सोमवार, दिसंबर 10, 2018

सागर पाठक मंच में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ शरद सिंह ने 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' उपन्यास की विशेषताओं पर प्रकाश डाला

 
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

दिनांक 09.12.2018 को साहित्य अकादेमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद भोपाल के स्थानीय उपक्रम सागर पाठक मंच के तत्वाधान में उपन्यासकार सूर्यनाथ सिंह के उपन्यास "नींद क्यों रात भर नहीं आती" पर चर्चा-गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में मैंने उपन्यास की विशेषताओं पर प्रकाश डाला।  मैंने कहा कि-‘‘ पारम्परिक किस्सागोई की उम्दा मिसाल है सूर्यनाथ का उपन्यास। एक कहानी में एक से अधिक कहानियों का जुड़ते जाना किस्सागोई शैली की खूबी है। जब इस शैली का प्रयोग उपन्यास में किया जाता है तो जोखिम बढ़ जाते हैं।  सूर्यनाथ सिंह ने अपने उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' में इस जोखिम को उठाते हुए किस्सागोई शैली का बेहतरीन प्रयोग किया है। यही इस उपन्यास की विशेषता भी है। लेखक की अन्वेषक दृष्टि से प्रस्तुत कहानियों ने उपन्यास की समसामायिकता को जिस ढंग से उभारा है, वह उल्लेखनीय है। उपन्यास लेखन में नए प्रयोग उपन्यास की महत्ता को बढ़ा देते हैं।’’ 
  आयोजन का आरम्भ हुआ मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह की सस्वर सरस्वती वंदना से, तदोपरांत पाठकमंच सागर इकाई के संयोजक श्री उमाकांत मिश्र जी के कुशल संचालन में समीक्षा आलेखों का वाचन किया गया। 🏵️ मुझे मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार साझा करने का आत्मीय अवसर देने हेतु हार्दिक धन्यवाद सागर पाठक मंच एवं बड़े भाई उमाकांत मिश्र जी 🙏 📰आज समाचारपत्रों ने आयोजन को जिस प्रमुखता से स्थान दिया है उसके लिए मैं सागर मीडिया की हृदय से आभारी हूं 🙏
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as a Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as a Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest and Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

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Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

मंगलवार, दिसंबर 04, 2018

लोक कथाओं का महत्व - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03 2017
लोक कथाओं का महत्व 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

(‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ तथा ‘खजुराहो की मूर्तिकला में सौंदर्यात्मक तत्व’ आदि विभिन्न विषयों पर पचास से अधिक पुस्तकों की लेखिका, इतिहासविद्, साहित्यकार।)
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व्याख्यान की संक्षेपिका :
 किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र की संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति में भाषा, बोली आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोकविश्वास,जनजीवन की परम्पराएं एवं लोकाचार निबद्ध रहते हैं।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उसे अन्य भाषाओं से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। पहले बोली एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती थी किन्तु धीरे-धीरे सीमित क्षेत्र के निवासियों के असीमित फैलाव ने बोली को भी असीमित विस्तार दे दिया है। इसलिए आज बोली का महत्व मात्र उसके क्षेत्र विशेष से जुड़ा न हो कर पूरी तरह से जातीय गुणों एवं जातीय गरिमा से जुड़ गया है। 
Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03. 2017

प्रत्येक लोकभाषा का अपना अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोक गीतों, मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है।
 किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोकसमुदायों में लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है, वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत, प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस
ग्रंथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
         कर्नल टॉड के
ग्रंथ के बाद कुछ और ग्रंथ आए जिनमें भारतीय लोककथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध’, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में क्षेत्रीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक ग्रंथों में क्षेत्रीय लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया। 
Adivasi - Bharat ke Adivasi Kshetron ki Lok Kathayen - Book of Dr Sharad Singh .
उदाहरण के लिए यदि कोई लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने जाता है और वहां उसका सामना शेर से हो जाता है, तो अपने प्राण बचा कर गांव लौटने पर वह शेर के खतरे को इस उद्देश्य से बढ़ा-चढ़ा कर कहेगा कि जिससे जंगल में जाने वाले अन्य व्यक्ति सावधान और सतर्क रहें। शेर से सामना होने तथा शेर के प्रति भय का संचरण होने पर सहज भाव से किस्सागोई आरम्भ हो जाती है। यह स्थापित किया जाने लगता है कि अमुक समय में अमुक गांव के अमुक व्यक्ति को इससे भी बड़ा और भयानक शेर मिला था। जिसे उस व्यक्ति ने अपनी चतुराई से मार भगाया था। वनों के निकट बसे हुए ग्राम्य जीवन में इस प्रकार की कथाओं का चलन निराशा में आशा का , भय में निर्भयता का और हताशा में उत्साह का संचार करता है।
    वस्तुतः लोककथा वह कथा है जो लोक द्वारा लोक के लिए लोक से कही जाती है।    इसका स्वरूप वाचिक होता है। इसमें वक्ता और श्रोता  अनिवार्य तत्व होते हैं। वक्ता एक होता है किन्तु श्रोता एक से अनेक हो सकते हैं। इन कथाओं को गांव की चौपालों, नीम या वटवृक्ष के नीचे बने हुए चबूतरों पर, घर के आंगन में चारपरई पर लेटे हुए अथवा अलाव को धेर कर बैठे हुए कहा-सुना जाता है। ‘कथा’ शब्द का अर्थ ही यही है कि ‘जो कही जाए’। जब कथा कही जाएगी तो श्रोता की उपस्थिति स्वतः अनिवार्य हो जाती है। लोककथा को कहे और सुने जाने के मध्य ‘हुंकारू’ की अहम भूमिका होती है। ‘हुंकारू’ कथा सुनते हुए श्रोता द्वारा ‘हूं’-‘हूं’ की ध्वनि निकालने की प्रक्रिया होती है। जिसके माध्यम से श्रोता द्वारा यह जताया जाता है कि  वह सजग है और चैतन्य हो कर कथा सुन रहा है। साथ ही  कथा में उसकी उत्सुकता बनी हुई है। इस ‘हुंकारू’ से कथा कहने वाले को भी उत्साह मिलता रहता है। उसे भी पता चलता रहता है कि श्रोता उसकी कथा में  रुचि ले रहा है, चैतन्य हो कर सुन रहा है, सजग है तथा कथा में आगे कौन -सा घटनाक्रम आने वाला है इसके प्रति उत्सुक है। लोककथा की भाषा लोकभाषा और शैली प्रायः इतिवृत्तात्मक होती है।

Books of Dr Sharad Singh on Indian Tribal Life & Culture
लोककथाओं के प्रकार :
लोककथाओं में विषय की पर्याप्त विविधता होती है। इन कथाओं के विषय को देश, काल परिस्थिति के साथ ही कल्पनाशीलता से विस्तार मिलता है। लोककथाओं के भी विषयगत कई प्रकार हैं-
1. साहसिक लोककथाएं - इस प्रकार की कथाओं में नायक अथवा नायिका के साहसिक अभियानों का विवरण रहता है।
2. मनोरंजनपरक लोककथाएं- इन कथाओं में हास्य का पुट समाहित रहता है।
3. नीतिपरक लोककथाएं- वे कथाएं जो जीवन सही ढंग से जीने की शिक्षा देती हैं ,
4. कर्मफलक एवं भाग्यपरक लोककथाएं- इन कहानियों में कर्म की प्रधानता अथवा कर्म के महत्व को स्थापित किया जाता है। , 
5. मूल्यपरक लोककथाएं- जीवन में मानवीय मूल्यों के महत्व को स्थापित करती हैं।
6. अटका लोककथाएं- वे लोककथाएं जिसमें एक पात्र किसी रहस्य के बारे में जिज्ञासा प्रकट करता और दूसरा पात्र रहस्य को सुलझा कर उसकी जिज्ञासा शांत करता। 
7. धार्मिक लोककथाएं- लोकजीवन में धार्मिक मूल्यों के महत्व को रेखांकित करती है।

लोककथा और मानवमूल्य :
मानव जीवन को मूल्यवान बनाने की क्षमता रखने वाले गुणों को मानव मूल्य कहा जाता है। आज मूल्य शब्द का प्रयोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से व्यवहार के लिए होने लगा है। मूल्य शाश्वत व्यवहार है। इसका निर्माण मानव के साथ-साथ हुआ है। यदि इसका अंत होगा तो फिर सभ्यता के साथ मानवता भी समाप्त हो जायेगी। ‘मूल्य’ उन्हीं व्यवहारों को कहा जाता है जिनमें मानव जीवन का हित समाविष्ट हो, जिनकी रक्षा करना समाज अपना सर्वाच्च कर्त्तव्य मानता है। मूल्य परम्परा का प्राण तत्त्व है। ये जीवन के आदर्श एवं सर्वसम्मत सिद्धान्त होते हैं। मूल्यों को अपनाकर जाति, धर्म और समाज को, मानव जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता है।
मूल्य सामाजिक मान्यताओं के साथ बदलते भी रहते हैं, किन्तु उनमें अन्तर्निहित मंगल कामना और सार्वजनिक हित की भावना कभी तिरोहित नहीं होती। नए परिवेश में जब पुरानी मान्यताएं कालातीत हो जाती हैं तो समाज नयी मान्यताओं को स्वीकार कर लेता है और वे ही मान्यताएं ‘मूल्य’  बन जाती हैं। पुरातन काल में जीवन मूल्यों के रूप में श्रद्धा, आस्था, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को स्वीकार किया गया है। वहीं नवीन मूल्यों में सत्य, अहिंसा, सहअस्तित्व, सहानुभूति, करुणा, दया आदि आते हैं।
लोक कथाएं मानव मूल्यों पर ही आधारित होती हैं और उनमें मानव-जीवन के साथ ही उन सभी तत्वों का विमर्श मौजूद रहता है जो इस सृष्टि के आधारभूत तत्व हैं और जो मानव-जीवन की उपस्थिति को निर्धारित करते हैं। जैसे- जल, थल, वायु, समस्त प्रकार की वनस्पति, समस्त प्रकार के जीव-जन्तु आदि।
लोक कथाओं में मानव मूल्य को जांचने के लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जा सकता है कि -
1.    लोक कथाएं संस्कृति की संवाहक होती हैं।
2.    लोक कथाओं की अभिव्यक्ति एवं प्रवाह मूल रूप से वाचिक होती है।
3.    इसका प्रवाह कालजयी होता है यानी यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
   प्रवाहित होती रहती है।
4.    सामाजिक संबंधों के कारण लोककथाओं का एक स्थान से दूसरे
   स्थान तक विस्तार होता जाता है।
5.    एक स्थान में प्रचलित लोक कथा स्थानीय प्रभावों के सहित दूसरे
   स्थान पर भी कही-सुनी जाती है।
6.    लोकथाओं का भाषिक स्वरूप स्थानीय बोली का होता है।
7.    इसमें लोकोत्तियों एवं मुहावरों का भी खुल कर प्रयोग होता है जो स्थानीय अथवा आंचलिक रूप में होते हैं।
8.    कई बार लोक कथाएं कहावतों की व्याख्या करती हैं। जैसे सौंर कथा है-‘ आम के बियाओं में सगौना फूलो’।
9.    लोक कथाओं में जनरुचि के सभी बिन्दुओं का समावेश रहता है।
10.    इन कथाओं में स्त्री या पुरुष के बुद्धिमान या शक्तिवान होने के विभाजन जैसी कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है। कोई कथा नायक प्रधान हो सकती है तो कोई नायिका प्रधान।
11.    विशेष रूप से बुंदेली लोक कथाओं में नायिका का अति सुन्दर होना या आर्थिक रूप से सम्पन्न होना पहली शर्त नहीं है। एक मामूली लड़की से  ले कर एक मेंढकी तक कथा की नायिका हो सकती है और एक दासी भी रानी पर भारी पड़ सकती है।
12.    लोक कथाओं का मूल उद्देश्य लोकमंगल हेतु रास्ता दिखाना और ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना होता है जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को महत्व मिल सके।
13.    कथ्य में स्पष्टता होती है। जो कहना होता है, वह सीधे-सीधे कहा जाता है, घुमा-फिरा कर नहीं।
14.    उद्देष्य की स्पष्टता भी लोक कथाओं की अपनी मौलिक विशिष्टता है। सच्चे और ईमानदार की जीत स्थापित करना इन कथाओं का मूल उद्देष्य होता है, चाहे वह मनुष्य की जीत हो, पशु-पक्षी की या फिर बुरे भूत-प्रेत पर अच्छे भूत-प्रेत की विजय हो।
15.    असत् सदा पराजित होता है और सत् सदा विजयी होता है।
16.    आसुरी शक्तियां मनुष्य को परेशान करती हैं, मनुष्य अपने साहस के बल पर उन पर विजय प्राप्त करता है। वह साहसी व्यक्ति शस्त्रधारी राजा या सिपाही हो यह जरूरी नहीं है, वह गरीब लकड़हारा या कोई विकलांग व्यक्ति भी हो सकता है।
17.    जो मनुष्य साहसी होता है, बड़ा देव उसकी सहायता करते हैं।
18. लगभग प्रत्येक गांव में एक न एक ऐसा विद्वान होता है जिसके पास सभी प्रश्नों और जिज्ञासाओं के सटीक उत्तर होते हैं। यह ‘सयाना’ कथा का महत्वपूर्ण पात्र होता है।
एक वाक्य में कहा जाए तो लोक कथाएं हमें आत्म सम्मान, साहस और पारस्परिक सद्भावना के साथ जीवन जीने का तरीका सिखाती हैं।
लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन कभी नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है। इसीलिए इन कथाओं में भूत-प्रेत के भय की कल्पना और विभिन्न प्रकार के मिथक विद्यमान हैं जिससे मनुष्य ऐसे कार्य न करे जिससे उसे किसी भी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। इसे मनुष्यता के विरुद्ध कार्य करने वालों के लिए लोकचेतना का आग्रह कहा जा सकता है।
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Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03.2017