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शनिवार, जनवरी 22, 2011

हिन्दी महिला कथालेखन और देहमुक्ति






-डॉ. शरद सिंह

‘स्त्री’ और ‘मुक्ति’ ये दोनों शब्द सदियों से परस्पर एक-दूसरे का पूरक बनने के लिए छटपटाते रहे हैं किन्तु ऐसे अनेक कारण हैं जिन्होंने इस पूरकता की राह में सदैव रोड़े अटकाए। स्त्री के संदर्भ में मुक्ति का विषय कठिन भी है और सरल भी। सैद्धांतिक रूप में यह सदैव सरल जान पड़ा है किन्तु प्रायोगिक रूप में अत्यंत कठिन। किसी हद तक प्रतिबन्धित। हिन्दी कथालेखन के आरम्भिक समय में पुरुष वर्चस्व साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। एक कारण यह भी था कि हिन्दी कहानियों में स्त्री का वही स्वरूप उभर कर आया जो पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों द्वारा सोचा, समझा और रचा जाता है। इसीलिए उस दौर की कहानियों के स्त्री-पात्र अतिवादी आदर्श की चादर ओढ़ कर खड़े दिखाई देते हैं। अब यह तर्क देना भी उचित प्रतीत नहीं होता है कि उस समय के समाज और आज के समाज में ज़मीन-आसमान का अन्तर था। स्त्री के प्रति समाजिक सोच न कल बदली थी और न पूरी तरह से आज बदली है। आज भी स्त्री को ‘वस्तु’ और ‘भोग्या’ मानने वालों की कमी नहीं है। मैत्रेयी पुष्पा की ‘अल्मा कबूतरी’ या शरद सिंह की (मेरी स्वयं की) ‘पिछले पन्ने की औरतें’ आज की औरते हैं जो मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं और उनकी मुक्ति देहमुक्ति से अलग नहीं हैं। क्योंकि स्त्रिायों का प्रथम बंधन देह से प्रारम्भ होता है। इसीलिए कहानियों में भी देहमुक्ति का विषय बनना स्वाभविक है। किन्तु दुर्भाग्यवश कई बार  हिन्दी कथासंसार में लेखिकाओं के संदर्भ में देहमुक्ति को उनके लेखन की ‘बोल्डनेस’ ठहरा दिया जाता है जिससे विषय की गंभीरता की सरासर अवहेलना हो जाती है।

प्रश्न यह उठता है कि स्त्री की देहमुक्ति का क्या आशय है और हिन्दी महिला कथालेखन में देहमुक्ति का क्या स्वरूप है, क्या हिन्दी में लेखिकाओं द्वारा जो दैहिक संदर्भ प्रस्तुत किए जा रहे हैं वे अनुपयोगी हैं, क्या वे अपरिष्कृत हैं, क्या वे अनावश्यक हैं, क्या इस प्रकार के संदर्भों से बच कर उन विषयों पर विस्तृत दृष्टि डाली जा सकती है जिनके जन्म में देह आधारभूत तत्व है, या फिर ऐसे विषयों को अछूता छोड़ दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे विषयों पर लेखन से कुछ परम्परागत मानक टूटते हैं, ये बहुत सारे प्रश्न हैं जो महिला कथालेखन की चर्चा आते ही सुगबुगाने लगते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए समाज और जीवनचर्या की उस तह तक जाना होगा जहां स्त्री का वास्तविक स्वरूप विद्यमान है। इसे जानने के लिए कुछ बिन्दु चुने जा सकते हैं -
1-समाज में स्त्री का अस्तित्व
2-कथा लेखिकाओं का स्त्रियों की स्थितियों एवं समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण
3- देहमुक्ति का वास्तविक अर्थ
4- देहमुक्ति द्वारा स्त्री स्वातंत्र्य की संभावना
5- महिला कथालेखन में देहमुक्ति का स्वरूप
उपर्युक्त बिन्दुओं पर पर विस्तृत चर्चा, मनन और चिन्तन करके ही देहमुक्ति के सच को जाना, समझा और परखा जा सकता है।
भारतीय समाज में स्त्री का स्थान शेष दुनिया की भांति दोयम दर्जे का तो है ही किन्तु पारिवारिक संबंधों के आधार पर वह तृतीय और चतुर्थ स्थान पर भी खड़ी दिखाई देती है। अधिकांश धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं और परम्पराएं स्त्रियों के कारण जीवित हैं। स्त्री अपने पति की लम्बी आयु के लिए करवां चौथ का व्रत रखती है, पुत्र के लिए ‘छठ’ की श्रमसाध्य पूजा करती है और स्त्री के ये दोनों रूप महिमामंडित हो कर सामने आते हैं। परिवार में स्त्री अपने दायित्व का पालन करती हुई परिवार के सभी सदस्यों के भेजन कर लेने के बाद भोजन करती है जिसमें कई बार उसे आधापेट भोजन करके रह जाना पड़ता है। यदि घर में अनाज के दो दाने हैं तो वे घर के पुरुष के हिस्से में जाते हैं, स्त्री के नहीं। यह कल्पना भी उचित नहीं ठहराई जाती है कि उन दो दानों में से एक पर स्त्री अपना हक़ जताए और कहे कि ‘मैं भी इंसान हूं, मुझे भी ज़िन्दा रहना है।’
           कथालेखन के क्षेत्र में मौजूद स्त्रियों अपने परिवेश के प्रति संवेदनशील हैं तो यह स्वाभविक भी है। ये स्त्रियां अन्य स्त्रियों की स्थिति-परिस्थिति और पीड़ा को समझने में सक्षम हैं। वे स्त्री के अस्तित्व के प्रति चिन्तित हैं, वे स्त्री के अधिकारों के प्रति सचेत हैं और वे स्त्री को अपने समग्र रूप में अपनी कहानियों में प्रस्तुत करना चाहती हैं। इस समग्र रूप का एक महत्वपूर्ण भाग है देहमुक्ति।
देहमुक्ति का वास्तविक अर्थ है ‘वस्तु’ और ‘भोग्या’ के चोले से बाहर आना। स्त्री द्वारा अपनी इच्छाओं, अपने स्वप्नो, अपनी लालसाओं, अपने अधिकारों, अपनी परिस्थितियों, अपने बंधनों और अपनी संभावनाओं के बारे में खुल कर चर्चा करना ही स्त्री मुक्ति है।
             देहमुक्ति द्वारा स्त्री स्वातंत्रय की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि यह स्वच्छंद यौनाचार से परे दैहिक सम्प्रभुता का विषय है। इसके द्वारा स्त्री एक कथालेखिका अनेक स्त्रियों की समस्याओं, कुण्ठाओं एवं विसंगतियों को मुखर कर सकती है और पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की स्थिति को रेखांकित कर सशक्त बनने की राह सुझा सकती है। यह सशक्तिकरण किसी खोखले नारे की भांति नहीं वरन् एक ठोस क़दम है।
महिला कथालेखन में देहमुक्ति का स्वरूप अपने विविध आयामों के साथ सामने आता रहता है। कभी आक्रामक, कभी कोमलता से, तो कभी दृढ़ आग्रह के साथ। ‘चित्तकोबरा’ (मृदुला गर्ग), ’ऐ लड़की’ (कृष्णा सोबती), ‘चाक’(मैत्रोयी पुष्पा), ‘पिछले पन्ने की औरतें’ (शरद सिंह), ‘कलिकथा वाया बाईपास‘(अलका सारावगी) आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे गुज़र कर महिला कथालेखन में देहमुक्ति के स्वरूप को भली-भांति जाना एवं समझा जा सकता है।
सारांशतः महिला कथालेखन में देहमुक्ति स्त्री के अपने होने के प्रति सचेत होने अवधारणा के रूप में देखा जाना चाहिए न कि यौन-स्वच्छंदता के रूप में। जीवनमूल्यों में परिवर्तन होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति को विस्तार मिलना स्वाभाविक है। जो विषय कल तक खुली चर्चा के लिए प्रतिबंधित थे आज उन पर खुल कर बहसें होती हैं। चूंकि साहित्य जीवनमूल्यों से प्रतिबिम्बित होता है अतः खुलापन आना ही है। साहित्य में वही होता है जो समाज में मौजूद होता हैं।  फिर दूसरा तथ्य यह भी है कि स्त्रियों से जुड़े कथानकों से मनो-दैहिक वर्णन और विश्लेषण को अलग कर के स्त्रियों की पीड़ा और संवेदना का सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।