लोकप्रिय वेब पत्रिका ‘शब्दांकन ’ में मेरी कहानी "एक और सजा ..." प्रकाशित हुई है जिसके लिए मैं भरत तिवारी जी की आभारी हूं।
मेरी यह कहानी आप सभी के लिए ....इसे पूरा पढ़ने के लिए कृपया ‘शब्दांकन ’ के इस लिंक पर क्लिक करें....
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डॉ.
(सुश्री) शरद सिंह की ये कहानी "एक और सजा ..." कत्तई साधारण नहीं है,
उन्होंने जिस तरह से गाँव के परिवेश में, आम इंसानों को पात्र बनाकर इस
कहानी को लिखा है वो जल्दी पढने को नहीं मिलता
पात्रों के आपसी संवाद बहुत कुछ कहते हैं… सुखबाई का ये सोचना “औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे।“ क्या कुछ नहीं बयां करता ?
या फिर फुग्गन के लिए ये कि “कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी। टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा”
बहरहाल मैं आलोचक नहीं हूँ, ऊपर लिखी बातें एक पाठक के रूप में महसूस करीं सो आपसे साझा कर दीं, और बहुत से क्षण है जो आपको बीच-बीच में सोचने पर मजबूर करते रहेंगे ...
एक बात और कि कहानी का शीर्षक “एक और सजा...” कितना उचित शीर्षक है, ये आप कहानी पूरी पढ़ने के बाद ज़रूर कहेंगे
आपका
भरत
===========================
कहानी - एक और सजा ... डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
www.shabdankan.com/2013/05/sharad-singh.html
पात्रों के आपसी संवाद बहुत कुछ कहते हैं… सुखबाई का ये सोचना “औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे।“ क्या कुछ नहीं बयां करता ?
या फिर फुग्गन के लिए ये कि “कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी। टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा”
बहरहाल मैं आलोचक नहीं हूँ, ऊपर लिखी बातें एक पाठक के रूप में महसूस करीं सो आपसे साझा कर दीं, और बहुत से क्षण है जो आपको बीच-बीच में सोचने पर मजबूर करते रहेंगे ...
एक बात और कि कहानी का शीर्षक “एक और सजा...” कितना उचित शीर्षक है, ये आप कहानी पूरी पढ़ने के बाद ज़रूर कहेंगे
आपका
भरत
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कहानी - एक और सजा ... डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
www.shabdankan.com/2013/05/sharad-singh.html
एम. ए.(प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व) स्वर्ण पदक प्राप्त , एम. ए. (मध्यकालीन भारतीय इतिहास), पीएच. डी. (खजुराहो की मूर्तिकला का सौंदर्यात्मक अध्ययन) शिक्षित, सागर (मध्य प्रदेश) में रहने वाली विदुषी डॅा. (सुश्री) शरद सिंह का जन्म पन्ना में हुआ है.
उनकी प्रकाशित कृतियों मे शामिल है - उपन्यास - 'पिछले पन्ने की औरतें', कहानी संग्रह- 'बाबा फ़रीद अब नहीं आते', 'तीली-तीली आग', साक्षरता विषयक- दस कहानी संग्रह, मध्य प्रदेश की आदिवासी जनजातियों के जीवन पर दस पुस्तकें, शोध ग्रंथ- खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व, न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियाँ, महामति प्राणनाथ: एक युगांतरकारी व्यक्तित्व। रेडियो नाटक संग्रह- 'आधी दुनिया पूरी धूप'। दो कविता संग्रह तथा अन्य कृतियाँ।
इसके अलावा उन्होंने कहानियों का पंजाबी, बुंदेली, उर्दू, गुजराती, उड़िया एवं मलयालम भाषाओं में अनुवाद भी करा है, साथ ही रेडियो, टेलीविजन एवं यूनीसेफ के लिए विभिन्न विषयों पर धारावाहिक एवं पटकथा लेखन। शैक्षणिक विषयों पर फ़िल्म हेतु पटकथा लेखन एवं फ़िल्म-संपादन।
उनको मिले पुरस्कार एवं सम्मानों में गृह मंत्रालय भारत सरकार का 'राष्ट्रीय गोवंद वल्लभ पंत पुरस्कार' पुस्तक 'न्यायालयिक विज्ञान की नयी चुनौतियों पर', श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति पुरस्कार एवं 'दाजी सम्मान' - साहित्य सेवा हेतु, कस्तुरीदेवी चतुर्वेदी स्मृति लोकभाषा सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण तथा 'लीडिंग लेडी ऑफ मध्यप्रदेश' सम्मान आदि शामिल हैं।
मध्य प्रदेश लेखक संघ एवं जिला पुरातत्व संघ की सदस्य डॅा. (सुश्री) शरद सिंह स्वतंत्र लेखन एवं दलित, शोषित स्त्रियों के पक्ष में कार्य से जुड़ी हैं।
सम्पर्क:
पता: एम- 111, शान्ति विहार, रजाखेड़ी, सागर (म.प्र.)
ई. : sharadsingh1963@yahoo.co.in
मो. : 094 2519 2542
एक और सजा... - डॅा. (सुश्री) शरद सिंह
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ये तुमने अच्छा किया बड़ी ठकुराइन कि फुग्गन को खूंटे से बांध
दिया...अब कम से कम छुट्टे सांड़-सा तो नहीं घूमेगा।’ नववधू के रूप में
जगतरानी का गृहप्रवेश कराते समय एक ठसकेदार औरत ने जगतरानी की सास से ये
बात कही थी।
‘छुट्टे सांड़-सा’ जगतरानी चौंकी थी। वैसे उसे कुछ-कुछ भनक तो अपने मायके में विवाह के पूर्व ही लग गई थी कि उसका होने वाला पति फुग्गन सिंह दिलफेंक है।
‘अरे, ठाकुरों का बेटा दो-चार जगह मुंह न मारे तो वो ठाकुर का बेटा कैसे हुआ?’ फुग्गन का रिश्ता ले कर आई चाची जी ने अपनी हथेली पर खैनी मलते हुए कहा था,‘खासा बांका-सजीला है। फिलिम का हीरो-सा दिखता है। हमारी जगत और फुग्गन की जोड़ी राम-सीता जैसी खूब जमेगी।
उस समय किसी को भी इस बात का अंदेशा नहीं था कि फुग्गन राम निकलेगा या रावण।
विवाह धूम-धाम से हुआ। अपनी हैसियत के अनुसार भरपूर दान-दहेज दिया जगतरानी के पिता ने। विवाह की धूम ऐसी कि चार गाँव तक जगतरानी के विवाह की चर्चा गूंजती रही। किन्तु जगतरानी को ससुराल में क़दम रखते ही पता चल गया था कि उसका पति फुग्गन अव्वल दर्जे का लम्पट इंसान है। मगर विवाह हो जाने के बाद इस जानकारी का कोई महत्व नहीं था। फुग्गन जैसा भी था, उसका पति बन चुका था और जीवन भर उसके साथ निर्वाह करना ही जगतरानी की नियति थी।
‘तू तो बड़ी ठंडी-सी है...ज़रा लटके-झटके तो दिखा...चल ये ले...गिलास में डाल कर मुझे पिला।’ फुग्गन ने सुहागरात को ही भविष्य की सारी रूपरेखा दिखा दी थी जगतरानी को।
‘मैं ठकुराइन हूं...ये सब करना है तो कहीं और जाओ!’ भड़क कर कहा था जगतरानी ने। वह भी दबने को तैयार नहीं हुई। यद्यपि उसे लगा था कि उसका पति इस पलट उत्तर पर उसे मारेगा-पीटेगा। लेकिन हुआ इसके उलट। फुग्गन डर गया। उसे लगा कि यदि जगतरानी ने उसकी बात सबको बता दी तो अम्मा और पिताजी तो डांटेंगे ही, बड़े दाऊ तो शायद गोली से ही उड़ा दें।
‘मैं तो मज़ाक कर रहा था....आप तो बुरा मान गईं।’ ‘तुम’ से ‘आप’ पर आते हुए फुग्गन ने जगतरानी के आगे हथियार डाल दिए। लेकिन उसी रात यह भी सिद्ध हो गया कि फुग्गन और जगतरानी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहेगा।
‘छुट्टे सांड़-सा’ जगतरानी चौंकी थी। वैसे उसे कुछ-कुछ भनक तो अपने मायके में विवाह के पूर्व ही लग गई थी कि उसका होने वाला पति फुग्गन सिंह दिलफेंक है।
‘अरे, ठाकुरों का बेटा दो-चार जगह मुंह न मारे तो वो ठाकुर का बेटा कैसे हुआ?’ फुग्गन का रिश्ता ले कर आई चाची जी ने अपनी हथेली पर खैनी मलते हुए कहा था,‘खासा बांका-सजीला है। फिलिम का हीरो-सा दिखता है। हमारी जगत और फुग्गन की जोड़ी राम-सीता जैसी खूब जमेगी।
उस समय किसी को भी इस बात का अंदेशा नहीं था कि फुग्गन राम निकलेगा या रावण।
विवाह धूम-धाम से हुआ। अपनी हैसियत के अनुसार भरपूर दान-दहेज दिया जगतरानी के पिता ने। विवाह की धूम ऐसी कि चार गाँव तक जगतरानी के विवाह की चर्चा गूंजती रही। किन्तु जगतरानी को ससुराल में क़दम रखते ही पता चल गया था कि उसका पति फुग्गन अव्वल दर्जे का लम्पट इंसान है। मगर विवाह हो जाने के बाद इस जानकारी का कोई महत्व नहीं था। फुग्गन जैसा भी था, उसका पति बन चुका था और जीवन भर उसके साथ निर्वाह करना ही जगतरानी की नियति थी।
‘तू तो बड़ी ठंडी-सी है...ज़रा लटके-झटके तो दिखा...चल ये ले...गिलास में डाल कर मुझे पिला।’ फुग्गन ने सुहागरात को ही भविष्य की सारी रूपरेखा दिखा दी थी जगतरानी को।
‘मैं ठकुराइन हूं...ये सब करना है तो कहीं और जाओ!’ भड़क कर कहा था जगतरानी ने। वह भी दबने को तैयार नहीं हुई। यद्यपि उसे लगा था कि उसका पति इस पलट उत्तर पर उसे मारेगा-पीटेगा। लेकिन हुआ इसके उलट। फुग्गन डर गया। उसे लगा कि यदि जगतरानी ने उसकी बात सबको बता दी तो अम्मा और पिताजी तो डांटेंगे ही, बड़े दाऊ तो शायद गोली से ही उड़ा दें।
‘मैं तो मज़ाक कर रहा था....आप तो बुरा मान गईं।’ ‘तुम’ से ‘आप’ पर आते हुए फुग्गन ने जगतरानी के आगे हथियार डाल दिए। लेकिन उसी रात यह भी सिद्ध हो गया कि फुग्गन और जगतरानी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहेगा।
पेज - 2
समय व्यतीत होने के साथ जगतरानी दो बेटों की माँ बनी लेकिन इसका अर्थ
यह नहीं था कि उसने दाम्पत्य सुख पाया हो। एक कत्र्तव्य की भांति वह संबंध
को निभाती रही और फुगग्न भी। अन्तर था तो बस इतना कि जगतरानी के पास फुग्गन
का और कोई विकल्प नहीं था जबकि फुग्गन के पास जगतरानी के विकल्प ही विकल्प
थे। पैसेवाले पुरुषों के लिए विकल्प के सभी रास्ते खुले रहते हैं। फुग्गन
इस सच्चाई को जानता था इसीलिए उसे जगतरानी को घर और कुल-खानदान की शोभा
बनाए रखने में कोई कठिनाई महसूस नहीं होती थी। उसे जिस तरह की शारीरिक भूख
थी, उसके लिए पैसा फेंक-तमाशा देख वाला मंत्र उसे आता था। विवाह के पहले से
ही वह तो इस रास्ते पर चल रहा था। विवाह के बाद तो और भी कोई कठिनाई नहीं
थी क्योंकि अम्मा, पिताजी और बड़े दाऊ को ठाकुर कुल की बहू और खानदान का
नाम आगे बढ़ाने वाले पोते मिल गए थे। ऊपर से देखने में फुग्गन सिंह का
परिवार सबसे सुखी परिवार था। धन, धान्य, संतान आदि सभी कुछ तो था।
भीतर की सच्चाई कुछ और थी। फुग्गन सिंह के परिवार में सबसे दुखी और असंतुष्ट कोई थी तो जगतरानी। कहने को घर की छोटी मालकिन किन्तु दो बेटों के पैदा होने के बाद से फुग्गन सिंह ने उसे हाथ लगाना भी छोड़ दिया था। बाहर से भर पेट खा कर आने वाले को घर का भोजन भला कहां रुचता?
जगतरानी सारे व्रत, उपवास रखती। वट-सावित्री और करवाचैथ का निर्जला व्रत भी रखती।
‘देखना अगले सात जनम भी फुग्गन ही तुझे पति के रूप में मिलेगा!’ जगतरानी की सास गद्गद् हो कर कहती।
सात जनम ! हुंह! जगतरानी का वश चलता तो उल्टे सात फेरे लेकर फुग्गन के वैवाहिक बंधन से आजाद हो जाती। मगर सब कुछ सोचने से थोड़े ही मिल जाता है? वह जानती थी कि अगले सात जन्म में फुग्गन मिले या न मिले किन्तु इस जन्म में तो उसी के साथ निभाना पड़ेगा।
फुग्गन सिंह के किस्से जगतरानी के कानों तक जा ही पहुंचते। कल तक फलां से उसके संबंध बने हुए थे और आजकल फलां से संबंध चल रहे हैं। जगतरानी को पता रहता था कि फुग्गन सिंह देर रात तक कहां-कहां मुंह मारते रहते हैं। फिर भी वह अनभिज्ञ होने का नाटक करती। मुंहलगी नौकरानी और अधिक कृपा पाने की लालच में फुग्गन की जासूसी करती और जगतरानी को बताती रहती। जगतरानी यूं तो ध्यान से सुनती किन्तु प्रत्यक्षतः यही जताती कि उसे ऐसी किसी जानकारी में तनिक भी रुचि नहीं है। नौकारानी भी जानती थी कि मालकिन को रुचि है लेकिन अरुचि होने का दिखावा करती है। यह सूचना का एक ऐसा आदान-प्रदान था जो पूरी उत्सुकता के साथ लिया-दिया जाता किन्तु निस्पृह होने का नाटक करते हुए।
भीतर की सच्चाई कुछ और थी। फुग्गन सिंह के परिवार में सबसे दुखी और असंतुष्ट कोई थी तो जगतरानी। कहने को घर की छोटी मालकिन किन्तु दो बेटों के पैदा होने के बाद से फुग्गन सिंह ने उसे हाथ लगाना भी छोड़ दिया था। बाहर से भर पेट खा कर आने वाले को घर का भोजन भला कहां रुचता?
जगतरानी सारे व्रत, उपवास रखती। वट-सावित्री और करवाचैथ का निर्जला व्रत भी रखती।
‘देखना अगले सात जनम भी फुग्गन ही तुझे पति के रूप में मिलेगा!’ जगतरानी की सास गद्गद् हो कर कहती।
सात जनम ! हुंह! जगतरानी का वश चलता तो उल्टे सात फेरे लेकर फुग्गन के वैवाहिक बंधन से आजाद हो जाती। मगर सब कुछ सोचने से थोड़े ही मिल जाता है? वह जानती थी कि अगले सात जन्म में फुग्गन मिले या न मिले किन्तु इस जन्म में तो उसी के साथ निभाना पड़ेगा।
फुग्गन सिंह के किस्से जगतरानी के कानों तक जा ही पहुंचते। कल तक फलां से उसके संबंध बने हुए थे और आजकल फलां से संबंध चल रहे हैं। जगतरानी को पता रहता था कि फुग्गन सिंह देर रात तक कहां-कहां मुंह मारते रहते हैं। फिर भी वह अनभिज्ञ होने का नाटक करती। मुंहलगी नौकरानी और अधिक कृपा पाने की लालच में फुग्गन की जासूसी करती और जगतरानी को बताती रहती। जगतरानी यूं तो ध्यान से सुनती किन्तु प्रत्यक्षतः यही जताती कि उसे ऐसी किसी जानकारी में तनिक भी रुचि नहीं है। नौकारानी भी जानती थी कि मालकिन को रुचि है लेकिन अरुचि होने का दिखावा करती है। यह सूचना का एक ऐसा आदान-प्रदान था जो पूरी उत्सुकता के साथ लिया-दिया जाता किन्तु निस्पृह होने का नाटक करते हुए।
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सब कुछ हमेशा की तरह चल रहा था कि उस दिन नौकरानी बदहवास-सी भागी आई और
हांफती हुई बोली, ‘छोटी ठकुराइन! ग़ज़ब हो गओ! .....रामधई ग़ज़ब हो गओ,
छोटी ठकुराइन!’
‘क्या हुआ कुसुमा?’ जगतरानी चैंकी थी। इससे पहले उसने अपनी मुंहलगी नौकरानी कुसुमा को इस तरह बदहवास नहीं देखा था। जगतरानी का मन घबरा उठा।
‘ठीक नई भओ...छोटी ठकुराइन...ठीक नई भओ....’ कुसुमा हिचकियां लेने लगी। उसका गला रुंधने लगा। वह नाटक कर रही थी या सचमुच रो पड़ी थी, कहना कठिन था।
‘कुछ बोल भी, क्या हुआ?’ जगतरानी खीझ उठी थी। उसी समय उसकी सास दहाड़े मार कर रोती हुई उसके कमरे में आई।
‘तेरे तो भाग फूट गए, बिन्ना!’ सास ने प्रलाप करते हुए कहा। तब तक घर की और औरतें भी जगतरानी के कमरे में इकट्ठी होने लगीं। जगतरानी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है? क्या बड़े ठाकुर लुढ़क गए? नहीं, ऐसा होता तो अम्मा जी मेरे भाग फूटने की बात क्यों कहतीं?
‘हमाए मोड़ा को जीने खाओ है हम ऊकी जान ले लेबी!’ अम्मा अपने माथे पर हाथ मारती हुई फर्श पर बैठ गईं। तब जगतरानी को समझ में आया कि बड़े ठाकुर को नहीं बल्कि उसके पति फुग्गन को कुछ हो गया है।
‘क्या हुआ उन्हें?....अम्मा! क्या हुआ उन्हें...?’ जगतरानी हड़बड़ा कर पूछने लगी। उसका गला सूख गया। घबराहट के मारे माथे पर पसीना चुहचुहा गया। उसका रक्तचाप गड़बड़ाने लगा।
‘तुमाओ सुहाग नहीं रहो बिन्ना!’ अम्मा विलाप करती हुई बोलीं।
यह सुन कर जगतरानी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या ऐसा भी हो सकता है? अभी पांच-छः घंटे पहले तक तो फुग्गन सिंह घर पर थे और अब...अब इस दुनिया में नहीं हैं? ये कैसे हो सकता है?
यह एक ऐसा सच था जिसे स्वीकार कर पाने में जगतरानी को कई घंटे लगे।
पता चला कि गांव के ही किसी आदमी ने उसे कुल्हाड़ी मार दी जिससे घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। फुग्गन को मारने के बाद वह आदमी खुद ही थाने में पहुंचा और उसने बताया कि वह फुग्गन सिंह को घायल कर के आ रहा है। शायद उसे तब तक पता नहीं था कि उसके एक वार ने फुग्गन सिंह का जीवन समाप्त कर दिया है। उस आदमी ने फुग्गन को क्यों मारा? जगतरानी जानना चाहती थी। उसे यही बताया गया कि जिस आदमी ने फुग्गन सिंह को मारा है उसका नाम कीरत है। कीरत ने फुग्गन से कर्ज लिया था। जब फुग्गन ने कर्ज की रकम वापस मांगी तो कीरत देने से मुकर गया। फुग्गन ने पैसे वसूल लेने की धमकी दी तो तैश में आ कर कीरत ने फुग्गन के सिर पर कुल्हाड़ी दे मारी।
यही पुलिस डायरी में लिखा गया। यही कीरत ने स्वीकार किया और आजन्म कारावास की सज़ा का भागीदार बना। लेकिन यह कहानी जगतरानी को हजम नहीं हुई। उसे लगता था कि मामला सिर्फ़ पैसे का नहीं हो सकता है। उसका मन कहता था कि इस पूरे मामले में किसी औरत की उपस्थिति अवश्य होगी। वह जानती थी कि फुग्गन सिंह सूदखोर से कहीं अधिक औरतखोर था।
‘क्या हुआ कुसुमा?’ जगतरानी चैंकी थी। इससे पहले उसने अपनी मुंहलगी नौकरानी कुसुमा को इस तरह बदहवास नहीं देखा था। जगतरानी का मन घबरा उठा।
‘ठीक नई भओ...छोटी ठकुराइन...ठीक नई भओ....’ कुसुमा हिचकियां लेने लगी। उसका गला रुंधने लगा। वह नाटक कर रही थी या सचमुच रो पड़ी थी, कहना कठिन था।
‘कुछ बोल भी, क्या हुआ?’ जगतरानी खीझ उठी थी। उसी समय उसकी सास दहाड़े मार कर रोती हुई उसके कमरे में आई।
‘तेरे तो भाग फूट गए, बिन्ना!’ सास ने प्रलाप करते हुए कहा। तब तक घर की और औरतें भी जगतरानी के कमरे में इकट्ठी होने लगीं। जगतरानी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है? क्या बड़े ठाकुर लुढ़क गए? नहीं, ऐसा होता तो अम्मा जी मेरे भाग फूटने की बात क्यों कहतीं?
‘हमाए मोड़ा को जीने खाओ है हम ऊकी जान ले लेबी!’ अम्मा अपने माथे पर हाथ मारती हुई फर्श पर बैठ गईं। तब जगतरानी को समझ में आया कि बड़े ठाकुर को नहीं बल्कि उसके पति फुग्गन को कुछ हो गया है।
‘क्या हुआ उन्हें?....अम्मा! क्या हुआ उन्हें...?’ जगतरानी हड़बड़ा कर पूछने लगी। उसका गला सूख गया। घबराहट के मारे माथे पर पसीना चुहचुहा गया। उसका रक्तचाप गड़बड़ाने लगा।
‘तुमाओ सुहाग नहीं रहो बिन्ना!’ अम्मा विलाप करती हुई बोलीं।
यह सुन कर जगतरानी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या ऐसा भी हो सकता है? अभी पांच-छः घंटे पहले तक तो फुग्गन सिंह घर पर थे और अब...अब इस दुनिया में नहीं हैं? ये कैसे हो सकता है?
यह एक ऐसा सच था जिसे स्वीकार कर पाने में जगतरानी को कई घंटे लगे।
पता चला कि गांव के ही किसी आदमी ने उसे कुल्हाड़ी मार दी जिससे घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। फुग्गन को मारने के बाद वह आदमी खुद ही थाने में पहुंचा और उसने बताया कि वह फुग्गन सिंह को घायल कर के आ रहा है। शायद उसे तब तक पता नहीं था कि उसके एक वार ने फुग्गन सिंह का जीवन समाप्त कर दिया है। उस आदमी ने फुग्गन को क्यों मारा? जगतरानी जानना चाहती थी। उसे यही बताया गया कि जिस आदमी ने फुग्गन सिंह को मारा है उसका नाम कीरत है। कीरत ने फुग्गन से कर्ज लिया था। जब फुग्गन ने कर्ज की रकम वापस मांगी तो कीरत देने से मुकर गया। फुग्गन ने पैसे वसूल लेने की धमकी दी तो तैश में आ कर कीरत ने फुग्गन के सिर पर कुल्हाड़ी दे मारी।
यही पुलिस डायरी में लिखा गया। यही कीरत ने स्वीकार किया और आजन्म कारावास की सज़ा का भागीदार बना। लेकिन यह कहानी जगतरानी को हजम नहीं हुई। उसे लगता था कि मामला सिर्फ़ पैसे का नहीं हो सकता है। उसका मन कहता था कि इस पूरे मामले में किसी औरत की उपस्थिति अवश्य होगी। वह जानती थी कि फुग्गन सिंह सूदखोर से कहीं अधिक औरतखोर था।
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‘कुसुमा!’
‘जी छोटी ठकुराइन!’
‘तुम्हारे छोटे ठाकुर क्यों मारे गए?’ उसने एक दिन कुसुमा से पूछ ही लिया। वह जानती थी कि कुसुमा को सच पता होगा।
‘वो रकम की लेन-देन....’
‘सच बताओ कुसुमा...ये झूठा किस्सा मुझे नहीं सुनना है।’ जगतरानी ने स्पष्ट शब्दों में कहा।
‘....’
‘बोलो!’
‘ठकुराइन अगर किसी को पता चल गया कि मैंने आपको बताया तो....’
‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ जगतरानी की भृकुटी तन गई। कल तक जो कुसुमा उसके पति के किस्से उसे जानबूझ कर सुनाया करती थी, वही कुसुमा आज डरने का नाटक कर रही है? यानी सचमुच मामला कुछ और है।
‘देखो कुसुमा, सच्चाई तो मुझे पता चल ही जाएगी लेकिन तुम मुझे बताओगी तो मैं समझ जाऊंगी कि तुम आज भी मेरी वफ़ादार हो।’ जगतरानी ने जानबूझ कर रूखे ढंग से कहा।
‘आप नाराज़ मत हो छोटी ठकुराइन! मैं बताती हूं।’ कुसुमा ने वह सारी घटना कह सुनाई जो उसने सुखबाई से खोद-खोद कर जान ली थी।
स्तब्ध रह गई जगतरानी। कोई पति अपनी पत्नी की इज्जत के लिए इस हद तक जा सकता है? वह भी एक ग़रीब पति? कहावत तो ये है कि ग़रीब की लुगाई, सबकी भौजाई.....कीरत ने अपनी पत्नी के लिए एक रसूखवाले की जान ले ली! क्या सचमुच यही हुआ है?
जगतरानी को फुग्गन सिंह के रूप में जो पति मिला था उसकी तुलना में कीरत का चरित्र जगतरानी को कपोल कल्पित किस्से जैसा लगा। वह कीरत से मिलने को, उसे देखने को उत्सुक हो उठी। भले ही उसे पता था कि कीरत से मिल पाना किसी भी तरह संभव नहीं है। एक तो वह आजन्म कारावास भुगत रहा है और दूसरा वह उसके पति का हत्यारा है।
सुखबाई कैसी दिखती है? बहुत सुन्दर होगी। तभी तो फुग्गन सिंह ने उसकी अस्मत पर डाका डालने की कोशिश की और उसका पति भी उस पर जान छिड़कता होगा। तभी तो वह फुग्गन की बदनीयती को सहन नहीं कर सका।
कैसे मिले वह सुखबाई से? जगतरानी सुखबाई की एक झलक पाने को उत्सुक हो उठी। कुसुमा से कहे? मगर वह क्या सोचेगी? कुसुमा को कहीं यह न लगे कि मैं अपने पति के मरने पर खुश हूं। नहीं मैं इस मामले में कुसुमा की मदद नहीं ले सकती हूं। ईश्वर ने चाहा तो एक न एक दिन सुखबाई और कीरत दोनों को देख लूंगी। जगतरानी ने अपने आपको समझाया और सब कुछ समय पर छोड़ दिया।
दूसरी ओर सुखबाई अपने ही दुख में डूबती-उतराती जीवन की धारा में बही जा रही थी।
पेज - 5
पल भर में समय किस तरह मुंह फेरता है, यह सुखबाई से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? लगने को तो यूं लगता है मानो कल की ही बात हो, मगर गिनती करने बैठो तो पूरे बारह बरस गुज़र चुके हैं तब से अब तक। कीरत को लगता है कि सुखबाई सब कुछ भूल गई है। वह क्या जाने की कि सुखबाई को उस मनहूस घड़ी का एक-एक क्षण अच्छी तरह से याद है । वह तो बारह बरस की एक-एक घड़ी को भी नहीं भूली है । कैसे हुलस के सोचा करती थी वो कि जिस दिन कीरत घर लौट कर आएगा उस दिन वो देवी मैया के मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाएगी। कीरत के मन का खाना पकाएगी और अपने हाथों से उसे खिलाएगी। कीरत से विछोह के पूरे बारह बरस वह बारह पलों में मिटा देगी। वे दिन एक बार फिर लौट आएंगे जो मूरत, सूरत और दोनों बेटियों के पैदा होने के समय से भी पहले थे।
सुखबाई को पहला झटका उस दिन लगा था, जिस दिन कीरत पहली बार जेल से घर आया था । दद्दा के क्रिया-कर्म के लिए कीरत को पेरोल पर छोड़ गया था।
‘दद्दा, कहाँ चले गए तुम! हाय रे !’ कीरत का यह बिलखना सुन कर सुखबाई को याद आया था कि उसने भी इसी तरह विलापा था, मन ही मन सही कि ‘हाय दद्दा! तुम उस दिन यहाँ क्यों नहीं थे!’
काश ! उस दिन दद्दा रिश्तेदारी में दूसरे गांव न गए होते तो शायद वो अनहोनी होने से बच गई रहती। सुखबाई तो दद्दा की अनुपस्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पाई थी लेकिन खूब कोसा था दद्दा ने, सुखबाई को। सुखबाई की ननद ने तो सुखबाई को ‘डायन’ तक की उपाधि दे डाली थी, जो उसके भाई को खा गई थी। सबने अपने-अपने ढंग से अपने मन की भड़ास निकाली थी लेकिन उस समय किसी ने भी ये नहीं सोचा कि अब सुखबाई का जीवन कैसे कटेगा? एक तो चार बच्चों की जिम्मेदारी और उस पर भरी जवानी। यह जवानी ही तो उसकी दुश्मन बन गई थी।
पेज - 6
जिस दिन फुग्गन ने उसे पहली बार बिना घूंघट के देखा था, बस तभी से उसकी
लार टपकने लगी थी। औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात
और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे। सुखबाई ने भी
पहले-पहल अनदेखा ही किया। कीरत ने उसे बताया था कि फुग्गन रसूख वाला
व्यक्ति है और जब-तब कीरत की मदद कर दिया करता है, पैसों के मामले में भी
और धाक जमाने के मामले में भी। सुखबाई नहीं चाहती थी कि उसकी वज़ह से कीरत
और फुग्गन के बीच कोई खाई पड़े। सुखबाई की इस सोच को स्वीकृति समझ कर
फुग्गन ने अपनी क्रियाशीलता बढ़ा दी। वह हर दूसरे-तीसरे दिन घर आने लगा ।
कभी एक गिलास पानी का बहाना तो कभी चाय का बहाना, तो कभी नन्हीं भारती को
उसकी गोद से अपनी गोद में लेने का बहाना, बस, वह सुखबाई को छूने का कोई न
कोई बहाना खोज निकालता। सुखबाई को बड़ी घबराहट होती। अवसर मिलते ही फुग्गन
छिछोरे हंसी-माज़ाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना
रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए
थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी।
टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियाँ काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है।
टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियाँ काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है।
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