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मंगलवार, सितंबर 18, 2012

स्त्री के भीतर की आवाज़ का घोषणापत्र (पुस्तक-समीक्षा)


समीक्षक – डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

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पुस्तक   - आवाज़
लेखिका  - मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक  - सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, 
          नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज,नई दिल्ली-2
मूल्य     - 300रुपए
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एक स्त्री क्या चाहती है,यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर सभी अपने-अपने ढंग से देते हैं। जैसे कोई कहता है कि स्त्री को गृहस्थी मिल जाए, परिवार, पति, बच्चे मिल जाएं तो वह खुश रहती है और अपने-आप में पूर्णता का अनुभव करती हुई संतुष्ट रहती है। कोई कहता है कि स्त्री पुरुष की छाया बन कर जीना पसन्द करती है। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि कुछ उच्छृंखल औरतें दैहिक स्वतंत्राता पा कर प्रसन्न रहती हैं अर्थात् वे अपनी देह को अपने ढंग से जीना चाहती हैं। पुरुष प्रधान समाज में ऐसे उत्तर मिलना स्वाभाविक है। किन्तु सही उत्तर तो स्वयं स्त्री ही दे सकती है न, कि वह क्या चाहती है, अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने परिवार से या फिर अपनी देह या अपने विचारों से? स्त्री ने जब भी अपने अस्तित्व से जुड़े इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा तो उसे झिड़क दिया गया कि ‘बहुत बोलने लगी हो।’‘अपनी जबान पर लगाम दो।’‘आवारा हो चली हो। मुंह से आवाज़ भी निकाली तो ठीक नहीं होगा।’ आदि-आदि। आवाज़! हां, इसी आवाज़ को स्त्री के भीतर से बाहर आने की आवश्यकता सदैव रही है। कुछ भले पुरुषों और कुछ सजग स्त्रिायों ने स्त्री के भीतर आवाज़ को बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। यह प्रयास हर कालखण्ड, हर सदी में किया जाता रहा है। इसी प्रयास का सुपरिणाम है कि आज स्त्री स्वयं को पहचानने की ललक तो संजोने लगी है, वह अपने मन की आवाज़ सुनने को लालायित तो रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्त्री की आवाज़ को शब्द देने और लिपिबद्ध करने वाली लेखिकाओं में अग्रिम पंक्ति में नाम आता है मैत्रेयी पुष्पा का। उनके लेखन की धार अनेक बार पुरुषवादियों को लहूलुहान कर चुकी है। उनका लेखन अपने-आप में अनूठा है। क्योंकि वे खरी बात खरे-खरे शब्दों में लिख डालती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की ताज़ा पुस्तक ‘आवाज’ उनके इसी लेखकीय अनूठेपन का उल्लेखनीय उदाहरण है। ( 26 अगस्त 2012 को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित समीक्षा का अंश)

26 अगस्त 2012 को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित समीक्षा----