंगली डाली और श्वेतकेतु के हथेली पर पानी की एक बूंद रख दी और कहा - इसका स्वाद लो पुत्र। श्वेतकेतु ने नमक की डली को घुले हुए पानी को चखा तो उसे पानी नमकीन लगा। इसके बाद उद्दालक ने कहा, ‘‘पुत्र अब तुम अपनी उंगली से कटोरी के किनारे के पानी को चाखो।’’ श्वेतकेतु ने ऐसा ही किया, किनारे के पानी को चखा। वह भी खारा था। बीच के पानी को चखा वह भी खारा था।  तब उद्दालक ने कहा कि- “पुत्र, जिस तरह नमक पानी से मिल कर एकाकार हो गया, ठीक उसी तरह मनुष्य को प्रकृति और ईयवर से एकाकार हो जाना चाहिए तभी वह अपने स्व, अपने, अहम् और अपने अस्तित्व को भूल कर जगत कल्याण कर सकता है।’’

पिताश्री की बात सुनते ही श्वेतकेतु को यह ज्ञान प्राप्त हो गया की ‘स्व’ को भूल कर ही परमसत्ता का अभिन्न अंग बना जा सकता है। ठीक यही भाव मुनि क्षमा सागर की इस कविता में देखे जा सकते हैं-

नदी 

सागर, आकाश 

धरती 

जो भी था 

मैंने उसे दिया 

पर मन नहीं भरा 

बनी रही गहरी रिक्तता 

और आज जब 

अपने को दिया, 

तो लगा 

देने का अहम् व्यर्थ था।


जब व्यक्ति अपने अहम् से बाहर निकल आता है तब उसे अपने भीत के नादस्वर सुनाई देने लगते हैं। किन्तु परमसत्ता का अनहद नाद सुनते ही मन के भीतर के सारे नादस्वर मौन हो जाते हैं और रह जाता है सिर्फ़ अनहद नाद परमसत्ता का। मोक्ष की ओर ले जाने वाला अनहद नाद। जब इस तथ्य को मुनिश्री व्याख्यायित करते हैं तो यहां फिर एक बार नदी बिम्ब बनती है नादस्वरों की पर्याय। मुनि क्षमा सागर जी अपनी ‘नाद’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-


नदियों की 

कल कल ध्वनियां 

मौन हुईं

लो पहुंच गए हम 

सागर तट पर 

जब से नाद 

सुना अनहद का 

लगता है 

ठहर गया स्वर 

पहुंच गए हम 

अपने तट पर।

    

दरअसल, मुनि क्षमा सागर ने अपनी कविताओं के द्वारा दार्शनिक परम्पराओं की मूल स्थापनाओं, उनके सरोकारों और सार-तत्व को बोधगम्य बनाया और प्राकृतिक सहजता के साथ उन्हें शब्दों में पिरोया। उनकी कविता साधारण से उदात्त की ओर, भौतिक से आधिभौतिक की ओर और अस्तित्व से शून्य की ओर यात्रा करती है।. वे प्रकृति में एक निजी अध्यात्म की खोज करते रहे।

आमतौर पर दार्शनिकता कविताओं को बोझिल और अबूझ बना देती है, लेकिन मुनि क्षमा सागर की कविताएं सरल शब्दों में संवाद के रूप में पाठकों से बात करती हैं और जीवन के कठिन प्रश्नों को सुलझाती हुई उनके उत्तर देती हैं तथा पाठक या श्रोता के मानस में बहुत गहरे तक उतर जाती हैं। क्यों कि इन कविताओं में मात्र ‘स्व’ नहीं था, वरन् वैश्विक मानववादी चिंतन भी निहित है।


एक और प्राकृतिक बिम्ब है ‘‘माटी’’। इसी शीर्षक की कविता में मुनि क्षमा सागर तप और समर्पण की श्रेष्ठता को माटी के द्वारा समझाते हैं। कविता देखिए-


अपने को 

पूरा गला कर 

माटी 

भगवान बन गई 

दुनिया 

उसके चरणों में 

झुक गई 

बनाने वाले की आंख 

अभी भी 

खोजती है 

कि उसमें कहां क्या कमी रह गई


तप और समर्पण की यह वही पराकाष्ठा है जहां कहा जाता है बकौल अल्लामा इक़बाल -

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले 

ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ?


मुनिक्षमा सागर आकाश को चुनते हैं मानव जीवन और मानवीय संबंधों को समझाने के लिए। वे कहते हैं-

रात आती है 

सारा आकाश 

तारों से 

भर जाता है 

दिन होते ही 

मानो सब 

झर जाता है 

इसमें सोचो 

तो सोचते ही रहो 

हाथ क्या आता है 

जो समझते हैं 

वे समझते हैं 

कि डूबते-उगते 

सितारे हैं 

आकाश 

अकेला था 

अकेला ही 

रह जाता है।


जैन दर्शन में कषाय के मुख्य चार भेद- क्रोध, मान, माया तथा लोभ माने गए हैं। इनके कारण जीव में पुद्गल कणों का आश्रव होता है और यह कर्मबंधन से अधिकाधिक ग्रस्त होता जाता है। जीव की कषाय सहित तथा कषायरहित, ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कषायों का विनाश होने पर ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है। जब काषाय से मुक्ति मिल जाती है तभी मोक्ष संभाव्य होता है। काषाय को ले कर भर्तृहरि ने अपने ‘‘नीतिशतकम्’’ में कहा है कि - 

येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं, न शीलं, न गुणो, न धर्मः !

ते मत्र्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!


अर्थात् जिन लोगो के पास विद्या, तप, दान, शील, गुण और धर्म नहीं होता, ऐसे लोग इस धरती के लिए भार है और मनुष्य के रूप में पशुवत् घूमते हैं। पशुवत् से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से मोक्ष की ओर यात्रा के लिए किसी न किसी आलम्बन की भी आवश्यकता होती है। 

इसी यात्रा को सुगम बनाने के लिए मंदिर बनाए जाते हैं। यहां प्रकृति नहीं प्रकृति की प्रतिकृति उनकी कविता का बिम्ब बनती है। ‘‘अंतर’’ शीर्षक उनकी यह कविता मंदिरों के औचित्य को निरुपित करती है-

ये मंदिर 

इसलिए कि हम 

आ सकें

बाहर से 

अपने भीतर 

ये मूर्तियां 

अनुपम सुंदर 

इसलिए कि हम 

पा सकें कोई रूप 

अपने अनुत्तर 

और 

श्रद्धा से झुक कर 

गलाते जाएं 

अपना मान-मद 

परत दर परत निरंतर 

ताकि 

कम होता जाए 

हमारे और प्रभु के 

बीच का अंतर।  


और अंत में उस कविता का उल्लेख करना जरूरी है जो जड़ से चेतन और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है अपने साथ पहला क़दम उठाते ही .... 

सारे द्वार

खोल कर

बाहर निकल आया हूं

यह 

मेरे भीतर

प्रवेश का

पहला क़दम है।


यह पहला क़दम ही है जो अनन्त यात्रा की ओर ले जाती हैं, विभिन्न बिम्बों के जरिए उन्हीं का विवरण है मुनि क्षमा सागर की कविताओं में। उनके काव्य में प्रकृति के तदर्थ दर्शन नहीं वरन् दर्शन के तदर्थ प्रकृति है। प्रकृति के संरक्षण और प्रकृति से शिक्षण दोनों की बात वे एक साथ, एक स्वर में करते हैं। वे सिद्ध कर देते हैं कि प्रकृति हो या प्रतिकृति दोनों के मूल में है जीवन दर्शन जो जीने का तरीका सिखाता है और उसके आगे मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। 

----------------------------------


-.डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

एम-111, शांतिविहार, रजाखेड़ी, मकरोनिया,  सागर (म.प्र.) 470004

मोबाः 9425192542

 Email : drsharadsingh@gmail.Com

 

Dr (Miss) Sharad Singh as Special Geust given Lecture on the Poetries of Muni Kshama Sagar, 13 March 2019  

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सागर शहर का साहित्यिक परिदृश्य - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

लेख 


सागर शहर का साहित्यिक परिदृश्य


- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


      किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं जातीय पहचान उस क्षेत्र के साहित्य एवं साहित्यिक गतिविधियों से होती है। साहित्य में क्षेत्रविशेष के संस्कार, परम्परा एवं नवाचार का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जोड़ कर चलना साहित्य में ही संभव है। सागर साहित्य एवं संस्कृति जगत् में अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी विख्यात है। यहां के साहित्यकारों की रचनाएं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधसंदर्भ के रूप में पढ़ी जाती हैं तथा उन पर शोध कार्य भी किया जाता है। वस्तुतः सागर की भूमि साहित्य सृजन के लिए सदा से उर्वरा रही है। यदि अतीत के पन्ने पलटे जाएं तो एक से बढ़ कर एक कालजयी कवि और उनकी रचनाएं दिखाई देती हैं। जिनमें सर्वप्रथम कवि पद्माकर (सन् 1753-1833) का नाम लिया जाना उचित होगा। सागर झील के तट पर स्थित चकराघाट पर स्थापित कवि पद्माकर की प्रतिमा आज भी सागर के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत का कार्य कर रही है। पद्माकर रचित ग्रंथों में पद्माभरण, जगद्विनोद, गंगालहरी, प्रबोध पचासा, ईश्वर पचीसी, यमुनालहरी आदि प्रमुख हैं। प्रतिवर्ष होली पर सागर का साहित्यवृंद सुबह-सवेरे सबसे पहले चकराघाट पहुंच कर कवि पद्माकर की प्रतिमा को नमन करता है, उन्हें गुलाल लगाता है और इसके बाद ही होली खेलने तथा होली पर केन्द्रित रचनापाठ का क्रम शुरू होता है। कवि पद्माकर के अनुप्रास अलंकार की बहुलता वाले कवित्त छंद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनका यह लोकप्रिय कवित्त देखें -

फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई  भीतर गोरी 

भाय करी मन की पदमाकर,  ऊपर  नाय अबीर की झोरी 

छीन पितंबर कंमर तें,  सु बिदा  दई  मोड़ि कपोलन रोरी 

नैन नचाई, कह्यौ मुसकाई, लला! फिर खेलन आइयो होरी

Mahakavi Padmakar, Chakraghat, Sagar MP


सागर के साहित्य कोे समय के साथ चलना बखूबी आता है। यहां के साहित्यकारों ने उत्सव के समय उत्सवधर्मिता को अंगीकार किया तो वे स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता के पक्ष में स्वर बुलंद करने में आगे रहे। 14 मार्च 1908 को नरसिंहपुर जिले के करेली में जन्मे पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी अपनी बाल्यावस्था से ही सागर आ गए थे और जीवनपर्यन्त सागर में रहते हुए उन्होंने साहित्य सृजन किया। उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- 

जनम जनम के हैं हम बागी, 

लिखी बगावत भाग्य हमारे

जेलों मे है कटी जवानी, 

ऐसे ही कुछ पड़े सितारे

Pt. Jwala Prasad Jyotishi

पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी के समय रामसिंह चैहान बेधड़क, शंकरलाल तिवारी ‘बेढब सागरी’, पं. लक्ष्मी प्रसाद मिश्र ‘कवि हृदय’ साहित्य सृजन कर रहे थे। हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में साहित्य सृजन करते हुए इस यात्रा को आगे बढ़ाया इकराम सागरी, लक्ष्मण सिंह निर्मम, जहूर बख़्श, दीनदयाल बालार्क, जयनारायण दुबे, पं. लोकनाथ सिलाकारी, नेमिचन्द ‘विनम्र’, विठ्ठल भाई पटेल, रमेशदत्त दुबे, माधव शुक्ल मनोज, शिवकुमार श्रीवास्तव, अखलाक सागरी आदि ने। साथ ही पन्नालाल साहित्याचार्य ने दार्शनिकतापूर्ण साहित्य का सृजन किया।

 

अपने मौलिक सृजन से साहित्यजगत को उल्लेखनीय रचनाएं एवं कृतियां देने वाले सागर के साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख नाम हैं- महेन्द्र फुसकेले, डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. गोविंद द्विवेदी, प्रो कांति कुमार जैन, लक्ष्मी नारायण चैरसिया, डाॅ. सुरेश आचार्य, कपूरचंद बैसाखिया, दिनकर राव दिनकर, यार मोहम्मद यार, निर्मलचंद ‘निर्मल’, हरगोविंद विश्व, डाॅ. गजाधर सागर, मणिकांत चैबे ‘बेलिहाज़’, डाॅ. वर्षा सिंह, डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, वृंदावन राय ‘सरल’, अशोक मिजाज़ बद्र, टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’, डाॅ. महेश तिवारी, डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, डाॅ. सरोज गुप्ता, डाॅ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, वीरेन्द्र प्रधान, डाॅ. वंदना गुप्ता, सतीश पांडे आदि। इनमें से प्रो कांति कुमार जैन, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. सुरेश आचार्य, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, अशोक मिजाज़ बद्र का सागर का नाम देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान है। 


सागर में साहित्यक आयोजनों की गरिमापूर्ण परम्परा रही है। कोरोनाकाल के पूर्व कविगोष्ठी, कवि सम्मेलन, चर्चा-परिचर्चा, कथावाचन, समीक्षा वाचन आदि के माध्यम से विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आयोजन सततरूप से कर रही थीं। कोरोना संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए सागर की साहित्यिक संस्थाओं नेे समय के अनुरुप स्वयं को ढाला है और वे आॅनलाईन आयोजनों से जुड़ती चली गई हैं। वर्तमान कोरोनाकाल में कई संस्थाएं सक्रिय हैं जो निरंतर आॅनलाईन आयोजन करती रहती हैं। इस कोरानाकाल में साहित्यिक गोष्ठियों ने आॅनलाईन हो कर सोशल मीडिया पर अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। व्हाट्सएप्प ग्रुप, फेसबुक लाईव, जूम एप्प हो या गूगल मीट इन सभी पर गोष्ठियां जारी हैं। बुंदेलखंड हिन्दी साहित्य संस्कृति विकास मंच के द्वारा प्रति शनिवार आॅनलाईन कविगोष्ठी का आयोजन किया जाता है। जिसमें संभाग ही नहीं वरन् देश के विभिन्न अंचलों के कवि-कवत्रियों  द्वारा रचनापाठ किया जाता है। इस संस्था के संयोजक मणीकांत चैबे ‘बेलिहाज़’ अपने पुत्र अमित चैबे के तकनीकी सहयोग से इस आयोजन की नियमितता को बनाए हुए हैं। सागर नगर में भव्य साहित्यिक समारोहों के लिए विख्यात श्यामलम संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र एवं सचिव कपिल बैसाखिया ने अपने अथक प्रयासों से साहित्यकार सम्मान, साहित्यकारों को श्रद्धांजलि एवं रचनापाठ का क्रम आॅनलाईन जारी रखा है। उल्लेखनीय है कि श्यामलम संस्था का अपना एक संवेदनशील इतिहास है। संस्था के संस्थापक  श्यामाकांत मिश्र ने बाॅलीवुड में अपने अभिनयकाल के दौरान महसूस किया कि मुंबई की चकाचैंध भरी सिनेमाई दुनिया में संवेदना की कमी है। इसी के साथ उनके मन में विचार आया कि एक ऐसी संस्था अपने गृह नगर सागर में गठित की जाए जिसका उद्देश्य दिवंगत साहित्यकारों को श्रद्धांजलि देना हो। दुर्भाग्यवश वे अपनी संस्था को विकसित होते नहीं देख पाए। किन्तु उनके निधन के उपरांत उनके अनुज द्वय उमाकांत मिश्र एवं रमाकांत मिश्र ने अपने बड़े भाई स्व. श्यामाकांत मिश्र के सपनों को साकार करने में अपना पूरा योगदान दिया है। 


प्रादेशिक स्तर की साहित्यिक संस्थाओं की सागर इकाईयां भी वर्तमान में डिज़िटल माध्यमों को अपनाते हुए आॅनलाईन आयोजनों में संलग्न हैं। अध्यक्ष आशीष ज्योतिषी एवं सचिव पुष्पेन्द्र दुबे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई के तत्वावधान में साप्ताहिक गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। इसी प्रकार अध्यक्षद्वय टीकाराम त्रिपाठी रुद्र एवं सतीश पांडे द्वारा मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की सागर एवं मकरोनिया इकाईयों के अंतर्गत् आॅनलाईन काव्यपाठ एवं परिचर्चा का आयोजन कराया जाता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखिका संघ की सागर इकाई की अध्यक्ष सुनीला सराफ द्वारा काव्य गोष्ठी, परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष कोरोना आपदा के कारण सागर इकाई की स्मारिका ‘अन्वेषिका’ का मुद्रण एवं वितरण संभव नहीं हो पाने के कारण उसे ई-पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया गया। यह कदम सागर के साहित्य जगत् में लेखिका संघ का एक उल्लेखनीय डिज़िटल कदम कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखक संघ की सागर इकाई, सागर साहित्यकार संघ भी आॅनलाईन काव्य गोष्ठियों का आयोजन कर रहे हैं। इसके साथ ही नगर के उत्साही युवा यूट्यूब पर चैनल्स चला कर साहित्य की डिज़िटल सेवा कर रहे हैं। जैसे वरुण प्रधान द्वारा ‘प्रधाननामा’ चैनल में सागर के साहित्यकारों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत किया जा रहा है। 


विपरीत परिस्थितियों में नवाचार को अपनाकर अडिग रहना साहित्यकारों एवं साहित्यसेवियों की विशेषता होती है। इस विशेषता को चरितार्थ करते हुए सागर का साहित्यकार समाज, साहित्य की मशाल को अपनी लेखनी के जरिए उठाए हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है और अपने साहित्य के प्रकाश से समाज का पथ-प्रदर्शक बना हुआ है। इसमें दो मत नहीं कि सागर सही अर्थों में साहित्य का महासागर बनता जा रहा है। 

                ------------------------ 


डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

सागर (म.प्र.) 470004


 

शुक्रवार, सितंबर 18, 2020

लेखिका डाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार

Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist and Social Activist 

प्रिय ब्लाॅग पाठको, आज मैं आपसे यहां अपना एक साक्षात्कार साझा कर रही हूं जिसे एक शोधार्थी द्वारा मुझसे लिया गया है। आशा है कि मेरे ब्लाॅग पाठक इस साक्षात्कार के माध्यम से मेरी सृजनयात्रा से परिचित हो सकेंगे। 


उपन्यासकार डाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार



1. आपने लिखना कब से प्रारंभ किया? क्या आप पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण लेखन की ओर प्रवृत्त हुई?


बचपन से ही लेखन कार्य कर रही हूं। मुझे लेखन की प्रेरणा मिली अपनी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ से, जो स्वयं सुविख्यात साहित्यकार रहीं हैं। मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह जो गजल विधा की सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। मैं बचपन में मां और दीदी दोनों की रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते देखती और सोचती कि किसी दिन मेरी रचनाएं भी कहीं प्रकाशित हों। इस संदर्भ में रोचक प्रसंग यह है कि उस समय मैं कक्षा आठ में पढ़ती थी। मैंने अपनी पहली रचना मां और दीदी को बिना बताए, उनसे छिपा कर वाराणसी से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘‘आज’’ में छपने के लिए भेज दी। कुछ दिन बाद जब वह रचना प्रकाशित हो गई और वह अंक मां ने देखा तो वे चकित रह गईं। यद्यपि उनसे कहीं अधिक मैं चकित रह गई थी। उस समय मुझे आशा नहीं थी कि मेरी पहली रचना बिना ‘सखेद वापसी’ के प्रकाशित हो जाएगी। आज इस प्रसंग के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि उस समय जो भी साहित्य संपादक थे उनके हृदय में साहित्यिक-नवांकुरों को प्रोत्साहित करने की भावना अवश्य रही होगी। शेष प्रेरणा जीवन के अनुभवों से ही मिलती गई और आज भी मिलती रहती है जो विभिन्न कथानकों के रूप में मेरी कलम के माध्यम से सामने आती रहती है।

Dr Sharad Singh with her mother Dr Vidyawati Malavika

Dr Sharad Singh with her elder sister Dr Varsha Singh


24 जुलाई 1977 को मेरी पहली कहानी दैनिक जागरण के रीवा (म.प्र.) संस्करण में प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था ‘भिखारिन’। भाषा-शैली की दृष्टि से कच्ची सी कहानी। उस समय मेरी आयु 14 वर्ष थी। कविताएं, नवगीत, व्यंग्य, रिपोर्ताज, बहुत कुछ लिखती रही मैं अपनी लेखन यात्रा में। उम्र बढ़ने के साथ जीवन को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदला, अपने छात्र जीवन में कुछ समय मैंने संवाददाता के रूप में पत्रकारिता भी की। उस दौरन में मुझे ग्रामीण जीवन को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। मैंने महसूस किया कि शहरों की अपेक्षा गांवों में स्त्रियों का जीवन बहुत कठिन है।

स्त्री विमर्श संबंधी मेरी पहली प्रकाशित कहानी - ‘काला चांद’ थी, जो जबलपुर (म.प्र.) से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक नवीन दुनिया, के ‘नारीनिकुंज’ परिशिष्ट में 28 अप्रैल 1983 को प्रकाशित हुई थी। इस परिशिष्ट का संपादन वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार ‘सुमित्र’ किया करते थे। राष्ट्रीय स्तर पर मेरी प्रथम चर्चित कहानी ‘गीला अंधेरा’ थी। जो मई 1996 में भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘‘वागर्थ’’ में प्रकाशित हुई थी। उस समय ‘वागर्थ’ के संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।

सच्चे अर्थों में मैं अपनी पहली कहानी ‘गीला अंधेरा’ को मानती हूं। यह कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ के मई 1996 अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘गीला अंधेरा’ को मैं अपनी ‘डेब्यू स्टोरी’ भी कह सकती हूं। यह एक ऐसी ग्रामीण स्त्री की कहानी है जो सरपंच तो चुन ली जाती है लेकिन उसके सारे अधिकार उसकी पति की मुट्ठी में रहते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध को देख कर वह कसमसाती है। उसका पति उसे कोई भी कदम उठाने से रोकता है, धमकाता है लेकिन अंततः वह एक निर्णय लेती है आंसुओं से भीगे गीले अंधेरे के बीच। इस कहानी में बुंदेलखंड का परिदृश्य और बुंदेली बोली के संवाद हैं।


मेरी इस पहली कहानी ने मुझे ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियों के दुख-कष्टों के करीब लाया। शायद यहीं से मेरे स्त्रीविमर्श लेखन की यात्रा भी शुरू हुई। अपने उपन्यासों ‘पिछले पन्ने की औरतें’, ‘पचकौड़ी’ और ‘कस्बाई सिमोन’ की नींव में ‘गीला अंधेरा’ कहानी को ही पाती हूं। दरअसल, मैं यथार्थवादी लेखन में विश्वास रखती हूं और अपने आस-पास मौजूद जीवन से ही कथानकों को चुनती हूं, विशेषरूप से स्त्री जीवन से जुड़े हुए।


2. स्त्री-विमर्श को लेकर चलने वाले समकालीन लेखन पर आपके क्या विचार हैं? इस दृष्टि से आपका प्रिय लेखक? आपकी नजर में स्त्री-विमर्शकारों ने क्या कुछ ऐसा छोड़ दिया है, जिस पर लिखा जाना चाहिए?


स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप में ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक  एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले  आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।

   देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रासदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।

    एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

    नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।

     बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रों से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से  दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।

स्त्री विमर्श को ले कर समकालीन लेखन पूरी गंभीरता के साथ सामने आ रहा है। स्त्रियां और विशेषरूप से लेखिकाएं अब मुखर हो गई हैं। वे बेझिझक उन बातों को अपनी लेखनी में उतार रही हैं जो बीते कल तक साहित्य के लिए प्रतिबंधित माने जाते थे। संदर्भगत मैं बीते कल के बारे में थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि यहां ‘बीते कल’ से मेरा आशय उस कल से है जिस पर विदेशी आक्रांताओं का साया भारतीय समाज को ग्रसित किए हुए था। घर की देहरी से पांव बाहर निकालने पर बंदिश, चेहरा दिखाने पर बंदिश, पर पुरुष से मिलना या बात करना तो दूर, पढ़ने-लिखने पर बंदिश... अनेक जंजीरें डाल दी गईं थीं स्त्री-जीवन पर। लेकिन विदेशी आक्रांताओं के पहले के समय पर दृष्टि डालें तो वहां स्त्रियां अनेक बंधनों से मुक्त दिखाई देती हैं। उन्हें वेदों को पढ़ने तक का अधिकार था। उन्हें अपनी इच्छा अनुसार वस्त्र पहनने का अधिकार था। गंधर्व विवाह एवं स्वयंवर के रूप में अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था। वस्तुतः राजनीतिक वर्चस्व ने पुरुषों की श्रेष्ठता को उनके गुणों के बदले अवगुणों में ढाल दिया और पुरुषों ने अपनी सामाजिक सत्ता का दुरुपयोग करते हुए स्त्रियों के अस्तित्व को खण्डित करने में ही अपनी शक्ति लगानी शुरू कर दी। इसका एक ज्वलंत उदाहरण ‘महाभारत’ महाकाव्य में ‘शिखण्डी’ के रूप में मिलता है। महाभारत काल के भीष्म-प्रतिज्ञ पुरुष भीष्म पितामह ने काशी की तीन राजकुमारियों का अपहरण कर उनके जीवन को ग्रहण लगा दिया। उन्हीं तीन राजकुमारियों में से एक आगे चल कर शिखण्डी के रूप में हमारे सामने आती है।


हिन्दी साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, प्रभाखेतान, सुधा आरोड़ा, अनामिका आदि वरिष्ठ लेखिकाओं ने स्त्री जीवन को अपने-अपने दृष्टिकोण से सामने रखा है। इन सभी का लेखन महत्वपूर्ण है। उर्दू में साहित्य में मुझे कुर्तलुनऐन हैदर सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। स्त्री जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण बहुत ही मर्मस्पर्शी है। उनकी कृतियों में कई बार वे अंतर्मन को झकझोरने की ताकत अनुभव होती है, गोया वे रेशा-रेशा बयान करके सबकुछ ठीक करने देने की इच्छा रखती हों।

 

Dr (Miss) Sharad Singh with Smt Chitra Mudgal at Delhi
Dr (Miss) Sharad Singh with Smt Metreyi Pushpa at Jhansi UP

जहंा तक स्त्री विमर्श का प्रश्न है तो स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि - इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को लेकर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है।

स्त्री विमर्शकारों ने क्या कुछ छोड़ दिया है? इस प्रश्न का उत्तर अभी दे पाना संभव नहीं है, यह समय पर अतिक्रमण करने वाली बात होगी। अभी तो स्त्रीविमर्श की यात्रा ज़ारी है। किसी यात्रा के थमने या समाप्त होने के बही उसका आकलन उचित होता है, पहले नहीं।  

Dr (Miss) Sharad Singh with Smt Mridula Garg at Delhi
Dr (Miss) Sharad Singh with Smt Usha Kiran Khan and Ramkumar Krishak at Patna
Dr (Miss) Sharad Singh with Akanksha Pare and Jayanti Rangnathan at Delhi

3. आपके प्रिय विदेशी रचनाकार और चिंतक? क्या स्त्री-विमर्श का कोई भारतीय चेहरा हो सकता है? यदि हाँ तो उसकी रूपरेखा क्या होगी?


मैंने लियो टाॅल्सटाय, मक्सिम गोर्की, दोस्तोएव्स्की, निकोलाई आस्त्रोवस्की, विलियम शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, जेन ऑस्टेन, फ्रेंच काफ्का, सिमोन द बोआ आदि प्रसिद्ध विदेशी लेखक-लेखिकाओं के साहित्य को पढ़ा है।

जहां तक स्त्री विमर्श के भारतीय चेहरे का प्रश्न है तो भारतीय सामाजिक परिवेश के लिए विदेशों से चेहरा नहीं ढूंढा जा सकता है और यह उचित भी नहीं है। भारत के सामाजिक मूल्य, सामाजिक अर्थवत्ता एवं समग्र वातावरण के अनुरुप विचार ही भारतीय स्त्री के विमर्श को चिंतन की ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। इसके लिए किसी एक चेहरे को ढूंढना भी मैं उचित नहीं समझती हूं। यह समग्र की अवहेलना होगी। स्त्रीविमर्श के चिंतन को समग्र की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए, इसमें कई चेहरे मिल कर एक कैनवास तैयार कर रहे हैं, कोई एक चेहरा नहीं।  

At World Book Fair Delhi, From Left- Pooja Pandey, Ms Vyas, Dr Sharad Singh, Susham Bedi, Sunita Shanoo and Sushil Siddharth

4. आपके पात्रों में क्या शरद सिंह बोलती हैं या पात्र अपनी आवाज में बात कर रहे होते हैं? उन्हें शरद सिंह की सोच गढ़ती है या वे जीवन का हूबहू चित्रण है?


मेरे पात्रों में मैं नहीं होती हूं, अपितु मेरे पात्र ही होते हैं जो मेरी लेखनी के माध्यम से अपने जीवन की पर्तें खोलते जाते हैं। यदि लेखिका के रूप में मैं अपने लेखन में अपनी उपस्थिति को स्पष्ट करूं तो यही कहूंगी कि यह एक तरह का कायांतरण (ट्रांसफार्मेशन) होता है। मैं चिंतन, मनन और शोध से उस पात्र को महसूस करती हूं जिसके बारे में मैं लिख रही होती हूं। यहां लिंग (जेंडर) और अविवाहित होना (मेरिटल स्टेटस) भी गौण हो जाता है। जैसे- ‘पिछले पन्ने की औरतें’ में मैं हर बेड़नी के साथ स्वयं को पाती हूं और उसकी पीड़ा को आत्मसात करने का प्रयास करती हूं ताकि सच सबके सामने रख सकूं। जब मैंने ’पचकौड़ी’ उपन्यास लिखा तो एक साथ दो विपरीत लिंगी पात्रों को अपनी लेखनी में जिया - पचकौड़ी, वसुंधरा उर्फ़ ठकुराईन और शेफाली। वहीं ‘कस्बाई सिमोन’ में मैं स्वयं को सुगंधा के साथ खड़ा पाती हूं। फिर जब ‘शिखण्डी’ उपन्यास लिखती हूं तो कालयात्रा करती हुई उस स्त्री के तीन जन्मों तक उसके साथ होती हूं जो महाभारत महाकाव्य में शिखण्डी के नाम से एक विशिष्ट पात्र है।

    मैं अपने कथानक समाज से चुनती हूं। जब कथानक यथार्थ से उपजे होते हैं तो स्पष्ट है कि मेरे पात्र भी एकदम सच्चे और इसी समाज का हिस्सा होते हैं। बस, मैं उन्हें कथासूत्र में बांधने का काम करती हूं ताकि पाठक को रोचकता का अनुभव हो और वह सच से भी साक्षात्कार कर ले।


5. ‘पिछले पन्ने की औरतें’ एवम् ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यासों को लिखने के पीछे आपकी क्या भावना रही है?


ये दोनों सर्वथा भिन्न कथानकों के उपन्यास हैं। ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उन स्त्रियों के पक्ष में आवाज़ उठाता है जो सदियों से सामाजिक शोषण और उपेक्षा को सह रही हैं जबकि ‘कस्बाई सिमोन’ उन स्त्रियों की बात करता है जो लिवइन रिलेशन में अपनी स्वतंत्रता ढूंढती हैं। तो पहले चर्चा करूंगी ‘पिछले पन्ने की औरतें’ के बारे में।

प्रत्येक नई धारा का प्रथम दृष्टि में ही स्वागत हो यह जरूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में रिपोर्ताजिक उपन्यास नगण्य रहे हैं, फिर भी मैंने जोखिम उठाते हुए अपने पहले उपन्यास में ही रिपोर्ताजिक शैली को अपनाया। इसी बात को यदि मैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूं तो रिपोर्ताजिक शैली ने मेरे उपन्यास के कलेवर को आत्मसात कर लिया और उसे उस बिन्दु तक पहुंचाया जहंा साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि आप जीवन के तथ्यों को उसकी समग्रता के साथ सामने रखना चाहते हैं और साथ ही विश्वास दिलाना चाहते हैं कि उपन्यास के रूप में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें नब्बे से पन्चान्बे प्रतिशत सच है तो फिक्शन की जगह सच्चाई को अधिक से अधिक जगह देनी होगी। वरना कल्पना की अधिकता सच को भी काल्पनिकता में बदलने लगती है।

हिन्दी उपन्यासों में शोधात्मक कथानकों को ले कर जोखिम उठाने की प्रवृति अभी पूर्ण व्यवहार में नहीं आई है। ऐसे समय में मेरा उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ कथानक और शिल्प दोनों की दृष्टि से परंपरागत मानकों से अलग हट कर था तो यश और अपयश दोनों का सामना मुझे करना ही था, जो मैंने किया भी।  नवीनता सदा जोखिम भरी होती है। लेकिन नवीनता ही चेतना का संचार करती है, उपन्यास की शैली और कथानक को ले कर यही मेरा मानना है। मुझे प्रसन्नता है कि पाठकों ने उसे दिल से स्वीकार किया।

बेड़िया समाज की औरतों यानी बेड़नियों के बारे में लिखने के लिए आवश्यक था कि मैं उनके बीच जा कर कुछ समय बिताऊं और उनकी जीवन-दशाओं से साक्षात्कार करूं। मैंने जब अपनी मंशा अपने मित्रों और परिचितों को बताई कि मैं बेड़नियों के जीवन पर कुछ लिखना चाहती हूं तो उनमें से कुछ ने मुझे ऐसा न करने की सलाह दी। वे इस तरह से जता रहे थे गोया मैं किसी निषिद्ध क्षेत्र में विचरण करने जा रही हूं। कुछ ने कहा कि इससे कुछ नहीं होने वाला है, न वे आपको सहयोग देंगी और न आपके लिखने से उनका भला होगा। मैंने भी ऐसे लोगों को यही उत्तर दिया कि यदि सब कुछ नकारात्मक ही सोच लिया जाए तो जीवन में सकारात्मक कुछ बचेगा ही नहीं। अरे, मुझे प्रयास तो करने दीजिए, चमत्कार की आशा तो मैं भी नहीं रखती हूं। वैसे इस प्रयास में सबसे अधिक मानसिक सहयोग मुझे मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह से मिला। यूं भी वे मुझे सदा प्रोत्साहित करती रहती हैं।

बहरहाल, मेरे सामने दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि मैं उन स्त्रियों से उनकी सच्चाई स्वीकार करवा सकूं। जिन दिनों मैं बेड़नियों की निजी ज़िन्दगी में झंाकने का प्रयास कर रही थी तो कई बार मुझे लगा कि मैं उनसे उनके पूरे भेद नहीं ले सकूंगी। मैंने पाया कि वे देहव्यापार भले ही करती हैं किन्तु उनके भीतर की औरत पूरी तरह मरी नहीं है, वह सांस ले रही है और खुल कर बाहर आना चाहती है। उनमें स्त्रीसुलभ झिझक थी जिसके कारण वे दो-तीन मुलाकातों के बाद स्वीकार करने को तैयार हुईं कि वे देह-व्यापार करती हैं। वे भी शायद मेरे धैर्य और साहस की परीक्षा ले रही थीं। इसीलिए एक बेड़नी ने मुझे लगभग चुनौती देते हुए कहा था,‘ऐसा है तो दो दिन हमारे घर ठहर कर देखो, फिर अपनी अंाखों से देख लेना।’    

मैंने भी कहा, ‘ठीक है!’ और मैं उनमें से एक के घर दो-दो, तीन-तीन दिन के लिए दो-तीन बार जा कर ठहरी।  मेरे इस व्यवहार ने उन्हें मेरे प्रति पिघला दिया और वे अपने जीवन की परतें खोलने को राजी हो गईं। मैंने पाया कि मैंने उनका विश्वास जीत लिया है फिर लिखते समय उनके विश्वास के साथ घात कैसे कर सकती थी? मेरे लिए शिल्प से कहीं अधिक उनके विश्वास का महत्व था जो पीड़ा के रूप में व्यक्त हो जाने को उद्यत था, और मुझे उस पीड़ा का साथ देना ही था। आखिर बेड़नियां सदियों से अपने दुर्भाग्य को जी रही हैं।

अब चलिए बात करते हैं ‘कस्बाई सिमोन’ की। इसका कथानक भी यथार्थ से उपजा हुआ है। आरम्भ में यह एक छोटी कहानी थी जो लिवइन रिलेशन के स्त्रीपक्ष को जांचते हुए एक उपन्यास का विस्तार लेती चली गई। वस्तुतः लिवइन रिलेशन पाश्चात्य विचारधारा है लेकिन हमारे आधुनिक समाज में जब स्त्रियां महानगरों में अकेली रहती हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, लिवइन रिलेशन का विचार उन्हें अपने हित में महसूस होता है। लेकिन क्या वाकई यह विचारधारा भारतीय स्त्रियों के हित में है? यह प्रश्न जब मेरे मन में कौंधा तो इसके साथ ही एक प्रश्न और उठ खड़ा हुआ कि यदि किसी छोटे शहर या कस्बे की युवती लिवइन रिलेशन में रहने लगे तो उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा? मैंने उन महिलाओं से भेंट की, चर्चा की जो लिवइन रिलेशन में रह रही थीं या रह चुकी थीं। संयोग से उनमें एक मेरी परिचित भी थी। उससे मुझे लिवइन रिलेशन के उन गोपन पक्षों की जानकारी मिली जो शायद एक अपरिचित स्त्री कभी साझा नहीं करती। लिवइन रिलेशन की विचारधारा एवं जीवनचर्या की पड़ताल के दौरान अनेक चैंकाने वाले तथ्य मेरे सामने आए। सोचने वाली बात है कि बिना विवाह किए साथ रहने के समझौते में जीवन बिताने का विचार रखने वाले स्त्री-पुरुष में यदि धीरे-धीरे पति की अधिकार भावना और पत्नी की पति से दब कर रहने की भावना बलवती होने लगे तो वहीं लिवइन रिलेशन की अवधारणा खण्डित हो जाती है। किसी मित्र के सपरिवार मिलने पर यदि लिवइन रिलेशन का सहचर साथी अपनी सहचरी को लिवइन रिलेशन में साथ रहने वाली स्त्री के रूप में परिचय न दे कर ‘तुम्हारी भाभी’ के रूप में परिचय दे या लिवइन रिलेशन में रहने वाली स्त्री समाज के दबाव में आ कर अन्य विवाहिताओं के साथ करवांचैथ का व्रत रखे तो ऐसे में लिवइन रिलेशन की अवधारणा कहां बची? इसका एक और घिनौना पक्ष है कि एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों के साथ उन्मुक्त संबंध बना कर भी अपने वैवाहिक जीवन के लिए एक पत्नी पा लेता है लेकिन एक स्त्री बिना विवाह के किसी पुरुष के साथ रह ले और फिर संबंध विच्छेद कर ले तो उस पर ‘‘फलां के साथ रह चुकी’’ का टैग लग जाता है जिसका उल्लेख इस तरह किया जाता है गोया वह निहायत पथभ्रष्ट स्त्री हो।

मैंने अपने उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ में लिवइन रिलेशन की अवधारणा का न तो समर्थन किसा है और न विरोध। मैं यह मानती हूं कि हर व्यक्ति को अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार होता है। लेकिन भारतीय सामाजिक परिवेश में लिवइन रिलेशन की अवधारणा के अच्छे और बुरे पक्ष को तटस्थ भाव से सामने रखने के लिए इस विषय को अपने उपन्यास का कथानक बनाया। मैं तो यही मानती हूं कि लिवइन रिलेशन एक आग का दरिया है, जिसमें जोखिम उठा सकता हो वह इसमें प्रवृत्त हो अन्यथा वैवाहिक अवधारणा को अपनाए। विशेषरूप से स्त्रियों को इस अवधारणा की बारीकियों एवं ज़मीनी कठिनाइयों को पहले परख लेना चाहिए।

समस्या क्या है कि प्रायः लोग विषय को ले कर अपने मन में तरह-तरह पूर्वाग्रह पाल लेते हैं। ऐसे में उनके लिए कथानक के मर्म को समझ पाना ज़रा कठिन हो जाता है। जब आप किसी नए विषय पर कोई कृति पढ़ रहे हों तो आपको अपना मन-मस्तिष्क सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना चाहिए अन्यथा नकारात्मक विचार कृति के सकारात्मक तत्वों से ध्यान हटा देते हैं। वैसे आज का पाठकवर्ग, विशेषरूप से युवा पीढ़ी बहुत समझदार है। वह हर तथ्य को सूक्ष्मता से समझना-बूझना चाहती है और जीवन की जटिलताओं के बीच रास्ता पा लेती है।  

 

6. एक युवा स्त्री की जीवन-नीति संबंधी मान्यता क्या है?

 

युवा स्त्रियों का आर्थिक सशक्तीकरण सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। आर्थिक रूप से आश्रित होना ही स्त्री को कमजोर बनाता है। लेकिन अर्थव्यवस्था में स्त्रियों और युवतियों को समाहित करने और कार्यस्थलों एवं सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ स्त्रियों और युवतियों के साथ होने वाली हिंसा को रोकने की भी जरूरत है। साथ ही समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी और उनके स्वास्थ्य एवं संपन्नता पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

 

उचित अवसर मिलने पर युवतियां देश का सामाजिक और आर्थिक भाग्य बदल सकती हैं। लेकिन इस परिवर्तन के लिए सतत निवेश और भागीदारी की जरूरत है, साथ ही युवतियों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोजगार से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रूप से काम करने की आवश्कता है। युवतियों का मनोबल बढ़ाया जाना चाहिए और जिन क्षेत्रों का प्रत्यक्ष प्रभाव उनके भविष्य पर पड़ने वाला है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों से संबंधित फैसलों में उन्हें सहभागी बनाया जाना चाहिए।

इस सबसे पहले आवश्क है कि युवतियों को यौनहिंसा से मुक्त समाज मिले जहां वे अभया हो कर अपना कौशल और अपनी क्षमताएं दिखा सकें। स्त्रियों के साथ हिंसा का एक और पक्ष है- घरेलू हिंसा। दुर्भाग्यवश हमारे देश में स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू हिंसा, देश का सबसे अधिक हिंसक अपराध रहा है। चूंकि हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना दर्ज़ होती है। इसलिए युवा स्त्रियों को हिंसा के प्रत्येक रूप का विरोध करना आना चाहिए।

 

6. पुरुष की ईर्ष्यालु मनोवृत्ति का जगह-जगह सामना करना पड़ता है? क्या यह सच है? आपके अनुभव क्या हैं?

 

 ईर्ष्यालु तो एक मानवीय प्रवृत्ति है। पुरुष भी ईर्ष्यालु होते हैं और स्त्रियां भी। किसी भी व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या के भाव तभी जागते हैं जब वह कुंठा से घिर जाता है। ईर्ष्या मनुष्य द्वारा अनुभव की जाने वाली सबसे दर्दनाक और विवादास्पद भावनाओं में से एक है। ईर्ष्या एक भावना है, और यह शब्द आम तौर पर विचारों और असुरक्षा की भावना को दर्शाता है। ईष्र्या अक्सर क्रोध, आक्रोश, अपर्याप्तता, लाचारी और घृणा के रूप में भावनाओं का एक संयोजन होता है। शायद दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने इस भावना का अनुभव नहीं किया होगा। ईर्ष्या की भावना पुरुषों और महिलाओं दोनों की समान रूप से पाई जाती है। अंतर केवल इस भावना को व्यक्त करने के तरीकों में है। बहुसंख्यक पुरुष आक्रामक हो कर अपनी ईर्ष्या  प्रकट करते हैं, वहीं ऐसी स्त्रियां कम ही हैं जो ईर्ष्या में सभी सीमाएं लांघ जाएं।

   निसंदेह, मुझे भी अपने जीवन में ईष्यालुओं से पाला पड़ा है किन्तु मैंने उनकी ओर कभी उस सीमा तक ध्यान नहीं दिया कि मैं अपने मूलकर्म से विचलित हो जाऊं। हमारी संस्कृति और संस्कार यही तो सिखाते हैं कि ईर्ष्या कोई ऐसा आवश्यक प्रश्न नहीं है कि जिसका उत्तर दिया जाए। ईर्ष्या को अनुत्तरित रहने दें, फिर देखें कि आप उससे प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ सकते हैं।  

 

 

7. स्त्री लेखन पुरुष लेखन से किस प्रकार भिन्न होता है?

 

यूं तो लेखन को स्त्री और पुरुष के खांचे में रखना मुझे पसंद नहीं है लेकिन जब बात कथानक की हो तो स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में अंतर को नकारा नहीं जा सकता है और इस अंतर का सीधा कारण है अनुभव क्षेत्र की परस्पर भिन्नता। जैसे एक स्त्री पुरुष के मन और जीवन के हर तत्व को समझ नहीं सकती है, ठीक उसी प्रकार पुरुष भी स्त्री जीवन के निजी अनुभवों और कठिनाइयों को अक्षरशः भांप नहीं सकता है। इसलिए दोनो के लेखन में परस्पर भिन्न अनुभवों के स्वर मुखर होते हैं जो एक-दूसरे के पूरक बनते हैं, न कम-न अधिक। दोनों की अपनी समान महत्ता है और दोनों की समान उपादेयता है।

 

8. आपके रचनाकर्म के क्या कुछ ऐसे पक्ष हैं जो पाठकों, टिप्पणीकारों, शोधार्थियों या आलोचकों की समझ से छूट गये हों?

 

मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

कुछ न कुछ छूट जाता है हर बार

एक उलाहने के लिए

छूटना भी चाहिए

अन्यथा

अवरुद्ध हो जाएगें

परस्पर संवाद।

तो छूटने के बारे में मैं क्या बताऊं, आपके इस प्रश्न का उत्तर तो पाठक, टिप्पणीकार, शोधार्थी या आलोचक ही दे सकते हैं कि वह मेरे लेखन में क्या नहीं समझ पाए? आप भी एक शोधार्थी हैं, यदि आप इस प्रश्न का कोई उत्तर देना चाहें तो उसे अपने शोधकार्य में अवश्य शामिल करें। 

 

आपको आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं!

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