रविवार, जून 28, 2020

ज़िंदा मुहावरों का समय - डॉ शरद सिंह - संस्मरण पुस्तक का अंश

( शायद यक़ीन न हो पर ये मैं हूं... 5 वीं कक्षा की ग्रुप फोटो में से...निहायत बुद्धू-सी दिखाई दे रही ह़ूं !)
        उन दिनों मैं पन्ना (म.प्र) के शिशु मंदिर विद्यालय में पढ़ा करती थी। (सरस्वती शिशु मंदिर नहीं) यह मनहर महिला समिति  नामक एक ट्रस्ट द्वारा संचालित  विद्यालय था,  जिला कलेक्टर की पत्नी भी उस ट्रस्ट की मेंबर हुआ करती थीं । मुझे याद है कि उन दिनों मृणाल पांडे जी के पति अरविंद पांडे पन्ना में कलेक्टर थे और वे ट्रस्ट की मेंबर के रूप में मेरे विद्यालय कभी-कभी आया करती थीं। उन दिनों मुझे उनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। वह तो कॉलेज पहुंचते-पहुंचते यह पता चला कि वे प्रख्यात उपन्यासकार शिवानी जी की पुत्री थीं और स्वयं भी प्रखर पत्रकार और लेखिका थीं।

     बड़ा खूबसूरत था मेरा वह स्कूल। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से बिलकुल सटा हुआ था। सिर्फ़ बाउंड्रीवॉल थी दोनों के बीच....और एक साझा कुआ। दोनों विद्यालय पन्ना राजघराने की महारानी मनहर कुमारी के नाम पर पन्ना महाराज ने बनवाए थे। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मैंने आगे की पढ़ाई की लेकिन उसकी चर्चा किसी अगली पोस्ट में। मेरी मां वहां हिंदी की लेक्चरर थीं। वहां के अनुभव बाद में....

लंच बॉक्स की चोरी और जे बी मंघाराम के बिस्किट के डब्बे :
     उन दिनों के दो-तीन अनुभव ऐसे हैं जो मेरी स्मृति पर हमेशा के लिए दर्ज़ हो कर रह गए और उन्होंने मेरे जीवन पर गहरा असर डाला। उनमें से एक घटना थी मेरे लंच बॉक्स की चोरी की। उन दिनों हम दोनों बहनों के लिए मां बिस्कुट के टिन के डब्बे खरीद दिया करती थीं। दोनों के लिए अलग-अलग डब्बे, ताकि आपस में किसी प्रकार का कोई झगड़ा न होने पाए। यद्यपि हम दोनों बहनों के बीच खाने-पीने को लेकर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ फिर भी मां शायद कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थीं। उन दिनों जेबी मंघाराम के बिस्कुट के डब्बे चलन में थे, जिन पर बहुत ही खूबसूरत चित्र हुआ करते थे। मां ने अलग से लंच बॉक्स खरीदने के बजाए उन्हीं बिस्कुट के डिब्बों में से एक को मेरा लंच बॉक्स बना दिया था और मैं उसी में अपना लंच स्कूल ले जाया करती थी।  शायद यह घटना तीसरी या चौथी कक्षा की है...  मेरी कक्षा में एक लड़की थी जिसे दूसरों के बस्ते से सामान निकाल लेने की यानी चोरी करने की आदत थी। हमें उसके बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं थी लेकिन अंदाज़ा ज़रूर था। फिर भी उसे कभी कोई रंगे हाथों नहीं पकड़ पाया और इसीलिए वह हमेशा सज़ा से बचती रही। एक दिन उस लड़की ने मेरे लंच बॉक्स पर भी हाथ साफ़ कर दिया। यानी मेरा खाने का डब्बा ही चुरा लिया। वह खूबसूरत चित्र वाला बिस्कुट का डिब्बा जो था। ऐसा लंच बॉक्स मेरी किसी भी सहपाठी के पास नहीं था। इसीलिए वह सब में लोकप्रिय भी था। निश्चित रूप से उस चोर लड़की की नजर भी मेरे उस लंच बॉक्स पर कई दिनों से रही होगी और मौका पाकर उसने अपने हाथ की सफाई दिखा ही दी। घर लौटने पर जब मां ने बस्ता टटोला तो उन्हें मेरा डब्बा नहीं मिला। उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने तो खाना खाने के बाद याद से अपना डब्बा अपने बस्ते में रख लिया था। ख़ैर, मां ने दूसरे दिन दूसरे डब्बे में मेरे लिए खाना रख दिया। वह दूसरा डब्बा भी बिस्कुट का डब्बा ही था। सुंदर से चित्र वाला। दो-तीन दिन बाद वह भी मेरे बस्ते से चोरी हो गया। मां को जब इसका पता चला तो वह मुझ पर भी गुस्सा हुई कि मैं अपना सामान ठीक से क्यों नहीं रखती हूं। बतौर सज़ा उन्होंने यह तय किया कि मैं प्लास्टिक के लिफाफे में यानी प्लास्टिक की थैली में अपना लंच ले जाया करूंगी। उन दिनों प्लास्टिक की थैलियों यानी पन्नियों का इस क़दर चलन नहीं था। वह थैली किसी पैकिंग के रूप में आई थी। मां उसी प्लास्टिक की थैली में  मेरा लंच  पैक करके  मेरे बस्ते में रख दिया करतीं। लेकिन लंचटाईम में जब मेरी सारी सहेलियां  अपने-अपने लंच बॉक्स लेकर खाना खाने बैठतीं तो मुझे उनके बीच अपनी प्लास्टिक की थैली निकालते हुए शर्म महसूस होती। मैं अलग जाकर एक कोने में बैठ कर खाना खा लिया करती।  मेरी इस हरकत पर मेरी किसी शिक्षिका का ध्यान गया और उन्होंने मेरी मां को इस बारे में बताया कि मैं आजकल अलग-थलग बैठकर खाना खाती हूं। जब मां ने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें सारी बातें सच-सच बता दी कि मुझे प्लास्टिक की थैली में खाना ले जाने में शर्म आती है। इसके बाद मां ने मुझे पुनः एक बिस्किट का डिब्बा दिया और इस हिदायत के साथ कि मैं उसका पूरा ख़्याल रखूंगी।  मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनका विश्वास क़ायम भी रखा। नया डब्बा मिलने के बाद से मैं खाना खाने के बाद  अपने बस्ते का पूरा ध्यान रखती कि मेरे बस्ते से कोई भी सामान चोरी न हो पाए।  

       लंचबॉक्स की चोरी की यह घटना हमेशा के लिए मेरे मन में छप कर रह गई और मुझे ऐसे छात्रों से चिढ़ होने लगी जो दूसरों के बस्तों से सामान चुरा लेते थे। एक आध बार तो मैंने किसी को इस तरह की हरक़त करते देखा तो उसकी शिक़ायत भी कर दी। भले ही बदले में उस सहपाठी से मेरी लड़ाई हुई और बोलचाल भी बंद हो गई यानी 'कट्टी' हो गई। शायद यह भी एक ऐसी घटना थी जिसने बचपन से ही मेरे भीतर ग़लत बात की पीड़ा महसूस करने और ग़लत का विरोध करने का साहस जगाया।
     दूसरी घटना... ऊंहूं...आज नहीं, बाद में किसी और दिन....🙋✍️🙏

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3 टिप्‍पणियां:

  1. पुरानी यादों का सही ढंग से संचयन... बधाई

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