फागुन माह पर मेरा बुंदेली लेख आज (06.03.2016) ‘‘पत्रिका’’ समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ है... इस बुंदेली लेख को पढ़िए और बुंदेली की मिठास का आनंद लीजिए... |
Bundeli Lekh of Dr (Miss) Sharad Singh Patrika .. 06. 03. 2016 |
लेख
करके नेह टोर जिन दइयो
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
माव, पूस के दिन बीत गए, अब जे फागुन मईना आ गओ। टेसू औ सेमर फूलन लगे। मौसम नोनो सो लगन लगो। औ इते काम के मारे फुरसत नईयां। जीने-मरबे की पर रई है... बाकी काम-काज तो लगई रैहे, कछू घड़ी मिल-बैठ के फाग को आनंद ले लौ जाये... ई बात पे ईसुरी ने जे भौतई नोनी फाग कही है-
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें
सबखों लगत रात जियत भर, जो नईं कभऊं बढ़ानें
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नई जानें
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’, करत-करत मर जाने
काल तक सबई तरफ, इते सबई कछू सिमटो-सुकड़ो सो हतो औ आज हिया पे जा बौरानी उमंग की छायरी सी परन लगी है। फाग को नसा सो चढ़न लगो है। मनो ईसुरी ने सही कही रई -
मोरे मन की हरन मुनइया, आज दिखानी नइयां
के कंऊ हुए लाल के संगै, पकरी पिंजरा मइयां
पत्तन-पत्तन ढूंढ़ फिरै हैं, बैठी कौन डरइयां
कात ‘ईसुरी’ इनके लाने टोरी सरग तरइयां
अब ईसुरी तो हते फाग-गुरू..... उनको मुकाबलो को कर सकत है.... ऐसी-ऐसी फागें रच डारीं, के सुनत-सुनत मन नई अघात है। किसम-किसम की फागें, ऐसी नोनी फागें के कछू ने पूछो। जा तो सबई जानत आंय, के ईसुरी पे रजऊ के प्रेम को रंग चढ़ो रओ। औ इत्तो चढ़ो रओ के ईसुरी खों रजऊ के सिवाय कछू सूझत ने हतो। रजऊ के लाने जीने-मरबे की कसमें सी खात रहतते। जा के लाने उनने खुदई जा फाग कही रई -
जौ जी रजऊ-रजऊ के लाने, का काऊ सें कानें
जौं लों जीनें जियत जिन्दगी, रजऊ के हेत कमानें
पेले भोजन करें रजऊ आ, पाछे कें मोय खानें
रजऊ-रजऊ कौ नांव ‘ईसुरी’, लेत-लेत मर जाने
लेकन मनो ऐसो भी नइयां, के ईसुरी ने कौऊ और रंग पे कछू और ने कहो होय..... उनकी कही फाग में सबई रंग से दिखात हैं। कारे रंग बारन पे उन्ने जे फाग कही है...
कारे सबरे होत बिकारे, जितने ई रंग बारे
कारे नांग सफां देखत के, काटत प्रान निकारे
कारे भमर रहत कमलन पै, ले पराग गुंजारे
कारे दगाबाज हैं सजनी, ई रंग से हम हारे
‘ईसुर’ कारे खकल खात हैं, जिहर न जात उतारे
मनो, जा बात भी भूलबे की नईंया के ईसुरी को कारे रंग वारे किसन कन्हैया सोई प्यारे हतेे। बे कहत हैं-
काम के बान कामनिन खों भये, कारे नंद दुलारे
बाकी जे फागुन मईना में सबई खों मिल जुल के रहबो चइये, चाहे कछू हो जाय। औ संगे ईसुरी की जा फाग याद रखो चइये -
करके नेह टोर जिन दइयो, दिन-दिन और बढ़ईयो
जैसें मिलै दूध में पानी, ऊंसई मनै मिलैयो
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो
कात ‘ईसुरी’ बांय गहे की, खबर बिसर ने जइयो
जो सबई जनें मिल-जुल के रेहें, सो सबई दिन फागुन से नोने लगहें। सो फागुन की जै-जै, औ सबई जनें की जै-जै।
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- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
माव, पूस के दिन बीत गए, अब जे फागुन मईना आ गओ। टेसू औ सेमर फूलन लगे। मौसम नोनो सो लगन लगो। औ इते काम के मारे फुरसत नईयां। जीने-मरबे की पर रई है... बाकी काम-काज तो लगई रैहे, कछू घड़ी मिल-बैठ के फाग को आनंद ले लौ जाये... ई बात पे ईसुरी ने जे भौतई नोनी फाग कही है-
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें
सबखों लगत रात जियत भर, जो नईं कभऊं बढ़ानें
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नई जानें
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’, करत-करत मर जाने
काल तक सबई तरफ, इते सबई कछू सिमटो-सुकड़ो सो हतो औ आज हिया पे जा बौरानी उमंग की छायरी सी परन लगी है। फाग को नसा सो चढ़न लगो है। मनो ईसुरी ने सही कही रई -
मोरे मन की हरन मुनइया, आज दिखानी नइयां
के कंऊ हुए लाल के संगै, पकरी पिंजरा मइयां
पत्तन-पत्तन ढूंढ़ फिरै हैं, बैठी कौन डरइयां
कात ‘ईसुरी’ इनके लाने टोरी सरग तरइयां
अब ईसुरी तो हते फाग-गुरू..... उनको मुकाबलो को कर सकत है.... ऐसी-ऐसी फागें रच डारीं, के सुनत-सुनत मन नई अघात है। किसम-किसम की फागें, ऐसी नोनी फागें के कछू ने पूछो। जा तो सबई जानत आंय, के ईसुरी पे रजऊ के प्रेम को रंग चढ़ो रओ। औ इत्तो चढ़ो रओ के ईसुरी खों रजऊ के सिवाय कछू सूझत ने हतो। रजऊ के लाने जीने-मरबे की कसमें सी खात रहतते। जा के लाने उनने खुदई जा फाग कही रई -
जौ जी रजऊ-रजऊ के लाने, का काऊ सें कानें
जौं लों जीनें जियत जिन्दगी, रजऊ के हेत कमानें
पेले भोजन करें रजऊ आ, पाछे कें मोय खानें
रजऊ-रजऊ कौ नांव ‘ईसुरी’, लेत-लेत मर जाने
लेकन मनो ऐसो भी नइयां, के ईसुरी ने कौऊ और रंग पे कछू और ने कहो होय..... उनकी कही फाग में सबई रंग से दिखात हैं। कारे रंग बारन पे उन्ने जे फाग कही है...
कारे सबरे होत बिकारे, जितने ई रंग बारे
कारे नांग सफां देखत के, काटत प्रान निकारे
कारे भमर रहत कमलन पै, ले पराग गुंजारे
कारे दगाबाज हैं सजनी, ई रंग से हम हारे
‘ईसुर’ कारे खकल खात हैं, जिहर न जात उतारे
मनो, जा बात भी भूलबे की नईंया के ईसुरी को कारे रंग वारे किसन कन्हैया सोई प्यारे हतेे। बे कहत हैं-
काम के बान कामनिन खों भये, कारे नंद दुलारे
बाकी जे फागुन मईना में सबई खों मिल जुल के रहबो चइये, चाहे कछू हो जाय। औ संगे ईसुरी की जा फाग याद रखो चइये -
करके नेह टोर जिन दइयो, दिन-दिन और बढ़ईयो
जैसें मिलै दूध में पानी, ऊंसई मनै मिलैयो
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो
कात ‘ईसुरी’ बांय गहे की, खबर बिसर ने जइयो
जो सबई जनें मिल-जुल के रेहें, सो सबई दिन फागुन से नोने लगहें। सो फागुन की जै-जै, औ सबई जनें की जै-जै।
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