समकालीन कथा यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Journey Of Contemporary Hindi Story By Dr (Miss) SHARAD SINGH
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सोमवार, दिसंबर 28, 2015
सोमवार, दिसंबर 21, 2015
पाठक मंच भोपाल हेतु मेरे उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ पर लेखिका डाॅ. (श्रीमती) आनंद सरदाना द्वारा लिखी गई समीक्षात्मक टिप्पणी
Novel of Dr Sharad Singh - " Kasbai Simon " |
डाॅ. शरद सिंह की पुस्तक ‘‘कस्बाई सिमोन’’ पर समीक्षा
निःसंदेह हर व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है परन्तु हमें यह भी मानना पड़ेगा कि हम समाज की परम्पराओं वाली मानसिकता को नकार कर नहीं जी सकते। मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है परन्तु हर जगह वह बंधनों में बंधा होता है। सागर की भी तो सीमा होती है। समसामयिक समस्याओं में जिस तरह समलैंगिक विवाह चुनौती बन रहे हैं उसी तरह लिव इन रिलेशन भी बहुत बड़ा भ्रम है या इसे मृगतृष्णा भी कह सकते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिस समाज में हम रहते हैं वहां के नियम, मर्यादा बनाए रखने में ही जीवन सुखी रह सकता है। और समाज भी उन्नति और प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। अपवाद भी होते ही हैं जो समय, नियम कानून तोड़ कर अलग रास्ते बनाते हैं परन्तु शादी न कर के ‘लिव इन रिलेशन में रहने वालों का भविष्य अंधेरा ही रहता है। इस उपन्यास का नायक रितिक तो शादी कर के समाज का हिस्सा बन जाता है परन्तु सुगन्धा अपनी सुगन्ध खो कर भी दिशाहीन ही रहती है।
लेखिका ने बहुत ही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘लिव इन रिलेशन’ का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जो युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन दे सकता है।
------------------------------निःसंदेह हर व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है परन्तु हमें यह भी मानना पड़ेगा कि हम समाज की परम्पराओं वाली मानसिकता को नकार कर नहीं जी सकते। मनुष्य स्वतंत्र पैदा होता है परन्तु हर जगह वह बंधनों में बंधा होता है। सागर की भी तो सीमा होती है। समसामयिक समस्याओं में जिस तरह समलैंगिक विवाह चुनौती बन रहे हैं उसी तरह लिव इन रिलेशन भी बहुत बड़ा भ्रम है या इसे मृगतृष्णा भी कह सकते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिस समाज में हम रहते हैं वहां के नियम, मर्यादा बनाए रखने में ही जीवन सुखी रह सकता है। और समाज भी उन्नति और प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। अपवाद भी होते ही हैं जो समय, नियम कानून तोड़ कर अलग रास्ते बनाते हैं परन्तु शादी न कर के ‘लिव इन रिलेशन में रहने वालों का भविष्य अंधेरा ही रहता है। इस उपन्यास का नायक रितिक तो शादी कर के समाज का हिस्सा बन जाता है परन्तु सुगन्धा अपनी सुगन्ध खो कर भी दिशाहीन ही रहती है।
लेखिका ने बहुत ही मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘लिव इन रिलेशन’ का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है जो युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन दे सकता है।
डाॅ (श्रीमती) आनंद सरदाना
एम.177 गौतम नगर
भोपाल -462023
पाठक मंच पन्ना हेतु मेरे उपन्यास “कस्बाई सिमोन”पर लेखक बिहारी दुबे द्वारा लिखा गया पर्चा…
कृति- कस्बाई सिमोन रचनाकार-शरद सिंह
प्रकाशक-सामयिक प्रकाशन
नई दिल्ली-110002
मूल्य- रू 300/-
समीक्षक -बिहारी
दुबे
मेनका टाकीज के पास
बेनीसागर, पन्ना
(म.प्र.)-488001
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कस्बाई सिमोन
-बिहारी दुबे
सुपरिचित कथाकार-उपन्यासकार शरद सिंह का उपन्यास ’कस्बाई सिमोन’ पाश्चात्य देशों से आयातित जीवनशैली ’लिव इन रलेशनशिप’ पर आधारित है,जिसके तहत स्त्री-पुरुष,पुरातन सामाजिक-वैवाहिक नियमों-परंपराओं की अवहेलना करते हुए,बिना विवाह किए पति-पत्नि की तरह रहते हैं,यह जीवनशैली अन्यान्य अनेक तथाकथित प्रगतिशील विचारधाराओं की ही तरह, भारत के महानगरों में संक्रमित होकर,पैर पसार चली है,फिर भी, भले ही कुछ नामचीन्ह हस्तियों के ‘लिव-इन-रलेशनशिप’के किस्से चटखारों के साथ कहे सुने जाने लगे हों किन्तु यह जीवनशैली भारतीय आबोहवा में अभी तक अपना स्थान बनाने में कामयाब नहीं हो पाई है और निकट भविष्य में ऐसा हो पाने की कोई संभावना भी दिखाई नहीं देती।
शरद सिंह, जिन्हें स्त्री जीवन के सूक्ष्म विश्लेषण में महारत हासिल है और अपनी प्रत्येक नई कृति में नए-नए विषय लेकर रचना-कर्म करने में सिद्धहस्त हैं,ने अपनी इसी विषेषता के साथ ’कस्बाई सिमोन’ में कृति की प्रमुख पात्र ’सुगन्धा’ के इर्द-गिर्द सारे कथानक का ताना-बाना बुनते हुए एक स्त्री की दृष्टि से इस जीवनशैली के गुण-दोषों का विवेचन करने का सफल प्रयास किया है। ‘अपनी बात‘ के अन्तर्गत शरद सिंह ने स्पष्ट रूप से घोषित करते हुए निवेदन किया है कि इस उपन्यास के कथानक का उद्देष्य किसी विचार-विषेष की पैरवी नहीं करना नहीं अपितु उस विचार-विशेष के,कस्बाई स्त्री के जीवन पर पडने वाले प्रभावों को जांचना-परखना है।अपनी इस उद्घोषणा के अनुरूप लेखिका ने कहीं भी,कभी भी इस जीवनशैली के पक्ष अथवा विपक्ष में ‘निजी तर्क /दृष्टिकोण‘ थोपकर उसे अच्छा या बुरा निरूपित करने का प्रयास नहीं किया है,हां,इसी बहाने कृति की प्रमुख पात्र ‘सुगंधा के माध्यम से ही पुरूष प्रधान समाज और पुरूषों की मानसिकता पर तीखे कटाक्ष करने से भी वे नहीं चूकी है,यथा-
’फिर एक प्रष्न उठता है कि मनुष्य के हित से क्या तात्पर्य है जिस मनुष्य हित के अन्तर्गत सामाजिक हित की बात की जाती है वह तो पुरूष हित का पर्याय होता है तो स्त्री हित कहां है?‘(पृ071) अथवा
‘दुख की बात तो ये है कि समाज के रूप में उपस्थित पुरूष और पुरूषों की दृष्टि में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड में हर उस स्त्री को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है जो पुरूष की दासी या वैश्या बने बिना जीना चाहती है।’(पृ071 अथवा
’प्रकृति ने स्त्री देह को जो विशेषताएं दी हैं,उन्हीं विशेषताओं को पुरूष स्त्री के विरूद्ध इस्तेमाल करता आ रहा है।वह औरत को डराता रहता है कि प्रकृति ने तुम्हें गर्भवती होने की जो विशेषता दी है उसी से में तुमको ’कुलटा’ और ’कलंकिनी’ बना दूंगा।’(पृ0204)
बावजूद इसके ’कस्बाई सिमोन’ सजग दृष्टि स्थिरचित्त,स्पष्ट दृष्टिकोण,निष्पक्ष तर्क-वितर्कों,सुविचारित कथाक्रम,सुगठित कथा प्रवाह सतर्क विषयानुरूप शब्द चयन के साथ रची गई कृति के रूप में ’लिव इन रलेशनशिप’ को लेकर एक भारतीय कस्बे में रहने वाली स्त्री के संघर्ष,उसके मन में होने वाली उथल पुथल,समाज की उपेक्षा,अपमान और कटाक्षों का तत्परतापूर्वक सटीक उत्तर देने की उसकी उत्कंठा और उसके मन में पल प्रतिपल चल रही कषमकष का जीवन्त दस्तावेज बन गइ्र्र है ।
शरद सिंह बधाई की पात्र हैं कि वे कृति के मूल विषय से कहीं भी भटकी नहीं हैं,साथ ही,भरपूर अवसर होने के बावजूद अन्य कुछेक लेखिकाओं की तरह बहक कर मात्र प्रचार के लिए ऐसे शब्दों,जिन्हें सामान्यतः अष्लील माना जाता है के प्रयोग के व्यामोह से बचने में भी सफल रहीं हैं।हां,कुछेक स्थलों पर ऐसे संकेत अवष्य दिखाई देते हैं,जिनपर,शायद कुछ विद्वत्जनों को कुछ आपत्ति हो सकती है जैसे कि-’क्या ऐसे पुरूषों का पौरुष सिर्फ उनकी जंघाओं के बीच ही सीमित रहता है? क्या उनके बाजुओं तक नहीं पहुंच पाता?डूब मरना चाहिए ऐसे पुरूषों को।’(पृ0104)
’लुआठी क्यों नहीं घुसेड लेती अपनी...........में’।(पृ0105)
किन्तु ऐसे जटिल विषय पर स्त्री मन की उथल पुथल,उसके मनोमस्तिष्क को पल पल मथ रहे प्रश्नों-प्रतिक्रियाओं,और इस अपरंपरागत जीवनशैली के प्रति लोगों के नजरिए को स्पष्ट करने के लिए ये संकेत आवष्यक थे।इसके लिए भी शरद सिंह बधाई की हकदार हैं कि उन्होने इस उपन्यास के माध्यम से स्त्री-पुरूष के संबंधों को समाज की विकृत सोच,समाज में व्याप्त विरोधाभासी मान्यताओं और कुछ दोषपूर्ण परंपराओं/विचारधाराओं तथा स्त्री को कमजोर करने वाली स्वयं स्त्रियों की कुछ मान्यताओं/धारणाओं/आदतों की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिन्हें सामान्य तौर पर या तो हंसकर टाल दिया जाता है अथवा बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए उनकी तरफ से नजर हटा ली जाती है,यथा-’अकेली औरत को रखने वाले तो बहुत मिल जाते हैं,घर देने वाला कोई नहीं मिलता।’(पृ050)
’मैं अवचेतन में उसके अनुरूप ढलती जा रही थी,संभवतः यह स्त्री प्रकृति का स्वभाव था स्त्री स्वयं को ढल जाने देती हे,पुरूष की इच्छाओं के अनुरूप।’(पृ076)
’पिताजी आप जिस सामाजिक प्रतिष्ठा की बात कर रहे हैं वह उस समय कहां चली जाती है जब किसी नववधु को जलाकर मार दिया जाता है,यह प्रतिष्ठा उस समय कहां चली जाती है जब किसी पत्नि से छुटकारा पाने के लिए अकारण उसे बदनाम करार दे दिया जाता है।पिताजी जिस समाज और सामाजिक प्रतिष्ठा का आप वास्ता दे रहे हैं वह प्रतिष्ठा मिलती है उस पति को जिसने अपनी पत्नि को जलाया था,दसियों परिवार अपनी -अपनी बेटियां लेकर खडे हो जाते हें कि लो तुमने एक को मारा तो वह उसी लायक रही होगी,अब हमारी बेटी से शादी करो और खुष रहो।ये समाज प्रतिष्ठा के नाम पर इंसान से उसके अधिकारो को छीन लेता है,तुमने फलां से प्यार किया तो क्यों किया?तुमने फलां से शादी की तो कयों की ?तुम प्यार नहीं कर सकते हो क्योंकि समाज कहलाने वाले चंद लोग नहीं चाहते हैं,तुम अपनी इच्छानुसार शादी नहीं कर सकते हो क्योंकि समाज कहलाने वाले लोग नहीं चाहते हैं।आखिर कब तक हम अपनी कायरता को सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर ढोते रहेंगे।’’(पृ093,94)
’समाज और रिश्तेदार चुप बैठ जाएं तो बहुत सारी समस्याएं पैदा ही न हों।’(पृ0106)
’माता-पिता के लिए बच्चे सदा बच्चे ही रहते हैं चाहे वे किसी भी आयु वर्ग को प्राप्त कर लें किन्तु बच्चों के लिए माता-पिता उतने बडे नहीं रह जातें हैं कि बच्चे उनके निर्णयों को आंख मूंदकर आत्मसात कर लें।’(पृ0108),
’तू नहीं और सही,और नहीं और सही स्त्रियों के लिए ये उक्ति बडी सहजता से दे दी जाती है जबकि स्त्रियों के लिए प्रेम का पात्र बार-बार बदलना संभव नहीं होता है। देह-पात्र बदल सकते हैं,नेह पात्र नहीं।’(पृ0116)
’ ’संबंधों की यायावरी स्त्री देह को भले ही नये-नकोर अनुभव देदे किन्तु स्त्री मन को चैन नहीं दे पाती है।’’(पृ0148)
’कस्बाई सिमोन’ में और भी बहुत कुछ है जिसके संबंध में बहुत कुछ कहा-लिखा जा सकता है किन्तु आलेख का अत्यधिक विस्तार कहीं बोझिल न बन जाए इसलिए अपनी बात यहीं समाप्त करते हुए यही कहना उपयुक्त होगा कि कुलमिलाकर बेबाक,निर्भीक,सुस्पष्ट,निष्पक्ष अभिव्यक्ति से युक्त शरद सिंह की यह कृति ’कस्बाई सिमोन’ एक श्रेष्ठ कृति है जिसके लिए एक बार पुनः शरद सिंह को हार्दिक बधाई। ऐसी कृतियों का स्वागत खुले मन ओर खुले हांथों से होना चाहिए।
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