रविवार, जनवरी 05, 2020

देशबन्धु के साठ साल-16- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  सोलहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-16
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
रायपुर नगरपालिका परिषद के आखिरी चुनाव 1957 में हुए थे। 1962 में नए चुनाव होना थे, लेकिन किसी कारण से नहीं हुए। 1967 में मध्यप्रदेश में संविद सरकार बनी। रायपुर के विधायक शारदाचरण तिवारी को स्थानीय स्वशासन मंत्री पद प्राप्त हुआ। नगरपालिका का दर्जा ऊंचा कर उसे नगर निगम होने का गौरव प्रदान किया गया, लेकिन दस साल से लंबित चुनाव फिर भी नहीं हुए। उल्टे प्रशासक बैठा दिया गया। दो साल बाद कांग्रेस सत्ता में लौटी। अब श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री पद हासिल हुआ, लेकिन नगर निगम चुनाव पर उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया। तब देशबन्धु ने चुनाव की मांग उठाते हुए अभियान छेड़ दिया। यह अभियान अखबार के पन्नों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि नगर में हम जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं आयोजित करने लगे। युवा वकील (स्व) रामावतार पांडेय इस मुहिम में प्रमुख तौर पर आगे आए। प्रभाकर चौबे, एडवोकेट जमालुद्दीन आदि अनेक मित्रों ने भी खूब साथ दिया। मुख्यमंत्री शुक्लजी परेशान हुए और नाराज भी। उन्होंने बाबूजी से शिकायत की- ललित हमारे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। उत्तर में बाबूजी ने उन्हें चुनाव घोषित करने की सलाह दी। शुक्लजी ने कहा- अभी माहौल ठीक नहीं है, कांग्रेस हार जाएगी। इस पर बाबूजी की प्रतिक्रिया थी- चुनाव में हार-जीत तो चलती रहती है। बहरहाल, चुनाव टलते गए। देखते-देखते दस साल बीत गए। 1979 में जाकर चुनाव हुए और उसमें कानूनी दांवपेंचों के चलते नई परिषद को कार्यभार लेने में एक साल और लग गया।

इस प्रसंग की चर्चा करने का आशय यही है कि देशबन्धु ने एक तरफ जहां ग्रामीण पत्रकारिता पर विशेष ध्यान दिया, वहीं दूसरी ओर नगरीय क्षेत्रों का भी बराबर ख्याल रखा तथा बेहतर वातावरण कायम करने के लिए सकारात्मक व सक्रिय भूमिका निभाई। एक घटना और ध्यान आती है। 1938 में प्रो. जे. योगानंदम द्वारा स्थापित छत्तीसगढ़ कॉलेज प्रदेश का पहला महाविद्यालय था। इसमें एक से बढ़कर नामी प्राध्यापकों ने कभी अपनी सेवाएं दी थीं। भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे पेरी शास्त्री भी यहां व्याख्याता थे। कालांतर में जो भी स्थितियां बनीं, कॉलेज बंद होने के कगार पर पहुंच गया। 1967 में शिक्षासत्र प्रारंभ होने के पहले मात्र चालीस छात्र कॉलेज में बच गए थे। पुराने अध्यापकगण चिंतित हुए। प्रो. निर्मल श्रीवास्तव, शिवकुमार अग्रवाल, विपिन अग्रवाल आदि ने दौड़धूप करना शुरू की। हमने उनका खुलेमन से साथ दिया और कितने ही विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ म.वि. में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित किया। एक उदारमना सज्जन बाबू उग्रसेन जैन ने अपनी पत्नी की स्मृति में उसी कॉलेज भवन में चंपादेवी जैन रात्रिकालीन म.वि. स्थापित करने अच्छा-खासा दान दिया। उससे स्थिति कुछ सुधरी। फिर राज्य सरकार ने कॉलेज को शासनाधीन कर लिया तो संस्था बंद होने का संकट टल गया। कुछ साल बाद रात्रिकालीन म.वि. बंद कर दिया गया। चंपादेवी जैन का नाम लुप्त हो गया। दानदाता परिवार की आहत भावनाओं को हमने वाणी देने की कोशिश की लेकिन निष्फल।

कुछ दिन पहले प्रेस फोटोग्राफर गोकुल सोनी ने फेसबुक पर रायपुर नगर की एक पुरानी तस्वीर साझा की तो मुझे एक अन्य प्रसंग ध्यान आ गया, जिसमें देशबन्धु की भूमिका निर्णयकारी सिद्ध हुई। रायपुर का आज़ाद चौक वहां स्थापित गांधी प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है। प्रतिमा के पार्श्व में एक कुटीनुमा इमारत थी। यहां कभी रायपुर नगरपालिका का चुंगीनाका होता था। बाद में इसी इमारत में आजाद चौक पुलिस चौकी स्थापित कर दी गई थी। 1981-82 में पुलिस विभाग ने इकमंजिला पुराने मकान को तोड़कर पुलिस थाने की नई इमारत बनाना तय किया। वर्तमान में त्रिपुरा के राज्यपाल और अनुभवी राजनेता रमेश बैस निकटवर्ती ब्राह्मणपारा वार्ड से नगर निगम पार्षद तथा डाकू पानसिंह फेम विजय रमन रायपुर के जिला पुलिस अधीक्षक थे। हमने एक संपादकीय लिखकर सुझाव दिया था कि गांधी प्रतिमा के ठीक पीछे थाने होना वैसे भी अच्छा नहीं लगता। यहां बच्चों के लिए बगीचा विकसित करना बेहतर होगा। पुलिस थाना पास में ही रामदयाल तिवारी स्कूल के विस्तृत मैदान के एक कोने में ले जाया जा सकता है, जहां नगर निगम वैसे भी दूकानें निर्मित कर रहा है। रमेश बैस और विजय रमन दोनों को यह सुझाव जंच गया। थाने को भावी विस्तार के लिए मनमाफिक जगह मिल गई और गांधी प्रतिमा का बागीचा मोहल्लावासियों का फुरसत के पल बिताने का स्थान बन गया।

रायपुर के ऐतिहासिक स्वरूप को बचाने, विरासत स्थलों को संरक्षित रखने में भी देशबन्धु ने कई अवसरों पर कारगर पहल की है। रायपुर के हृदयस्थल जयस्तंभ चौक पर अवस्थित कैसर-ए-हिंद दरवाजा देशबन्धु की मुहिम के कारण ही बच सका है। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1877 में "एम्प्रेस ऑफ इंडिया", भारत साम्राज्ञी या कैसर-ए-हिंद की पदवी धारण की, उस मौके पर तामीर यह विशाल द्वार भारत पर विदेशी हुकूमत का स्मृतिचिह्न है। यह दरवाजा संभवत: किसी सराय या खेल मैदान के प्रवेश द्वार के रूप में खड़ा किया गया था। युवा (तब) प्राध्यापक डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र ने इस बारे में देशबन्धु में फीचर लिखा था। जब यहां खुले प्लाट पर रवि भवन निर्माण का प्रकल्प बना तो इस ऐतिहासिक स्थान को तोड़ना भी योजना का हिस्सा था। तब हमने ''प्राणदान मांगता कैसर-ए-हिंद दरवाजा'' शीर्षक से रिपोर्ट प्रकाशित की और संबंधित पक्षों को हरसंभव उपाय से समझाया कि इसे संरक्षित रखा जाए। एक धरोहर स्थल बचने का संतोष तो मिला, लेकिन दूसरी ओर इस सच्चाई पर पीड़ा होती है कि रायपुर जाला अदालत का पुराना भवन, नलघर जैसी धरोहरों का संरक्षण करने में हम कामयाब नहीं हो सके। आनंद समाज लाइब्रेरी को मूल स्वरूप में बचाए रखने की हमारी अपील भी अनसुनी कर दी गई।

देशबन्धु ने एक अन्य सकारात्मक पहल रायपुर के व्यवस्थित यातायात को सुधारने की दिशा में की। यह भी 82-83 के आसपास की बात है। सिविल इंजीनियरिंग के अनुभवी प्राध्यापक प्रो. सी.एस. पिल्लीवार से बातों-बातों में इस बारे में चर्चा हो रही थी तो उन्होंने यातायात सुधारने की एक परियोजना ही तैयार कर ली। मैंने अपने एक सहयोगी की ड्यूटी लगा दी कि वह प्रतिदिन श्री पिल्लीवार से मिलकर उनसे सुझावों के आधार पर फीचर बनाए। इस तरह हमने कोई सत्रह-अठारह किश्तों की एक लेखमाला प्रकाशित की। कुछ सुझावों पर अमल हुआ, कुछ पर नहीं। लेकिन रायपुर पुलिस के लिए यह लेखमाला एक तरह की मार्गदर्शक नियमावली बन गई। जिसका उपयोग उसने कई बरसों तक किया। हमें भी यह सुकून मिला कि पुलिस की अक्षमता, भ्रष्टाचार, आतंक के बारे में तो आए दिन खबरें छपती ही रहती हैं, यह एक ऐसी पहल हुई जिससे समाज के सभी वर्गों का भला हुआ। दूसरे शब्दों में यह समाज और सत्ता के बीच एक अच्छे मकसद के लिए सेतु बनने की पहल थी।

एक अखबार लोकहित के किसी विषय पर आंदोलन तो छेड़ सकता है, किंतु उसकी सफलता अंततोगत्व जनता की भागीदारी व समझदारी पर निर्भर करती है। रायपुर के ऐतिहासिक और मनोरम बूढ़ातालाब को बीच से काटकर सड़क निकालने का हमने पुरजोर विरोध किया, लेकिन सत्ताधीशों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि जनता को वहां खाने-पीने की चौपाटी खड़ी करने का प्रस्ताव ज्यादा आकर्षक प्रतीत हो रहा था। बहरहाल, हमने जो भूमिका निभाई, उसकी हमें प्रसन्नता है।
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#देशबंधु में 07 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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